जौन एलिया की ग़ज़ल:
आदमी वक़्त पर गया होगा
वक़्त पहले गुज़र गया होगा
वो हमारी तरफ़ ना देख के भी
कोई एहसान धर गया होगा
ख़ुद से मायूस हो के बैठा हूँ
आज हर शख़्स मर गया होगा
शाम तेरे दयार में आख़िर
कोई तो अपने घर गया होगा
[रदीफ़- गया होगा]
[काफ़िए- पर, गुज़र, धर, मर, घर]
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अहमद कमाल परवाज़ी की ग़ज़ल:
तुझसे बिछड़ूँ तो तिरी ज़ात का हिस्सा हो जाऊँ
जिससे मरता हूँ उसी ज़हर से अच्छा हो जाऊँ
तुम मिरे साथ हो ये सच तो नहीं है लेकिन
मैं अगर झूट ना बोलूँ तो अकेला हो जाऊँ
मैं तिरी क़ैद को तस्लीम तो करता हूँ मगर
ये मिरे बस में नहीं है कि परिंदा हो जाऊँ
आदमी बन के भटकने में मज़ा आता है
मैंने सोचा ही नहीं था कि फ़रिश्ता हो जाऊँ
वो तो अंदर की उदासी ने बचाया वर्ना
उन की मर्ज़ी तो यही थी कि शगुफ़्ता हो जाऊँ
[रदीफ़- हो जाऊँ]
[क़ाफ़िए- हिस्सा, अच्छा, अकेला, परिंदा, फ़रिश्ता, शगुफ़्ता]
(शगुफ़्ता-खिला हुआ)
** दोनों ग़ज़लों का पहला शे’र मत’ला है.मत’ले के दोनों मिसरों में रदीफ़ और क़ाफ़िए की पाबंदी होती है.
[फ़ोटो क्रेडिट (फ़ीचर्ड इमेज): अरग़वान रब्बही]