‘शाइरी की बातें’ में हम अभी आपको ‘वज़्न’ के बारे में बता रहे हैं लेकिन आज हम एक अन्य विषय के बारे में आपको बताना चाहेंगे और कल से फिर हम ‘वज़्न करने का तरीक़ा’ को जारी रखेंगे. आज हम बात करेंगे न’अत की. न’अत शाइरी की एक विधा है. इस्लाम धर्म के संस्थापक और आख़िरी पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद की तारीफ़ में कही गयी कविताओं को न’अत कहा जाता है. ये ‘हम्द’ से अलग है, ‘हम्द’ अल्लाह की तारीफ़ में कही जाने वाली कविता को कहते हैं. हर दौर में ‘न’अत’ कही जाती रही है और इसके धार्मिक पहलू की वजह से इसे ‘न’अत शरीफ़'(नात शरीफ़) भी कहते हैं.
न’अत की शुरुआत अरबी भाषा में हुई. ऐसा माना जाता है कि सन 622 में ये न’अत पहली दफ़’अ मदीना के रहने वाले लोगों ने तब गायी जब पैग़म्बर मुहम्मद मदीना आए. इसे तला’अल बद-रुल-अलैना कहा जाता है. उर्दू भाषा में भी न’अत का इतिहास काफ़ी पुराना है. लगभग हर दौर में शा’इरों ने न’अत कही है. न’अत कहने वाले कुछ मशहूर शा’इरों के नाम अगर लिए जाएँ तो उनमें क़ुली क़ुतुब शाह, वली दकनी, मीर, सौदा, ग़ालिब, मोमिन, करामत अली शहीदी, इत्यादि के नाम आते हैं.
हालाँकि ये माना जाता है कि न’अत को शाइरी की एक क़िस्म के तौर पर पहचान उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में ही मिलनी शुरू’अ हुई. इसका श्रेय अगर देखें तो मौलाना किफ़ायत अली काफ़ी को जाता है, उनके अलावा न’अत को विशेष स्थान दिलाने में मौलाना ग़ुलाम इमाम शहीद और हफ़ीज़ लुत्फ़ बरेलवी ने भी बड़ा काम किया. उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में न’अत कहने वालों में मोहसिन काकोरवी और अमीर मीनाई के नाम आते हैं जिसमें मोहसिन कोकारवी ने अपनी सारी शा’इरी न’अत में ही की. न’अत कहने वालों में अल्ताफ़ हुसैन हाली, शिबली नोमानी, मौलाना ज़फ़र अली ख़ान और अल्लामा इक़बाल का भी नाम आता है. मौजूदा दौर में भी न’अत कहने वाले कई अच्छे शा’इर मौजूद हैं.