आई चिपक पसीने वाली,
गरमी मई की जून की।
चैन नहीं आता है मन को,दिन बेचैनी वाले
सल्लू का मन करता कूलर, खींसे में रखवा ले।
बातें तो बस उसकी बातें, बातें अफ़लातून की।
दादी कहतीं सत्तू खाने से जी ठंडा होता।
जिसने बचपन से खाया है, तन मन चंगा होता।
ख़ुद ले आतीं खुली पास में, इक दूकान परचून की।
बोले पापा इस गरमी में, हम शिमला जाएँगे
वहीं किसी भाड़े के घर में सब रहकर आएँगे
मज़े-मज़े बीतेगी सबकी, छुट्टी बड़े सुकून की
-प्रभुदयाल श्रीवास्तव