Sadat Hasan Manto Hindi
तालीम में सिफ़र होने के बावजूद मंगू कोचवान को उसके अड्डे पर एक अक़्लमंद आदमी समझा जाता था. वो अपनी सवारियों की आपस की बातचीत से कुछ वैश्विक ख़बरें पा जाता था जिसको वो अड्डे पर सुनाता था और वाहवाही लूटता था. उसे अंग्रेज़ों से सख्त़ नफ़रत थी, उसकी वजह ये थी क्यूँकि उसकी छावनी में रहने वाले गोरे उसे बहुत प्रताड़ित करते थे. मंगू हमेशा ये सोचता था कि कोई नया क़ानून अगर बने तो वो अंग्रेज़ों को सबक़ सिखाए लेकिन उसे लगता था कि ऐसा कभी न होगा और हिन्दुस्तान सदा ग़ुलाम ही रहेगा. एक रोज़ मंगू को दो सावारियों से मालूम हुआ कि हिन्दुस्तान में नया क़ानून लागू होने वाला है, ये सुन कर उसकी ख़ुशी का ठिकाना न रहा. इस ख़ुशी को वो अपने अड्डे के साथियों से बाँटता है और दिल ही दिल ख़ुश होता है कि अँगरेज़ देश से जाने वाले हैं, उसे इस बात से भी ख़ुशी थी कि अमीरों को नए क़ानून में परेशानी होगी और ग़रीब ख़ुश होंगे. वो उन लोगों को भी हिकारत की नज़र से देखता था. मंगू का स्वभाव ही कुछ इस तरह का रहा था कि वो निहायत जल्दबाज़ था. वो अपने बच्चे को भी पैदा होने से पहले ही देखना चाहता था और इसके लिए वो अजीब सी बातें करता था. नए क़ानून की भी उसे जल्दी थी.. अब आगे..
सआदत हसन ‘मंटो’ की कहानी ‘नया क़ानून’ का पहला भाग
सआदत हसन ‘मंटो’ की कहानी ‘नया क़ानून’ का दूसरा भाग
सआदत हसन ‘मंटो’ की कहानी ‘नया क़ानून’ का तीसरा भाग
मंटो की किताब
कुछ भी हो मगर मंगू उस्ताद नये क़ानून की प्रतीक्षा में उतना व्याकुल नहीं था जितना कि उसे अपने स्वभाव के हिसाब से होना चाहिए था। वह आज नये क़ाननू को देखने के लिए घर से निकला था, ठीक उसी तरह जैसे गाँधी जी या जवाहरलाल के जुलूस का नजारा करने के लिए निकलता था। लीडरों की महानता का अन्दाजा उस्ताद मंगू हमेशा उनके जुलूस के हंगामों और उनके गले में डाले हुए फूलों के हारों से किया करता था। अगर कोई लीडर गेंदें के फूलों से लदा हुआ हो तो उस्ताद मंगू के निकट वह बड़ा आदमी था और अगर किसी लीडर के जुलूस में भीड़ की वजह से दो-तीन फसाद होते-होते रह जायें तो उसकी दृष्टि में वह और भी बड़ा था। अब नये क़ानून को वह अपने जेहन के इसी तराजू पर तौलना चाहता था। अनारकली से निकलकर वह माल रोड की चमकीली सतह पर अपने ताँगे को आहिस्ता-आहिस्ता चला रहा था। मोटरों की दुकान के पास उसे छावनी की एक सवारी मिल गई। किराया तय करने के बाद उसने अपने घोड़े को चाबुक दिखाया और सोचा–
“चलो यह भी अच्छा हुआ–शायद छावनी ही से नये क़ानून का कुछ पता चल जाये।”
छावनी पहुंचकर उस्ताद मंगू ने सवारी को उसकी मंजिल पर उतार दिया और सिगरेट निकाल कर बाएं हाथ की आखिरी दो उंगलियों में दबा कर सुलगायी और पिछली सीट पर बैठ गया–जब उस्ताद मंगू को किसी सवारी की तलाश नहीं होती थी या उसे किसी बीती हुई घटना के बारे में सोचना होता वह आम तौर पर अगली सीट छोड़कर पिछली सीट पर बड़े इत्मीनान से बैठकर अपने घोड़े की बागें अपने दायें हाथ के गिर्द लपेट लिया करता था। ऐसे मौकों पर उसका घोड़ा थोड़ा सा हिनहिनाने के बाद बड़ी धीमी चाल चलना शुरू कर देता था। जैसे उसे कुछ देर के लिए भाग-दौड़ से छुट्टी मिल गई है।
घोड़े की चाल और उस्ताद मंगू के दिमाग़ में ख़यालात की आमद बहुत सुस्त थी। जिस तरह घोड़ा आहिस्ता-आहिस्ता क़दम उठा रहा था, उसी तरह उस्ताद मंगू के ज़हन में नये क़ानून के सम्बन्ध में नये अन्दाज़े दाख़िल हो रहे थे।
वह नये क़ानून की मौजूदगी में म्युनिस्पल कमेटी से ताँगों के नम्बर मिलने के तरीक़े पर विचार कर रहा था। नये क़ानून में कैसे मिलेंगे नम्बर—? वह सोच में डूबा हुआ था कि उसे यों महसूस हुआ जैसे उसे किसी सवारी ने आवाज़ दी है। पीछे पलट कर देखने से उसे सड़क के एक तरफ दूर बिजली के खंभे के पास एक “गोरा” खड़ा नजर आया, जो उसे हाथ से बुला रहा था।
जैसा कि बयान किया जा चुका है, उस्ताद मंगू को गोरों से सख़्त नफ़रत थी, जब उसने अपने ताज़ा ग्राहक को गोरे की शक्ल में देखा तो उसके दिल में नफरत के भाव भड़क उठे। पहले उसकी इच्छा हुई कि उसकी तरफ किंचित ध्यान न दे और उसको छोड़कर चला जाये मगर बाद में उसके मन में आया कि इनके पैसे छोड़ना भी तो नादानी है। कलगी पर जो मुफ्त में साढे़ चौदह आने खर्च कर दिये हैं, इनकी ही जेब से वसूल करना चाहिए। चलो चलते हैं—”
ख़ाली सड़क पर बड़ी सफाई से ताँगा मोड़कर उसने घोड़े को चाबुक दिखाया और एक क्षण में वह बिजली के खंभे के पास था। घोड़े की बागें खींच कर उसने ताँगा रोका और पिछली सीट पर बैठे-बैठे गोरे से पूछा।
“साहब बहादुर कहाँ जाना माँगता है?”
इस सवाल में बेपनाह व्यंग्य था। साहब बहादुर कहते वक़्त उसका ऊपर का मूंछों भरा होंठ नीचे की तरफ खिंच गया और पास ही गाल के इस तरफ जो मद्धम सी लकीर नाक के नुथने से ठोड़ी के ऊपरी भाग तक चली आ रही थी, एक कम्पन्न के साथ गहरी हो गई। जैसे किसी ने नुकीले चाकू से शीशम की साँवली लकड़ी में धारी डाल दी हो। उसका सारा चेहरा हंस रहा था और अपने अन्दर उसने उस “गोरे” को छाती की आग में जलाकर भस्म कर डाला था।
जब गोरे ने जो बिजली के खंभे की ओट में हवा का रुख बचाकर सिगरेट सुलगा रहा था, मुड़कर ताँगे के पायदान की तरफ कदम बढ़ाया तो अचानक उस्ताद मंगू और उसकी निगाहें चार हुईं और ऐसा महसूस हुआ उस क्षण एक साथ आमने-सामने की बन्दूकों से गोलियाँ निकल पड़ी हों और आपस में टकराकर आग का एक गोला बनकर ऊपर को उड़ गयीं।
उस्ताद मंगू जो अपने दायें हाथ से लगाम के बल खोलकर ताँगे पर से नीचे उतरने वाला था, अपने सामने खड़े “गोरे” को यों देख रहा था गोया वह उसके वजूद के कण-कण को अपनी निगाहों से चबा रहा है और गोरा कुछ इस तरह अपनी पतलून पर से कुछ न दिख सकने वाली चीजें झाड़ रहा था, गोया वह उस्ताद मंगू के इस हमले से अपने वजूद के कुछ हिस्से सुरक्षित रखने की कोशिश कर रहा है।
गोरे ने सिगरेट का धुंआ निगलते हुए कहा–“जाना माँगटा या फिर गड़बड़ करेगा?”
“वही है” उस्ताद मंगू के जेहन में शब्द गूंजे और उसकी चौड़ी छाती के अन्दर नाचने लगे।
“वही है” उसने शब्द अन्दर ही अन्दर दोहराये और साथ ही उसे पूरा यकीन हो गया कि वह गोरा जो उसके सामने खड़ा था वही है, जिससे पिछले बरस उसकी झड़प हुई थी और उस फालतू के झगड़े में, जिसका सबब गोरे के दिमाग में चढ़ी हुई शराब थी, उसे मजबूरन न चाहते हुए भी बहुत सी बातें सहनी पड़ी थी। उस्ताद मंगू ने गोरे का दिमाग दुरुस्त कर दिया होता बल्कि उसके पुर्जे उड़ा दिये होते मगर वह किसी खास कारण से ख़ामोशहो गया था। उसको मालूम था कि इस क़िस्म के झगड़ों में अदालत का फ़ैसला आम तौर पर कोचवानों के ख़िलाफ़ होता है।
उस्ताद मंगू ने पिछले बरस की लड़ाई और पहली अप्रैल के नये क़ानून पर गौर करते हुए गोरे से कहा, “कहाँ जाना माँगटा है?” (Sadat Hasan Manto Hindi)
गोरे ने जवाब दिया, “हीरामंडी।”
“किराया पाँच रुपये होगा?” उस्ताद मंगू की मूंछें थरथराईं।
यह सुनकर गोरा हैरान हो गया, वह चिल्लाया, “पाँच रुपये, क्या तुम—?”
“हाँ, हाँ, पाँच रुपये” यह कहते हुए उस्ताद मंगू का दाहिना बालों भरा हाथ भींच कर एक वजनी घूंसे की शक्ल इख़्तियार कर गया।
“क्यों—- जाते हो या बेकार बातें बनाओगे?”
उस्ताद मंगू का लहजा सख़्त हो गया,
गोरा पिछले साल की घटना को याद करके उस्ताद मंगू की छाती की चौड़ाई नजरअन्दाज कर चुका था, वह सोच रहा था कि इसकी खोपड़ी लगता है फिर खुजला रही है। इस उत्साह बढ़ाने वाले विचार के तहत वह ताँगे की तरफ अकड़ कर बढ़ा और अपनी छड़ी से उस्ताद मंगू को ताँगे पर से नीचे उतरने का इशारा किया, पॉलिश की हुई बेंत की छड़ी उस्ताद मंगू की मोटी जाँघ के साथ दो-तीन मर्तबा टकराई। उसने खड़े-खड़े ऊपर से पस्त कद के गोरे को देखा, गोया वह अपनी दृष्टि के भार से ही उसे पीस डालना चाहता है। फिर उसका घूंसा कमान में से तीर की तरह ऊपर को उठा और पलक झपकते ही गोरे की ठुड्ढी के नीचे जम गया। धक्का देकर उसने गोरे को परे हटाया और नीचे उतरकर उसे धड़ाधड़ पीटना शुरू कर दिया।
हैरान-चकित गोरे ने इधर-उधर सिमट कर उस्ताद मंगू के वजनी घूंसों से बचने की कोशिश की और जब देखा कि उस पर दीवानगी की हालत जारी है और उसकी आँखों से चिंगारियाँ बरस रही हैं, तो उसने जोर-जोर से चिल्लाना शुरू कर दिया। इस चीख-ओ-पुकार ने उस्ताद मंगू की बाहों का काम भी तेज़ कर दिया, वह गोरे को जी भर के पीट रहा था और साथ-साथ कहता जाता था–
“पहली अप्रैल को भी वही अकड़ क्यूं–पहली अप्रैल को भी वहीं अकड़ क्यूं– अब हमारा राज है बच्चा।”
लोग जमा हो गये और पुलिस के दो सिपाहियों ने बड़ी मुश्किल से गोरे को उस्ताद मंगू की गिरफ्त से छुड़ाया, उस्ताद मंगू उन दो सिपाहियों के बीच खड़ा था। उसकी चौड़ी छाती फूली हुई साँस की वजह से ऊपर नीचे हो रही थी। मुंह से झाग बह रहा था और अपनी मुस्कुराती हुई आँखों से विस्मय में डूबे वहाँ जमा लोगों की तरफ देख कर वह हाँफती हुई आवाज में कह रहा था–
“वो दिन गुजर गए जब खलील खाँ फाख़्ता उड़ाया करते थे–अब नया क़ानून है मियाँ-नया क़ानून।”
और बेचारा गोरा अपने बिगड़े चेहरे के साथ मूर्खों की तरह कभी उस्ताद मंगू की तरफ देखता था, कभी हुजूम की तरफ, उस्ताद मंगू को पुलिस के सिपाही थाने ले गये, रास्ते में और थाने के अन्दर कमरे में वह, “नया क़ानून”, “नया क़ानून” चिल्लाता रहा, मगर किसी ने एक न सुनी।
“नया क़ानून–नया क़ानून” “क्या बक रहे हो–क़ानून वही है पुराना।”
और उसको हवालात में बन्द कर दिया गया।
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