(हिंदी की पहली कहानी कौन-सी है? इस सवाल पर अलग-अलग जानकारों के अलग-अलग मत हैं..और उन मतों के अनुसार ही कुछ कहानियों को हिंदी की पहली कहानी माना जाता है। कुछ दिनों से आप “घनी कहानी छोटी शाखा” में पढ़ रहे हैं, ऐसी ही कुछ कहानियों को, जो मानी जाती हैं हिंदी की पहली कहानियों में से एक..आज से पेश है “चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी'” की लिखी कहानी “उसने कहा था” ..आज पढ़िए पहला भाग)
उसने कहा था- चंद्रधर शर्मा गुलेरी
भाग-1
बड़े-बडे शहरों के इक्के-गाड़ी वालों की ज़बान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई हैं और कान पक गए हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बम्बू कार्ट वालों की बोली का मरहम लगावे । जबकि बड़े शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ के चाबुक से धुनते हुए इक्के वाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट यौन संबंध स्थिर करते हैं, कभी उसके गुप्त गुह्य अंगो से डॉक्टर को लजाने वाला परिचय दिखाते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखों के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरों की अंगुलियों के पोरों को चीथकर अपने ही को सताया हुआ बताते हैं और संसार भर की ग्लानि और क्षोभ के अवतार बने नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर मे उनकी बिरादरी वाले तंग चक्करदार गलियों में हर एक लडढी वाले लिए ठहरकर सब्र का समुद्र उमड़ा कर-
“बचो खालसाजी”, “हटो भाईजी”, “ठहरना भाई”, “आने दो लालाजी”, “हटो बाछा”
कहते हुए सफेद फेटों, खच्चरों और बतखों, गन्ने और खोमचे और भारे वालों के जंगल से राह खेते हैं । क्या मजाल है कि जी और साहब बिना सुने किसी को हटना पड़े । यह बात नही कि उनकी जीभ चलती ही नही, चलती हैं पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई । यदि कोई बुढिया बार-बार चिटौनी देने पर भी लीक से नही हटती तो उनकी बचनावली के ये नमूने हैं-
“हट जा जीणे जोगिए, हट जा करमाँ वालिए, हट जा , पुत्तां प्यारिए. बच जा लम्बी उमर वालिए”
समष्टि मे इसका अर्थ हैं कि “तू जीने योग्य है, तू भाग्योंवाली है, पुत्रों को प्यारी है, लम्बी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहियों के नीचे आना चाहती है? बच जा।”
ऐसे बम्बू कार्ट वालो के बीच मे होकर एक लड़का और एक लड़की चौक की दुकान पर आ मिले । उसके बालों और इसके ढीले सुथने से जान पडता था कि दोनो सिख हैं । वह अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था और यह रसोई के लिए बड़ियाँ । दुकानदार एक परदेशी से गूँथ रहा था, जो सेर भर गीले पापड़ो की गड्डी गिने बिना हटता न था ।
“तेरा घर कहाँ हैं?”
“मगरे में- और तेरा?”
“माँझे में, यहाँ कहाँ रहती है?”
“अतरसिंह की बैठक में, वह मेरे मामा होते हैं”
“मैं भी मामा के आया हूँ, उनका घर गुरु बाज़ार में है”
इतने मे दुकानदार निबटा और इनका सौदा देने लगा । सौदा लेकर दोनो साथ-साथ चले । कुछ दूर जाकर लड़के ने मुस्कुराकर पूछा-
“तेरी कुडमाई हो गई?”- इस पर लड़की कुछ आँखें चढ़ाकर “धत्त” कहकर दौड गई और लड़का मुँह देखता रह गया ।
दूसरे तीसरे दिन सब्जी वाले के यहाँ, या दूध वाले के यहाँ अकस्मात् दोनो मिल जाते। महीना भर यही हाल रहा । दो-तीन बार लड़के ने फिर पूछा-
“तेरे कुडमाई हो गई?” – और उत्तर में वही “धत्त” मिला । एक दिन जब फिर लडके ने वैसी ही हँसी मे चिढ़ाने के लिए पूछा तो लड़की लड़के की संभावना के विरुद्ध बोली-
“हाँ, हो गयी”
“कब?”
“कल, देखते नही यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू”- कहकर लड़की भाग गई ।
लड़के ने घर की सीध ली । रास्ते मे एक लड़के को मोरी मे ढकेल दिया, एक छावड़ी वाले की दिन भर की कमाई खोई, एक कुत्ते को पत्थर मारा और गोभी वाले ठेले मे दूध उंडेल दिया, सामने नहाकर आती हुई किसी वैष्णवी से टकराकर अन्धे की उपाधि पाई। तब कहीं घर पहुँचा
“होश मे आओ, क़यामत आयी हैं और लपटन साहब की वर्दी पहन कर आयी है”
“क्या?”
“लपटन साहब या तो मारे गये हैं या कैद हो गये हैं, उनकी वर्दी पहनकर कोई जर्मन आया है, सूबेदार ने इसका मुँह नही देखा। मैंने देखा है और बातें की हैं । सौहरा साफ़ उर्दू बोलता है, पर किताबी उर्दू और मुझे पीने की सिगरेट दिया है”
“तो अब?”
“अब मारे गए, धोखा है। सूबेदार कीचड़ मे चक्कर काटते फिरेंगे और यहाँ खाई पर धावा होगा उधर उनपर खुले मे धावा होगा…उठो, एक काम करो। पलटन मे पैरों के निशान देखते-देखते दौड़ जाओ…अभी बहुत दूर न गये होगे । सूबेदार से कहो कि एकदम लौट आवें, खंदक की बात झूठ है। चले जाओ, खंदक के पीछे से ही निकल जाओ । पत्ता तक न खुड़के। देर मत करो”
“हुकुम तो यह है कि यहीं…”
“ऐसी-तैसी हुकुम की ! मेरा हुकुम है – जमादार लहनासिंह जो इस वक्त यहाँ सबसे बड़ा अफसर हैं..उसका हुकुम हैं । मैं लपटन साहब की ख़बर लेता हूँ”
“पर यहाँ तो तुम आठ ही हो”
“आठ नही, दस लाख। एक-एक अकालिया सिख सवा लाख के बराबर होता है, चले जाओ”
लौटकर खाई के मुहाने पर लहनासिंह दीवार से चिपक गया । उसने देखा कि लपटन साहब ने जेब से बेल के बराबर तीन गोले निकाले। तीनों को जगह-जगह खंदक की दीवारों में घुसेड़ दिया और तीनों में एक तार-सा बाँध दिया । तार के आगे सूत की गुत्थी थी, जिसे सिगड़ी के पास रखा । बाहर की तरफ जाकर एक दियासलाई जलाकर गुत्थी रखी…
बिजली की तरह दोनो हाथों से उलटी बन्दूक को उठाकर लहनासिंह ने साहब की कुहली पर तानकर दे मारा । धमाके के साथ साहब के हाथ से दियासलाई गिर पड़ी । लहनासिंह ने एक कुन्दा साहब की गर्दन पर मारा और साहब “आँख! मीन गाट्ट”- कहते हुए चित्त हो गये ।
लहनासिंह ने तीनों गोले बीनकर खंदक के बाहर फेंके और साहब को घसीटकर सिगड़ी के पास लिटाया। जेबों की तलाशी ली..तीन-चार लिफ़ाफ़े और एक डायरी निकालकर उन्हें अपनी जेब के हवाले किया। साहब की मूर्च्छा हटी।
लहना सिंह हँसकर बोला- “क्यों लपटन साहब, मिज़ाज कैसा है? आज मैंने बहुत बातें सीखी । यह सीखा कि सिख सिगरेट पीते हैं । यह सीखा कि जगाधरी के जिले मे नीलगायें होती हैं और उनके दो फुट चार इंच के सींग होते है । यह सीखा कि मुसलमान ख़ानसामा मूर्तियों पर जल चढाते हैं और लपटन साहब खोते पर चढते हैं। पर यह तो कहो, ऐसी साफ़ उर्दू कहाँ से सीख आये? हमारे लपटन साहब तो बिना ‘डैम’ के पाँच लफ़्ज भी नही बोला करते थे”
लहनासिंह ने पतलून की जेबों की तलाशी नही ली थी । साहब ने मानो जाड़े से बचने के लिए दोनों हाथ जेबों में डाले ।
लहनासिंह कहता गया – “चालाक तो बड़े हो, पर माँझे का लहना इतने बरस लपटन साहब के साथ रहा है। उसे चकमा देने के लिए चार आँखे चाहिए। तीन महीने हुए एक तुरकी मौलवी मेरे गाँव मे आया था। औरतों को बच्चे होने का ताबीज़ बाँटता था और बच्चों को दवाई देता था। चौधरी के बड़ के नीचे मंजा बिछाकर हुक्का पीता रहता था और कहता था कि जर्मनी वाले बड़े पंडित हैं। वेद पढ़ पढ़ कर उसमें से विमान चलाने की विद्या जान गये हैं। गौ को नही मारते। हिन्दुस्तान में आ जायेंगे तो गोहत्या बन्द कर देगे । मंडी के बनियों को बहकाता था कि डाकखाने से रुपये निकाल लो, सरकार का राज्य जाने वाला है। डाक बाबू पोल्हू राम भी डर गया था, मैने मुल्ला की दाढ़ी मूँड दी थी और गाँव से बाहर निकालकर कहा था कि जो मेरे गाँव मे अब पैर रखा तो…”
साहब की जेब मे से पिस्तौल चला और लहना की जाँध मे गोली लगी। इधर लहना की हेनरी मार्टिन के दो फ़ायरो ने साहब की कपाल-क्रिया कर दी ।धडाका सुनकर सब दौड आये ।
बोधा चिल्लाया- “क्या है?”
लहनासिंह ने उसे तो यह कहकर सुला दिया कि “एक हड़का कुत्ता आया था, मार दिया” और औरों से सब हाल कह दिया बंदूके लेकर सब तैयार हो गये । लहना ने साफ़ा फाड़कर घाव के दोनों तरफ़ पट्टियाँ कसकर बाँधी..घाव माँस मे ही था, पट्टियों के कसने से लहू बन्द हो गया ।
इतने मे सत्तर जर्मन चिल्लाकर खाई मे घुस पड़े । सिक्खों की बंदूको की बाढ़ ने पहले धावे को रोका..दूसरे को रोका…पर यहाँ थे आठ (लहना सिंह तक तककर मार रहा था — वह खड़ा था औऱ लेटे हुए थे ) और वे सत्तर।
क्रमशः