भाग-6
(अब तक आपने पढ़ा..प्रयाग में प्लेग के फैलने पर घर लौटने की तैयारी करते ठाकुर विभवसिंह की पत्नी को प्लेग हो जाता है, उसकी मृत्यु तक तो ठाकुर विभवसिंह को न चाहते हुए भी, अपने पुत्र के कारण रुकना पड़ता है; लेकिन मृत्यु के बाद ही वो अपनी पत्नी के अंतिम संस्कार की ज़िम्मेदारी नौकरों और पुरोहित के हाथों सौंपकर निकल जाते हैं। नौकर और पुरोहित भी शव को जलाने की बजाय पानी में बहा देते हैं। बाँस के सहारे बँधा हुआ कृशकाय शरीर बहता हुआ किनारे लग जाता है और जीवित ठकुराइन को होश आता है। इधर उसके घाव भी ठीक हो जाते हैं और वो एक किनारे लगती है जहाँ उसे कई तरह के फूल-फल दिखते हैं और उसे अपनी ही बगिया नज़र आती है वो अपने बंगले के निकट पहुँच चुकी होती है कि एक गाँव की स्त्री उसे कफ़न पहने देख चुड़ैल समझ लेती है। वो गाँव में ये बात कहती है, माता के वियोग से दुखी नवलसिंह वहाँ आते हैं और अपनी माता को पाकर प्रसन्न होते हैं। माता और पुत्र का मेल-मिलाप चल ही रहा होता है कि गाँव के लोग ठाकुर विभवसिंह के साथ वहाँ आ पहुँचते हैं। नवलसिंह को उस औरत के साथ देखकर वो उसकी जान बचाने की चेष्टा करते हैं, नवलसिंह के बार-बार मना करने पर भी आख़िर उसे, उस स्त्री के चंगुल से मुक्त करने की बात कहते हुए ठाकुर विभवसिंह गोली चला देते हैं, ठकुराइन गिर जाती है। नवलसिंह रोते हुए सच्चाई बताता है पर ठाकुर विभवसिंह उसे कहते हैं कि उसकी माता मर चुकी है और उसका अंतिम संस्कार भी हो चुका है। इस पर नवलसिंह उन्हें उस स्त्री को देखने के लिए कहता है। अब आगे..)
ठाकुर साहब ने निकट ध्यान देकर देख पड़ा।
जब छाती पर से कपड़ा हटाकर देखा तो मुख की आकृति उनकी स्त्री ही की-सी देख पड़ी और मस्तक पर मस्सा भी वैसा ही देखा तो हृदय पर दो तिल भी वैसे ही देख पड़े जैसे बहू जी के थे। तब तो ठाकुर साहब बड़े विस्मित हुए और कहने लगे-
“क्या आश्चर्य है! यह तो मेरी प्रिय पत्नी ही मालूम होती है।”
फिर उन्होंने लड़के से कहा, “बेटा, तुम सोच मत करो, मैंने इन्हें गोली नहीं मारी है। तुमने जब मना किया तो मैंने आकाश की ओर यह समझकर गोली चला दी कि यदि कोई बला होगी तो तमंचे की आवाज ही से भाग जाएगी।”
लड़के ने कहा, “देखिए, इनके गले में गोली का घाव है, आप कहते हैं कि मैंने गोली नहीं मारी।”
ठाकुर साहब ने कहा, “यह तो गिल्टी का घाव है। मेरी गोली तो आकाश में तारा हो गयी।”
इसके अनन्तर ठाकुर साहब ने सब लोगों को वहाँ से हटा दिया और स्वयं कुछ दूर पर खड़े होकर गाँव की नाइन से कहा, “तुम बहूजी के सब अंगों को अच्छी तरह पहचानती हो, पास आकर देखो तो कि यह वही है, कोई दूसरी स्त्री तो नहीं है।”
नाइन डरते-डरेते पास गई और आँखें फाड़-फाड़कर देखने लगी। इतने में बहू जी को कुछ होश आया और बहू ज्योंही उठके बैठने लगीं त्यों ही नाइन भाग खड़ी हुई। बहू जी ने उसे पहचानकर कहा, “अरे बदमिया, मेरा बच्चा कहाँ गया? नवल जी को जल्द बुला नहीं तो मेरा प्राण जाता है। ठाकुर साहब तो मेरे प्राण ही के भूखे हैं। प्रयागजी में मुझे बीमार छोड़कर भाग आये। जब मैं किसी तरह यहाँ आयी तो मुझ पर गोली चलायी। न जाने मुझसे क्या अपराध हुआ है। यदि प्लेग से मरकर मैं चुड़ैल हो गई हूँ तो इस प्रेत शरीर से भी मैं उनकी सेवा करने को तैयार हूँ। यदि वह मेरी इस वर्तमान दशा से घृणा करते हैं तो मुझसे भी यह तिरस्कार नहीं सहा जाता, मैं जाकर गंगा जी में डूब मरूँगी। पर एक बार मेरे बच्चे को तो बुला दे, मैं उसे गले तो लगा लूँ। अरे उसे छोड़कर मुझसे कैसे जिया जाएगा? हे परमेश्वर, तू यहीं मेरा प्राण ले ले।” यह कहकर वह उच्च स्वर से रोने लगी।
ठाकुर साहब से ये सच्चे प्रेम से भरे हुए वियोग के वचन नहीं सहे गये। उनका हृदय गद्गद हो गया, रोमांच हो आया और आँखों से आँसू गिरने लगे। झट दौड़कर उन्होंने बहू जी को उठा लिया और कहा, “मेरे अपराध को क्षमा करो। मैंने जान-बूझकर तिरस्कार नहीं किया। यदि तुम मेरी पत्नी हो तो चाहे तुम मनुष्य देह में हो या प्रेत शरीर में, तुम हर अवस्था में मुझे ग्राह्य हो, यद्यपि मेरे मन का संदेह अभी नहीं गया है। इसकी निवृत्ति का यत्न मैं धीरे-धीरे करता रहूँगा, पर तुमको मैं अभी से अपनी प्रिय पत्नी मानकर ग्रहण करता हूँ। यदि तुम्हारे संसर्ग से मुझे प्लेग-पीड़ा व प्रेत-बाधा भी हो जाए तो कुछ चिंता नहीं, मैं अब किसी आपत्ति से नहीं डरूँगा”
यह कहकर वह बहू जी को अपने हाथों का सहारा देकर लता भवन में ले गये और नवल जी को भी वहीं बुलाकर सब वृत्तान्त पूछने लगे।
इतने ही में सत्यसिंह भी शहर से आ गया। जब उसने गाँव वालों से यह अद्भुत कथा सुनी तो वह उसका भेद समझ गया और ठाकुर साहब के सामने जाकर कहने लगा-
“महाराज,! अब अपने मन से शंका दूर कीजिए, यह सचमुच बहू जी हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है। जब कल नाइन इनको कफ़नाने लगी थी तो उसने कहा था कि उनकी देह गर्म है। मैंने इसकी जाँच करने के लिए कहा, पर दुष्ट नौकरों ने न करने दिया और उन्होंने ले जाकर कच्चा ही गंगा जी में फेंक दिया। अच्छा हुआ, नहीं तो अब तक जलकर बहूजी राख हो गयी होतीं। मुझे निश्चय है कि बहू जी की जान नहीं निकली थी और गंगा जी की कृपा से वह बहती-बहती इसी घाट पर लगीं और जी उठीं। अब अपना भाग्य सराहिए। इनको फिर से अपनाइए और बधाई बजाइए”
इतना सुनते ही ठाकुर साहब ने फिर क्षमा माँगी और नि:शंक हो बहूजी को अंक से लगाया और प्रेमाश्रु बहाये। बहूजी भी प्रेम से विह्वल होकर नवल जी को गोद में लेकर बैठ गयीं और उनके कंधे पर अपना सिर रख रोने लगीं। जब गाँववालों ने यह वृत्तान्त सुना तो वे आनंद से फूल उठे और बहूजी के पुनर्जन्म के उत्सव में मृदंग, मंजीरा और फाग से डफ बजाकर नाचने-गाने लगे और स्त्रियाँ सब पान-फूल-मिठाई लेकर दौड़ीं और बहूजी को देवी मानकर उनका पूजन करने और क्षमा माँगने लगीं।
बहू जी ने कहा, “इसमें तुम लोगों का कोई दोष नहीं। यह मेरा दुर्भाग्य था जिसने ऐसे दिन दिखाए। अब ईश्वर की कृपा से जैसे मेरे दिन लौटे हैं, वैसे ही सबके लौटें।”