अनुपमा का प्रेम- शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय
भाग-3
बहुत-सी बातों के बाद सुरेश की माता से बोली- “अपने लड़के के साथ मेरी लड़की का विवाह कर लो”
सुरेश की माता हँसती हुई बोलीं- “बुरा क्या है?”
“बुरे-भले की बात नहीं, विवाह करना ही होगा!”
“तो सुरेश से एक बार पूछ आऊँ। वह घर में ही है, उसकी सम्मति होने पर पति को असहमति नही होगी”
सुरेश उस समय घर में रहकर बी.ए.की परीक्षा की तैयारी कर रहा था, एक क्षण उसके लिए एक वर्ष के समान था। उसकी माँ ने विवाह की बात कही, मगर उसके कान में नही पड़ी; गृहिणी ने फिर कहा- “सुरो, तुझे विवाह करना होगा”
सुरेश मुँह उठाकर बोला- “वह तो होगा ही! परन्तु अभी क्यों? पढ़ने के समय यह बातें अच्छी नहीं लगतीं”
गृहिणी अप्रतिभ होकर बोली- “नहीं, नहीं, पढ़ने के समय क्यों? परीक्षा समाप्त हो जाने पर विवाह होगा”
“कहाँ?”
“इसी गाँव में जगबन्धु बाबू की लड़की के साथ”
“क्या? चन्द्र की बहन के साथ ? जिसे मैं बच्ची कहकर पुकारता हूँ?”
“बच्ची कहकर क्यों पुकारेगा, उसका नाम अनुपमा है”
सुरेश थोड़ा हँसकर बोला- “हाँ, अनुपमा! दुर्र वह?, दुर्र, वह तो बड़ी कुत्सित है!”
“कुत्सित कैसे हो जाएगी? वह तो देखने में अच्छी है!”
“भले ही देखने में अच्छी! एक ही जगह ससुराल और पिता का घर होना, मुझे अच्छा नही लगता”
“क्यों? उसमें और क्या दोष है?”
“दोष की बात का कोई मतलब नहीं! तुम इस समय जाओ माँ, मैं थोड़ा पढ़ लूँ, इस समय कुछ भी नहीं होगा!”
सुरेश की माता लौट आकर बोलीं- “सुरो तो एक ही गाँव में किसी प्रकार भी विवाह नही करना चाहता”
“क्यों?”
“सो तो नही जानती!”
अनु की माता, मजमूदार की गृहिणी का हाथ पकड़कर कातर भाव से बोलीं- “यह नहीं होगा, बहन! यह विवाह तुम्हे करना ही पड़ेगा”
“लड़का तैयार नहीं है; मैं क्या करूँ, बताओ?”
“न होने पर भी मैं किसी तरह नहीं छोड़ूँगी”
“तो आज ठहरो, कल फिर एक बार समझा देखूँगी, यदि सहमत कर सकी”
अनु की माता घर लौटकर जगबन्धु बाबू से बोलीं- “उनके सुरेश के साथ हमारी अनुपमा का जिस तरह विवाह हो सके, वह करो!”
“पर क्यों, बताओ तो? राम गाँव में तो एक तरह से सब निश्चित हो चुका है! उस सम्बन्ध को तोड़ दें क्या?”
“कारण है”
“क्या कारण है?”
“कारण कुछ नहीं, परन्तु सुरेश जैसा रूप-गुण-सम्पन्न लड़का हमें कहाँ मिल सकता है? फिर, मेरी एक ही तो लड़की है, उसे दूर नहीं ब्याहूंगी। सुरेश के साथ ब्याह होने पर, जब चाहूंगी, तब उसे देख सकूँगी”
“अच्छा प्रयत्न करूंगा”
“प्रयत्न नहीं, निश्चित रूप से करना होगा”- पति नथ का हिलना-डुलना देखकर हँस पड़े बोले- “यही होगा जी”
संध्या के समय पति मजमूदार के घर से लौट आकर गृहिणी से बोले- “वहाँ विवाह नही होगा।…मैं क्या करूँ, बताओ उनके तैयार न होने पर मैं ज़बर्दस्ती तो उन लोगों के घर में लड़की को नहीं फेंक आऊंगा!”
“करेंगे क्यों नहीं?”
“एक ही गाँव में विवाह करने का उनका विचार नहीं है”
गृहिणी अपने मष्तिष्क पर हाथ मारती हुई बोली- “मेरे ही भाग्य का दोष है”
दूसरे दिन वह फिर सुरेश की माँ के पास जाकर बोली- “दीदी, विवाह कर लो”
“मेरी भी इच्छा है; परन्तु लड़का किस तरह तैयार हो?”
“मैं छिपाकर सुरेश को और भी पाँच हज़ार रुपए दूंगी”
रुपयों का लोभ बड़ा प्रबल होता है। सुरेश की माँ ने यह बात सुरेश के पिता को जताई। पति ने सुरेश को बुलाकर कहा – “सुरेश, तुम्हें यह विवाह करना ही होगा”
“क्यों?”
“क्यों, फिर क्यों? इस विवाह में तुम्हारी माँ का मत ही मेरा भी मत है, साथ-ही-साथ एक कारण भी हो गया है”
सुरेश सिर नीचा किए बोला- “यह पढ़ने-लिखने का समय है, परीक्षा की हानि होगी”
“उसे मैं जानता हूँ, बेटा! पढ़ाई-लिखाई की हानि करने के लिए तुमसे नहीं कह रहा हूँ। परीक्षा समाप्त हो जाने पर विवाह करो”
“जो आज्ञा!”
अनुपमा की माता की आनन्द की सीमा न रही। फ़ौरन यह बात उन्होंने पति से कही। मन के आनन्द के कारण दास- दासी सभी को यह बात बताई।
बड़ी बहू ने अनुपमा को बुलाकर कहा- “यह लो! तुम्हारे मन चाहे वर को पकड़ लिया है”
अनुपमा लज्जापूर्वक थोड़ा हँसती हुई बोली- “यह तो मैं जानती थी!”
“किस तरह जाना? चिट्ठी-पत्री चलती थी क्या?”
“प्रेम अन्तर्यामी है! हमारी चिठ्ठी-पत्री हृदय में चला करती है”
“धन्य हो, तुम जैसी लड़की!”
अनुपमा के चले जाने पर बड़ी बहू ने धीरे-धीरे मानो अपने आप से कहा- “देख-सुनकर शरीर जलने लगता है। मैं तीन बच्चों की माँ हूँ और यह आज मुझे प्रेम सिखाने आई है”
समाप्त