गुंडा- जयशंकर प्रसाद
भाग-3
(अब तक आपने पढ़ा…काशी के बड़े ज़मींदार का बेटा नन्हकू सिंह जाने किस बात से अपने पिता से रूठकर काशी का गुंडा हो गया है। वो अपने मन का जीवन जीता है। जब हाथ ख़ाली हों तब जुआ खेलने जाता है और जीतकर आता है, ये पैसे वो वेश्याओं पर उनके कोठे में क़दम रखे बिना ही लुटा देता है। दुलारी से अपना मनचाहा गीत सुनना उसे ख़ास पसंद है और इसमें व्य्व्धान उसे बर्दाश्त नहीं है। कोई अगर बेवजह की अकड़ दिखाए तो नन्हकू सिंह को उसे सबक़ सिखाने का तरीक़ा बेहतर ढंग से आता है। जब दुलारी के साथ मौलवी का व्यवहार ग़लत होता है तो नन्हकू सिंह उसे भी दिन में तारे दिखाता है। इस घटना के तुरंत बाद दुलारी जब राजमाता रत्ना के बुलावे पर शिवालय जाती है तो वहाँ भी वो सिर्फ़ नन्हकू सिंह के गुणों का बखान करती रहती है। वैधव्य धारण कर चुकी राजमाता, जो अब अपना अधिकांश समय शिवालय में बिताती हैं दुलारी के सतह बचपन में खेल चुकी हैं। दुलारी की बातों से उनके मन में एक उत्सुकता जागती है। दूसरी ओर अब बड़े अधिकारियों में भी रोष व्याप्त है। राजा साहब को काशी में व्यवस्था क़ायम करने की सलाह आती है। कोतवाल हिम्मत सिंह इन दिनों जिसे चाहे पकड़कर अंदर करने लगा है। अब आगे..)
एक दिन नन्हकू सिंह सुम्भा के नाले के संगम पर, ऊँचे-से टीले की हरियाली में अपने चुने हुए साथियों के साथ दूधिया छान रहे थे| गंगा में उनकी पतली डोंगी बड़ की जटा से बंधी थी| कथकों का गाना हो रहा था| चार उलाँकि इक्के कसे-कसाए खड़े थे| नन्हकू सिंह ने अकस्मात कहा-
”मलूकी! गाना जमता नहीं है| उलाँकि पर बैठकर जाओ, दुलारी को बुला लाओ”
मलूकी वहां मंजीरा बजा रहा था| दौड़कर इक्के पर जा बैठा| आज नन्हकू सिंह का मन उखड़ा था| बूटी कई बार छानने पर भी नशा नहीं| एक घण्टे में दुलारी सामने आ गयी|
उसने मुस्कराकर कहा- ”क्या हुक्म है बाबू साहब?”
“दुलारी!आज गाना सुनने का मन कर रहा है”
“इस जंगल में क्यों?”- उसने सशंक हँसकर कुछ अभिप्राय से पूछा
“तुम किसी तरह का खटका न करो”-नन्हकूसिंह ने हँसकर कहा
“यह तो मैं उस दिन महारानी से भी कह आई हूँ”
“क्या किससे?”
“राजमाता पन्नादेवी से”
फिर उस दिन गाना नहीं जमा। दुलारी ने आश्चर्य से देखा कि तानों में नन्हकू की ऑंखें तर हो जाती हैं|
गाना-बजाना समाप्त हो गया था वर्षा की रात में झिल्लियों का स्वर उस झुरमुट में गूँज रहा था। मंदिर के समीप ही छोटे से कमरे में नन्हकूसिंह चिंता में निमग्न बैठा था| आँखों में नींद नहीं| और सबलोग तो सोने में लगे थे, दुलारी जाग रही थी| वह भी कुछ सोच रही थी| आज उसे अपने को रोकने के लिए कठिन प्रयत्न करना पड़ रहा था; किन्तु असफल हो कर वह उठी और नन्हकू के समीप धीरे-धीरे चली आई| कुछ आहट पाते ही दौड़कर नन्हकू सिंह ने पास ही पड़ी हुई तलवार उठा ली| तब तक हँसकर दुलारी ने कहा-”बाबूसाहब,यह क्या?स्त्रियों पर भी तलवार चलायी जाती है”
छोटे से दीपक के प्रकाश में वासना-भरी रमणी का मुख देखकर नन्हकू हँस पड़ा, उसने कहा- “क्यों बाई जी! क्या इसी समय जाने की पड़ी है, मौलवी ने फिर बुलवाया है क्या?”
दुलारी नन्हकू के पास बैठ गई| नन्हकू ने कहा-”क्या तुमको डर लग रहा है?”
“नहीं,मैं कुछ पूछने आई हूँ”
“क्या?”
“क्या..यही कि..कभी तुम्हारे हृदय में…”
“उसे न पूछो दुलारी! हृदय को बेकार ही समझकर तो उसे हाथ में लिए फिर रहा हूँ| कोई कुछ कर देता-कुचलता-चीरता-उछालता! मर जाने के लिए सबकुछ तो करता हूँ पर मरने नहीं पाता”
“मरने के लिए भी कहीं खोजने जाना पड़ता है| आपको काशी का हाल क्या मालूम! न जाने घड़ी भर में क्या हो जाए..उलट-पलट होनेवाला है क्या, बनारस की गलियां जैसे काटने को दौड़ती हैं”
“को नई बात इधर हुई है क्या?”
“कोई हेस्टिंग्स आया है; सुना है उसने शिवालय घाट पर तिलंगों की कंपनी का पहरा बैठा दिया है। राजा चेतसिंह और राजमाता पन्ना वहीँ हैं| कोई-कोई कहता है कि उनको पकड़कर कलकत्ता भेजने…”
“क्या पन्ना भी….रनिवास भी वहीँ है”-नन्हकू अधीर हो उठा था
“क्यों बाबूसाहब, आज रानी पन्ना का नाम सुनकर आपकी आँखों में आँसू क्यों आ गए?”
सहसा नन्हकू का मुख भयानक हो उठा| उसने कहा- ”चुप रहो,तुम उसको जानकर क्या करोगी?”
वह उठ खड़ा हुआ|उद्विग्न की तरह न जाने क्या खोजने लगा| फिर स्थिर होकर उसने कहा-
”दुलारी! जीवन में आज यह पहला ही दिन कि एकांत रात में एक स्त्री मेरे पलंग पर आकर बैठ गयी है, मैं चिरकुमार!अपनी एक प्रतिज्ञा का निर्वाह करने के लिए सैंकड़ों असत्य,अपराध करता फिर रहा हूँ..क्यों?..तुम जानती हो?..मैं स्त्रियों का घोर विद्रोही हूँ और पन्ना!…किन्तु उसका क्या अपराध!अत्याचारी बलवंत सिंह के कलेजे में बिछुआ मैं न उतार सका| किन्तु पन्ना! उसे पकड़कर गोरे कलकत्ते भेज देंगे! वहीं….” नन्हकूसिंह उन्मत्त हो उठा था
दुलारी ने देखा,नन्हकू अंधकार में ही वटवृक्ष के नीचे पहुँचा और गंगा की उमड़ती हुई धारा में डोंगी खोल दी-उसी घने अंधकार में| दुलारी का हृदय कांप उठा|
क्रमशः