वसीम बरेलवी की ग़ज़ल
मैं इस उम्मीद पे डूबा कि तू बचा लेगा,
अब इसके ब’अद मिरा इम्तिहान क्या लेगा
ये एक मेला है व’अदा किसी से क्या लेगा,
ढलेगा दिन तो हर इक अपना रास्ता लेगा
मैं बुझ गया तो हमेशा को बुझ ही जाऊँगा,
कोई चराग़ नहीं हूँ कि फिर जला लेगा
कलेजा चाहिए दुश्मन से दुश्मनी के लिए,
जो बे-अमल है वो बदला किसी से क्या लेगा
मैं उस का हो नहीं सकता बता न देना उसे,
लकीरें हाथ की अपनी वो सब जला लेगा
हज़ार तोड़ के आ जाऊँ उस से रिश्ता ‘वसीम’
मैं जानता हूँ वो जब चाहेगा बुला लेगा
________________________
जलील मानिकपुरी की ग़ज़ल
दिल है अपना न अब जिगर अपना,
कर गई काम वो नज़र अपना
अब तो दोनों की एक हालत है,
दिल सँभालूँ कि मैं जिगर अपना
मैं हूँ गो बे-ख़बर ज़माने से,
दिल है पहलू में बा-ख़बर अपना
दिल में आए थे सैर करने को,
रह पड़े वो समझ के घर अपना
चारा-गर दे मुझे दवा ऐसी
दर्द हो जाए चारा-गर अपना
वज़्अ-दारी की शान है ये ‘जलील’
रंग बदला न उम्र भर अपना
___________________
फ़ोटो क्रेडिट(फ़ीचर्ड इमेज): फ़्रांस मोर्तेल्मंस की पेंटिंग “Two pink Prince-de-Bulgarie roses”.