अल्ताफ़ हुसैन हाली की रुबाई
हैं जहल में सब आलिम ओ जाहिल हम-सर,
आता नहीं फ़र्क़ इस के सिवा उन में नज़र
आलिम को है इल्म अपनी नादानी का
जाहिल को नहीं जहल की कुछ अपने ख़बर
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फ़ानी बदायूँनी की रूबाई
अब ये भी नहीं कि नाम तो लेते हैं
दामन फ़क़त अश्कों से भिगो लेते हैं
अब हम तिरा नाम ले के रोते भी नहीं
सुनते हैं तिरा नाम तो रो लेते हैं
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रूबाई– रूबाई चार-चार मिसरों की ऐसी शा’इरी को कहते हैं जिनके पहले, दूसरे और चौथे मिसरों का एक ही रदीफ़, क़ाफ़िये में होना ज़रूरी है. इसमें एक बात समझनी ज़रूरी है कि ग़ज़ल के लिए प्रचलित 35-36 बह्र में से कोई भी रूबाई के लिए इस्तेमाल में नहीं लायी जाती है. रूबाइयों के लिए चौबीस छंद अलग से तय हैं, रूबाई इन चौबीस बह्रों में कही जाती है