गुंडा- जयशंकर प्रसाद
भाग-4
(अब तक आपने पढ़ा..काशी में मौजूदा वातावरण से निराश व्यक्तियों ने मिलकर एक नया संप्रदाय बनाया जो अपना जीवन अपने मन के अनुसार जीते और अपनी बहादुरी के लिए जाने जाते ऐसे लोगों को सभी गुंडा कहकर बुलाते। काशी के एक बड़े ज़मींदार के बेटे नन्हकू सिंह ने भी जाने किसी बात से रूष्ट होकर सारी संपत्ति लुटा दी और वो इसी तरह गलियों में रहता और घूमता..जुआ खेलता गाना सुनता लेकिन कोठे में न जाता। दुलारी उसके लिए गीत गाया करती। दुलारी एक रोज़ उसके लिए गीत गाने जंगल में आती है और उसे राजमाता पन्ना के बारे में बताती है। पन्ना का नाम सुनते ही नन्हकू सिंह का मुँह उतर जाता है। दुलारी के बहुत पूछने पर भी नन्हकू ज़्यादा नहीं बताता बस इतना ही कहता है कि वो पन्ना को बचा नहीं पाया। इस पर जब दुलारी उसे बताती है कि राजमाता पन्ना और राजा दोनों पर पहरा बैठा है और शायद उन्हें कलकत्ता भेज दिया जाएगा, तो नन्हकू अधीर हो उठता है और आधी रात में ही गंगा में डोंगी लिए निकल पड़ता है। अब आगे…)
१६ अगस्त सन १७८१ को काशी डांवाडोल हो रही थी| शिवालय घाट में राजा चेतसिंह लेफ्टिनेंट स्टाकर के पहरे में थे| नगर में आतंक था| दुकानें बंद थीं| घरों में बच्चे अपनी माँ से पूछते थे-”माँ आज हलुए वाला नहीं आया”
वह कहती-”चुप बेटे!….”
सड़कें सूनी पड़ी थीं| तिलंगों की कंपनी के आगे-आगे कुबरा मौलवी कभी-कभी आता-जाता दिखाई पड़ता था| उस समय खुली हुई खिड़कियाँ बंद हो जाती थीं| भय और सन्नाटे का राज्य था| चौक में चिथरूसिंह की हवेली अपने भीतर काशी की वीरता को बंद किए कोतवाल का अभिनय कर रही थी|
उसी समय किसी ने पुकारा-”हिम्मतसिंह!”
खिड़की में से सिर निकालकर हिम्मतसिंह ने पूछा-”कौन?”
“बाबू नन्हकूसिंह!”
“अच्छा, तुम अब तक बाहर ही हो?”
“पागल! राजा क़ैद हो गए हैं| छोड़ दो इन सब बहादुरों को! हम एक बार इनको लेकर शिवालय घाट जाएँ”
“ठहरो”-कहकर हिम्मतसिंह ने कुछ आज्ञा दी, सिपाही बाहर निकले| नन्हकू की तलवार चमक उठी| सिपाही भीतर भागे|
नन्हकू ने कहा-”नमकहरामों चूडियाँ पहन लो”
लोगों के देखते-देखते नन्हकूसिंह चला गया| कोतवाली के सामने फिर सन्नाटा हो गया| नन्हकू उन्मत्त था; उसके थोड़े से साथी उसकी आज्ञा पर जान देने के लिए तुले थे| वह नहीं जानता था कि राजा चेतसिंह का क्या राजनैतिक अपराध है| उसने कुछ सोचकर अपने थोड़े से साथियों को फाटक पर गडबड मचाने के लिए भेज दिया| इधर अपनी डोंगी लेकर शिवालय की खिड़की के नीचे धारा काटते हुआ पहुंचा| किसी तरह निकले हुए पत्थर में रस्सी अटकाकर, उस चंचल डोंगी को उसने स्थिर किया और बन्दर की तरह उछलकर खिड़की के भीतर हो रहा|
उस समय वहां राजमाता पन्ना और राजा चेतसिंह से बाबू मनिहार सिंह कह रहे थे- “आपके यहाँ रहने से हमलोग क्या करें, यह समझ नहीं आता| पूजापाठ समाप्त करके आप रामनगर चली गयी होतीं तो यह…”
तेजस्विनी पन्ना ने कहा-”अब मैं रामनगर कैसे चली जाऊं?”
मनिहारसिंह दुखी होकर बोले-”कैसे बताऊँ? मेरे सिपाही तो बंदी हैं”
इतने में फाटक पर कोलाहल मचा| राज-परिवार अपनी मंत्रणा में डूबा था कि नन्हकू सिंह का आना उन्हें मालूम हुआ| सामने का द्वार बंद था| नन्हकू सिंह ने एक बार गंगा की धारा को देखा_उसमें एक नाव घाट पर लगने के लिए लहरों से लड़ रही थी| वह प्रसन्न हो उठा| इसी की प्रतीक्षा में वह रुका था|
उसने जैसे सबको सचेत करते हुए कहा-”महारानी कहाँ हैं?”
सबने घूमकर देखा-एक अपरिचित वीर मूर्ति! शस्त्रों से लदा हुआ पूरा देव|
चेतसिंह ने पूछा-”तुम कौन हो?”
“राजपरिवार का एक बिना दाम का सेवक!”- पन्ना के मुंह से हलकी-सी एक साँस निकलकर रह गयी| उसने पहचान लिया| इतने वर्षों बाद! वही नन्हकू सिंह|
मनिहारसिंह ने पूछा-”तुम क्या कर सकते हो?”
“मैं मर सकता हूँ| पहले महारानी को डोंगी पर बिठाइए| नीचे दूसरी डोंगी पर अच्छे मल्लाह हैं; फिर बात कीजिए”
मनिहार सिंह ने देखा, जनानी ड्योढ़ी का दारोगा एक डोंगी पर चार मल्लाहों के साथ खिड़की से नाव सटाकर प्रतीक्षा में है..उन्होंने पन्ना से कहा- ”चलिए, मैं साथ चलता हूँ”
“और….”चेतसिंह को देखकर पुत्रवत्सला ने संकेत से एक प्रश्न किया, उसका उत्तर किसी के पास न था|
मनिहारसिंह ने कहा-”तब मैं यहीं?”
नन्हकू ने हँस कर कहा-”मेरे मालिक आप नाव पर बैठें| जब तक राजा भी नाव पर न बैठ जाएँगे, तब तक सत्रह गोली खाकर भी नन्हकू सिंह जीवित रहने की प्रतिज्ञा करता है”
पन्ना ने नन्हकू को देखा| एक क्षण के लिए चारों आँखें मिलीं, जिनमें जन्म-जन्म का विश्वास ज्योति की तरह जल रहा था| फाटक बलपूर्वक खोला जा रहा था|
नन्हकू ने उन्मत्त हो कर कहा-”मालिक जल्दी कीजिए”
दूसरे क्षण पन्ना डोंगी पर थी और नन्हकू सिंह फाटक पर स्टाकर के साथ|चेतराम ने आकर चिट्ठी मनिहार सिंह के हाथ में दी|
लेफ्टिनेंट ने कहा-”आपके आदमी गडबड मचा रहे हैं| अब मैं अपने सिपाहियों को गोली चलाने से नहीं रोक सकता”
“मेरे सिपाही यहाँ कहाँ है साहब?”मनिहार सिंह ने हँसकर कहा|
बाहर कोलाहल बढ़ने लगा|
चेतराम ने कहा-”पहले चेतसिंह को क़ैद कीजिए”
“कौन ऐसी हिम्मत करता है?” कड़ककर कहते हुए बाबू मनिहार सिंह ने तलवार खींच ली| अभी बात पूरी न हो सकी थी कि कुबरा मौलवी वहां आ पहुंचा|यहाँ मौलवी की क़लम नहीं चल सकती थी, और न ये बाहर ही जा सकते थे|
उन्होंने कहा-”देखते क्या हो चेतराम!”
चेतराम ने राजा के ऊपर हाथ रखा ही था कि नन्हकू के सधे हुए हाथ ने उसकी भुजा उड़ा दी| स्टाकर आगे बढ़े, मौलवी साहब चिल्लाने लगे| नन्हकू ने देखते-देखते स्टाकर और उसके कई साथियों को धराशाई किया; फिर मौलवी साहब कैसे बचते!
नन्हकू सिंह ने कहा-”क्यों, उस दिन के झापड़ ने तुमको समझाया नहीं? पाजी!”-कहकर ऐसा साफ़ जनेवा मारा कि कुबरा ढेर हो गया| कुछ ही क्षणों में यह भीषण घटना हो गई, जिसके लिए कोई प्रस्तुत न था|
नन्हकू सिंह ने ललकारकर कहा- “आप क्या देखते हैं? उतरिये डोंगी पर!”-उसके घावों से रक्त के फुहारे छूट रहे थे| उधर फाटक से तिलंगे भीतर आने लगे थे| चेतसिंह ने खिड़की से उतरते हुए देखा कि बीसों तिलंगों की संगीनों में वह अविचल खड़ा होकर तलवार चला रहा है| नन्हकू के चट्टान सदृश शरीर से गैरिक की तरह रक्त की धारा बह रही है| गुण्डे का एक-एक अंग कटकर वहीं गिरने लगा|
वह काशी का गुण्डा था!
समाप्त