सहपाठी – सत्यजीत राय
भाग-2
(अब तक आपने पढ़ा..शहर में एक अच्छी नौकरी और हैसियत वाले मोहित सरकार को अपने स्कूल के एक सहपाठी जयदेव के फ़ोन से स्कूल के वक़्त की बातें याद आती हैं। जयदेव जिसके साथ मोहित ने स्कूल के सबसे अच्छे दिन बिताए थे, पढ़ाई, खेल और ढेर सारे अच्छे पल..लेकिन कॉलेज जाते ही मोहित की ज़िंदगी में उसके अच्छे दोस्त जय की जगह दूसरे दोस्त ने ले ली और जय की यादें मिट-सी गयीं, लेकिन इस एक फ़ोन से यादों की वो धूल झड़ गयी। सुबह ही दोस्त को मिलने बुलाने वाले मोहित को शाम तक ये बात याद नहीं थी, लेकिन जय समय के हिसाब से मिलने पहुँच चुका था..सालों बाद दोनों दोस्तों का आमना-सामना होता है। अब आगे…)
“काफ़ी बदल गया हूँ न?”
“बैठो”
मोहित अब तक खड़ा था। सामने वाले सोफ़े पर उसके बैठ जाने के बाद मोहित भी अपनी जगह पर बैठ गया।मोहित के विद्यार्थी जीवन की तस्वीर उसके एलबम में पड़ी है. उस तस्वीर में चौदह साल के मोहित के साथ आज के मोहित को पहचान पाना बहुत मुश्किल नहीं है। तो फिर सामने बैठे जय को पहचान पाना इतना कठिन क्यों हो रहा है? सिर्फ़ तीस सालों में क्या चेहरे में इतने बदलाव आ जाते हैं?
“तुम्हें पहचान पाने में कोई मुश्किल नहीं हो रही है,रास्ते पर भी देख लेता तो पहचान जाता”- भला आदमी आते ही शुरू हो गया था- “दरअसल मुझ पर मुसीबतों का पहाड़-सा टूट पड़ा है। कॉलेज में ही था कि पिताजी गुज़र गए। मैं पढ़ना-लिखना छोड़कर नौकरी की तलाश में भटकता रहा और बाक़ी तुम्हें पता है ही। अच्छी किस्मत और सिफ़ारिश न हो तो आज के ज़माने में हम जैसे लोगों के लिए…”
“चाय तो पियोगे?”
“चाय..हाँ, लेकिन..’
मोहित ने विपिन को बुलाकर चाय लाने को कहा।इसके साथ उसे यह सोचकर राहत मिली कि केक या मिठाई न भी हो तो कोई ख़ास बात नहीं। इसके लिए बिस्कुट ही काफ़ी होगा।
“ओह!” उस भले आदमी ने कहा, “आज दिनभर न जाने कितनी पुरानी बातें याद करता रहा। तुम्हें क्या बताऊँ…”
मोहित का भी कुछ समय ऐसे ही बीता है। लेकिन उसने ऐसा कुछ कहा नहीं।
“एल.सी.एम. और जी.सी.एम. की बातें याद हैं?”
मोहित को इस बारे में पता न था लेकिन प्रसंग आते ही उसे याद आ गया, एल.सी.एम. यानी पी.टी. मास्टर लालचंद मुखर्जी और जी.सी.एम. यानी गणित के टीचर गोपेन्द्रचंद्र मित्र।
“स्कूल में ही पानी की टंकी के पीछे हम दोनों को ज़बरदस्ती आसपास खड़ाकर बॉक्स कैमरे से किसी ने हमारी तस्वीर खींची थी, याद है?”
अपने होठों के कोने पर एक मीठी मुस्कान चिपकाकर मोहित ने यह जता दिया कि उसे अच्छी तरह याद है। आश्चर्य, ये सब तो सच्ची बातें हैं और अब भी अगर यह जयदेव न हो तो इतनी बातों के बारे में इसे पता कैसे चला?
“स्कूली जीवन के वे पाँचों साल, मेरे जीवन के सबसे अच्छे साल थे।” आने वाले ने बताया और फिर अफ़सोस जताया, “वैसे दिन अब दोबारा कभी नहीं आएँगे भाई!”
“लेकिन तुम तो लगभग मेरी ही उम्र के हो”- मोहित इस बात को कहे बिना रह नहीं पाया।
“मैं तुमसे कोई तीन-चार महीने छोटा ही हूँ”
“तो फिर तुम्हारी यह हालत कैसे हुई? तुम तो गंजे हो गए?”
“परेशानी और तनाव के सिवा और क्या वजह होगी?”- आगंतुक ने बताया- “हालाँकि गंजापन तो हमारे परिवार में पहले से ही रहा है। मेरे बाप और दादा दोनों ही गंजे हो गए थे सिर्फ़ पैंतीस साल की उम्र में। मेरे गाल धँस गए हैं- हाड़-तोड़ मेहनत की वजह से और ढंग का खाना कहाँ नसीब होता है? और तुम लोगों की तरह मेज़-कुर्सी पर बैठकर तो हम लोग काम नहीं करते। पिछले सात साल से एक कारखाने में काम कर रहा हूँ, इसके बाद मेडिकल सेल्समैन के नाते इधर-उधर की भाग-दौड़, बीमे की दलाली, इसकी दलाली, उसकी दलाली।किसी एक काम में ठीक से जुटे रहना अपने नसीब में कहाँ! अपने ही जाल में फँसी मकड़ी की तरह इधर-उधर घूमता रहता हूँ। कहते हैं न देह धरे का दंड। देखना है यह देह भी कहाँ तक साथ देती है। तुम तो मेरी हालत देख ही रहे हो!”
विपिन चाय ले आया था। चाय के साथ संदेश और समोसा भी..गनीमत है, पत्नी ने इस बात का ख़याल रखा था।लेकिन अपने सहपाठी की इस टूटी-फूटी तस्वीर देखकर वह क्या सोच रही होगी…इसका अंदाज़ उसे नहीं हो पाया।
“तुम नहीं लोगे?” आगंतुक ने पूछा।
मोहित ने सिर हिलाकर कहा- “नहीं, अभी-अभी पी है”
“संदेश तो ले लो”
“नहीं तुम शुरू तो करो”
भले आदमी ने समोसा उठाकर मुँह में रखा और इसका एक टुकड़ा चबाते-चबाते बोला- “बेटे का इम्तिहान सिर पर है और मेरी परेशानी यह है मोहित भाई कि मैं उसके लिए फीस के रुपए कहाँ से जुटाऊँ? कुछ समझ में नहीं आता”
अब आगे कुछ कहने की ज़रूरत नहीं थी। मोहित समझ गया।इसके आने के पहले ही उसे समझ लेना चाहिए था कि क्या माजरा है? आर्थिक सहायता और इसके लिए प्रार्थना। आख़िर यह कितनी रकम की मदद माँगेगा? अगर बीस-पच्चीस रुपए दे देने पर भी पिंड छूट सके तो वह ख़ुशकिस्मती ही होगी और अगर यह मदद नहीं दी गई तो यह बला टल पाएगी ऐसा नहीं कहा जा सकता।
“पता है, मेरा बेटा बड़ा होशियार है! अगर उसे अभी यह मदद नहीं मिली तो उसकी पढ़ाई बीच में ही रुक जाएगी…मैं जब-जब इस बारे में सोचता हूँ तो मेरी रातों की नींद हराम हो जाती है”
प्लेट से दूसरा समोसा उड़ चुका था।मोहित ने मौका पाकर किशोर जयदेव के चेहरे से इस आगंतुक के चेहरे को मिलाकर देखा और अब उसे पूरा यकीन हो गया कि उस बालक के साथ इस अधेड़ आदमी का कहीं कोई मेल नहीं।
“इसलिए कह रहा था कि…”- चाय की चुस्की भरते आगंतुक ने आगे कहा- “अगर तुम सौ-डेढ़ सौ रुपए अपने इस पुराने दोस्त को दे सको तो…”
“वेरी सॉरी”
“क्या?”
मोहित ने मन-ही-मन यह सोच रखा था कि अगर बात रुपए-पैसे पर आई तो वह एकदम “ना” कर देगा।लेकिन अब जाकर उसे लगा कि इतनी रुखाई से मना करने की ज़रूरत नहीं थी।इसलिए अपनी ग़लती की मरम्मत करते हुए उसने बड़ी नरमी से कहा- “सॉरी भाई। अभी मेरे पास कैश रुपए नहीं हैं”
“मैं कल आ सकता हूँ”
“मैं कलकत्ता के बाहर रहूँगा..तीन दिनों के बाद लौटूँगा, तुम रविवार को आ जाओ”
“रविवार को?”
आगंतुक थोड़ी देर तक चुप रहा। मोहित ने भी मन-ही-मन में कुछ ठान लिया था। यह वही जयदेव है, इसका कोई प्रमाण नहीं है।कलकत्ता के लोग एक-दूसरे को ठगने के ही हज़ार तरीके जान गए हैं।किसी के पास से तीस साल पहले के बालीगंज स्कूल की कुछ घटनाओं के बारे में जान लेना कोई मुश्किल काम नहीं था। वही सही।
“मैं रविवार को कितने बजे आ जाऊँ?”
“सवेरे-सवेरे ही ठीक रहेगा”
शुक्रवार को ईद की छुट्टी है।मोहित ने पहले से ही तय कर रखा है कि वह अपनी पत्नी के साथ बारूईपुर के एक मित्र के यहाँ उनके बागानबाड़ी में जाकर सप्ताहांत मनाएगा। वहाँ दो-तीन दिन तक रुककर रविवार की रात को ही घर लौट पाएगा। इसलिए वह भला आदमी जब रविवार की सुबह घर पर आएगा तो मुझसे मिल नहीं पाएगा।इस बहाने की ज़रूरत नहीं पड़ती, अगर मोहित ने दो टूक शब्द में उससे “ना” कह दिया होता।लेकिन ऐसे भी लोग होते हैं जो एकदम ऐसा नहीं कह सकते। मोहित ऐसे ही स्वभाव का आदमी है।रविवार को उससे मुलाक़ात न होने के बावजूद वह कोई दूसरा तरीका ढूँढ़ निकाले तो मोहित उससे भी बचने की कोशिश करेगा।शायद इसके बाद किसी दूसरी परेशानी का सामना करने की नौबत नहीं आएगी।
क्रमशः