शेख़ इब्राहीम ज़ौक़ की ग़ज़ल: चुपके चुपके ग़म का खाना कोई हम से सीख जाए
चुपके चुपके ग़म का खाना कोई हम से सीख जाए
जी ही जी में तिलमिलाना कोई हम से सीख जाए
अब्र क्या आँसू बहाना कोई हम से सीख जाए
बर्क़ क्या है तिलमिलाना कोई हम से सीख जाए
ज़िक्र-ए-शम-ए-हुस्न लाना कोई हम से सीख जाए
उन को दर-पर्दा जलाना कोई हम से सीख जाए
हम ने अव्वल ही कहा था तू करेगा हम को क़त्ल
तेवरों का ताड़ जाना कोई हम से सीख जाए
लुत्फ़ उठाना है अगर मंज़ूर उस के नाज़ का
पहले उस का नाज़ उठाना कोई हम से सीख जाए
जो सिखाया अपनी क़िस्मत ने वगरना उस को ग़ैर
क्या सिखाएगा सिखाना कोई हम से सीख जाए
ख़त में लिखवा कर उन्हें भेजा तो मतला दर्द का
दर्द-ए-दिल अपना जताना कोई हम से सीख जाए
जब कहा मरता हूँ वो बोले मिरा सर काट कर
झूट को सच कर दिखाना कोई हम से सीख जाए
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अहमद फ़राज़ की ग़ज़ल: दुख फ़साना नहीं कि तुझसे कहें
दुख फ़साना नहीं कि तुझसे कहें
दिल भी माना नहीं कि तुझसे कहें
आज तक अपनी बेकली का सबब
ख़ुद भी जाना नहीं कि तुझसे कहें
बे-तरह हाल-ए-दिल है और तुझसे
दोस्ताना नहीं कि तुझ से कहें
एक तू हर्फ़-ए-आश्ना था मगर
अब ज़माना नहीं कि तुझसे कहें
क़ासिदा हम फ़क़ीर लोगों का
इक ठिकाना नहीं कि तुझसे कहें
ऐ ख़ुदा दर्द-ए-दिल है बख़्शिश-ए-दोस्त
आब-ओ-दाना नहीं कि तुझसे कहें
अब तो अपना भी उस गली में ‘फ़राज़’
आना जाना नहीं कि तुझसे कहें