हीरे का हार- चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’
भाग-1
आज सवेरे ही से गुलाबदेई काम में लगी हुई है। उसने अपने मिट्टी के घर के आँगन को गोबर से लीपा है, उस पर पीसे हुए चावल से मंडन माँडे है। घर की देहली पर उसी चावल के आटे से लीकें खींची हैं और उन पर अक्षत और बिल्वपत्र रक्खे हैं। दूब की नौ डालियाँ चुन कर उनने लाल डोरा बाँध कर उसकी कुलदेवी बनाई है और हर एक पत्ते के दोने में चावल भरकर उसे अंदर के घर में, भींत के सहारे एक लकड़ी के देहरे में रक्खा है।
कल पड़ोसी से माँगकर गुलाबी रंग लाई थी उससे रंगी हुई चादर बिचारी को आज नसीब हुई है। लठिया टेकती हुई बुढ़िया माता की आँखें यदि तीन वर्ष की कंगाली और पुत्र वियोग से और डेढ़ वर्ष की बीमारी की दुखिया के कुछ आँखें और उनमें ज्योति बाकी रही हो तो दरवाज़े पर लगी हुई हैं। तीन वर्ष के पति वियोग और दरिद्र की प्रबल छाया से रात-दिन के रोने से पथराई और सफ़ेद हुई गुलाबदेई की आँखों पर आज फिर यौवन की ज्योति और हर्ष के लाल डोरे आ गए हैं। सात वर्ष का बालक हीरा, जिसका एकमात्र वस्त्र कुरता खार से धोकर कल ही उजला कर दिया गया है, कल ही से पड़ोसियों से कहता फिर रहा है कि “मेरा चाचा आएगा”
बाहर खेतों के पास लकड़ी की धमाधम सुनाई पड़ने लगी। जान पड़ता है कि कोई लँगड़ा आदमी चला आ रहा है जिसके एक लकड़ी की टाँग है। दस महीने पहले एक चिट्ठी आई थी जिसे पास के गाँव के पटवारी ने पढ़कर गुलाबदेई और उसकी सास को सुनाया था। उसें लिखा था कि लहनासिंह की टाँग चीन की लड़ाई में घायल हो गई है और हॉन्गकॉन्ग के अस्पताल में उसकी टाँग काट दी गई है। माता के वात्सल्यमय और पत्नी के प्रेममय हृदय पर इसका प्रभाव ऐसा पड़ा कि बेचारियों ने चार दिन रोटी नहीं खाई थी।
तो भी अपने ऊपर सत्य आपत्ति आती हुई और आई हुई जानकर भी हम लोग कैसे आँखें मीच लेते हैं और आशा की कच्ची जाली में अपने को छिपाकर कवच से ढका हुआ समझते हैं। वे कभी-कभी आशा किया करती थीं कि दोनों पैर सही सलामत लेकर लहनासिंह घर आ जाय तो कैसा!
माता अपनी बीमारी से उठते ही पीपल के नीचे के नाग के यहाँ पंचपकवान चढ़ाने गई थी कि “नाग बाबा! मेरा बेटा दोनों पैरों चलता हुआ राज़ी-ख़ुशी मेरे पास आवे”
उसी दिन लौटते हुए उसे एक सफ़ेद नाग भी दीखा था जिससे उसे आशा हुई थी कि मेरी प्रार्थना सुन ली गई। पहले पहले तो सुखदेई को ज्वर की बेचैनी में पति की टाँग – कभी दाहनी और कभी बाईं – किसी दिन कमर के पास से और किसी दिन पिंडली के पास से और फिर कभी टखने के पास से कटी हुई दिखाई देती परंतु फिर जब उसे साधारण स्वप्न आने लगे तो वह अपने पति को दोनों जाँघों पर खड़ा देखने लगी। उसे यह न जान पड़ा कि मेरे स्वस्थ मस्तिष्क की स्वस्थ स्मृति को अपने पति का वही रूप याद है जो सदा देखा है, परंतु वह समझी की किसी करामात से दोनों पैर चंगे हो गए हैं।
किंतु अब उनकी अविचारित रमणीय कल्पनाओं के बादलों को मिटा देने वाला वह भयंकर सत्य लकड़ी का शब्द आने लगा जिसने उनके हृदय को दहला दिया। लकड़ी की टाँग की प्रत्येक खटखट मानो उनकी छाती पर हो रही थी और ज्यों-ज्यों वह आहट पास आती जा रही थी त्यों-त्यों उसी प्रेमपात्र के मिलने के लिए उन्हें अनिच्छा और डर मालूम होते जाते थे, जिसकी प्रतीक्षा में उसने तीन वर्ष कौए उड़ाते और पल-पल गिनते काटे थे।
प्रत्युत वे अपने हृदय के किसी अंदरी कोने में यह भी इच्छा करने लगीं कि जितने पल विलंब से उससे मिलें उतना ही अच्छा, और मन की भित्ति पर वे दो जाँघों वाले लहनासिंह की आदर्श मूर्ति को चित्रित करने लगी और उस अब फिर कभी न दिख सकने वाले दुर्लभ चित्र में इतनी लीन हो गई कि एक टाँग वाला सच्चा जीता जागता लहनासिंह आँगन में आ कर खड़ा हो गया और उसके इस हँसते हुए वाक्यों से उनकी वह व्यामोहनिद्रा खुली कि-
“अम्मा! क्या अंबाले की छावनी से मैंने जो चिट्ठी लिखवाई थी वह नहीं पहुँची?”
माता ने झटपट दिया जगाया और सुखदेई मुँह पर घूँघट लेकर कलश लेकर अंदर के घर की दहनी द्वारसाख पर खड़ी हो गई। लहनासिंह ने भीतर जाकर देहरे के सामने सिर नवाया और अपनी पीठ पर की गठरी एक कोने में रख दी। उसने माता के पैर हाथों से छूकर हाथ सिर को लगाया और माता ने उसके सिर को अपनी छाती के पास लेकर उस मुख को आँसुओं की वर्षा से धो दिया जिस पर बाक्तरों की गोलियों की वर्षा के चिह्र कम से कम तीन जगह स्पष्ट दिख रहे थे।
अब माता उसको देख सकी। चेहरे पर दाढ़ी बढ़ी हुई थी और उसके बीच-बीच में तीन घावों के खड्डे थे। बालकपन में जहाँ सूर्य, चंद्र, मंगल आदि ग्रहों की कुदृष्टि को बचानेवाला तांबे चाँदी की पतड़ियों और मूँगे आदि का कठला था वहाँ अब लाल फीते से चार चाँदी के गोल-गोल तमगे लटक रहे थे। और जिन टाँगों ने बालकपन में माता की रजाई को पचास-पचास दफा उघाड़ दिया उनमें से एक की जगह चमढ़े के तसमों से बँधा हुआ डंडा था। धूप से स्याह पड़े हुए और मेहनत से कुम्हलाए हुए मुख पर और महीनों तक खटिया सेने की थकावट से पिलाई हुई आँखों पर भी एक प्रकार की, एक तरह के स्वावलंबन की ज्योति थी जो अपने पिता, पितामह के घर और उनके पितामहों के गाँव को फिर देख कर खिलने लगती थी।
माता रुँधे हुए गले से न कुछ कह सकी और न कुछ पूछ सकी। चुपचाप उठकर कुछ सोच-समझकर बाहर चली गई। गुलाबदेई जिसके सारे अंग में बिजली की धाराएँ दौड़ रही थीं और जिसके नेत्र पलकों को धकेल देते थे इस बात की प्रतीक्षा न कर सकी कि पति की खुली हुई बाँहें उसे समेटकर प्राणनाथ के हृदय से लगा लें किंतु उसके पहले ही उसका सिर जो विषाद के अंत और नवसुख के आरंभ से चकरा गया था पति की छाती पर गिर गया और हिंदुस्तान की स्त्रियों के एकमात्र हाव-भाव – अश्रु – के द्वारा उनकी तीन वर्ष की कैद हुई मनोवेदना बहने लगी।
वह रोती गई और रोती गई। क्या यह आश्चर्य की बात है? जहाँ की स्त्रियाँ पत्र लिखना-पढ़ना नहीं जानतीं और शुद्ध भाषा में अपने भाव नहीं प्रकाश कर सकतीं और जहाँ उन्हें पति से बात करने का समय भी चोरी से ही मिलता है वहाँ नित्य अविनाशी प्रेम का प्रवाह क्यों नहीं अश्रुओं की धारा की भाषा में… ( गुलेरी जी इस कहानी को यहीं तक लिख पाए थे। आगे की कहानी कथाकार डॉ. सुशील कुमार फुल्ल ने पूरी की है)
क्रमशः