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छुईमुई- आंडाल प्रियदर्शिनी Chhuimui Aandal Priyadarshini ki kahani

घनी कहानी, छोटी शाखा: आंडाल प्रियदर्शिनी की कहानी “छुईमुई” का पहला भाग
घनी कहानी, छोटी शाखा: आंडाल प्रियदर्शिनी की कहानी “छुईमुई” का दूसरा भाग
भाग- 3
(अब तक आपने पढ़ा..पद्ममवती से उसकी बहु रेवती का व्यवहार कटु है, जिसका कारण है उसकी असाध्य बीमारी…पद्मावती को ये रोग ऐसे रोगों से ग्रस्त लोगों की सेवा करते समय हुआ था। वो तो इस रोग से ग्रस्त हर व्यक्ति को आम व्यक्ति मान कर ही उसकी सेवा- सुश्रुषा किया करती और इसकी वजह से समाज में उसका मान भी था लेकिन जब से उसे इस रोग ने घेरा, समाज, पास-पड़ोस ही नहीं उसके अपने परिवार में भी परिस्थिति बदल चुकी थी। बहु रेवती जो उससे रोग होने से पहले तक बेटी की तरह व्यवहार किया करती थी उसके मुँह से अब जलीकटी बातों के अलावा कुछ नहीं निकलता था।इससे भी ज़्यादा दुःख पद्मावती को तब होता जब उसकी लाड़ली पोती अनु से वो मिल भी नहीं पाती..मिलना और स्पर्श तो दूर अनु से बात करना भी उसे मुश्किल से नसीब हो पाता। अपने कमरे में बैठी-बैठी पद्मावती मन में चलते सवालों से जूझती रहती। अब आगे..)

ज़िन्दगी से कोई लगाव, कोई रुचि नहीं रह गई थी। लगता था जैसे निष्प्राण हो गई हो। कोई नहीं था! बैठकर बातें करनेवाला, मिलकर हँसनेवाला, हालचाल पूछनेवाला, कोई नहीं…कोई भी नहीं। अनु को छूने का मन हो रहा था। गोद में लिटाकर प्यार करने का मन हो रहा था। पूरे घर में घूमने का मन हो रहा था। सारे कमरों को छान मारने की इच्छा हो रही थी। ख़ूब स्वादिष्ट भोज्य पदार्थ बनाने का मन चाह रहा था। स्वच्छंद घूमने-फिरने का मन हो रहा था। स्वतंत्रता चाहिए, इच्छानुसार जीने की स्वतंत्रता… हूँ… पर यह तो असंभव हैं।

सीढियाँ उतरकर नीचे आई। बाहर कोने में खड़ी रही। साढ़े चार बज रहे थे, अनु के आने का समय हो गया था। आँखों में भरकर ले जाना चाहती थी।

“अनु बड़ी हो कर प्रसिद्धि प्राप्त कर लेगी, तो क्या ये लोग उसे सूचित करेंगे? दादी को पोती के लिए कुछ देने देंगे? फूल की तरह हँसती- खिलती पोती को देखने देंगे? उसका माथा चूमने देंगे? नज़र उतारने देंगे?”

“दादी…” कायनेटिक होंडा घर के सामने रुकी।

“क्यों दादी, धूप में क्यों खड़ी हो?”- छोटी बच्ची के अबोध मन में उसके लिए कितनी चिन्ता…

“प्यारी मुन्नी, तुझे देखने के लिए ही तो खड़ी हूँ”- कहती हुई पास जा नज़र उतारने की इच्छा हुई।

“मत छुइये इसे” तूफ़ानी वेग से रेवती ने अनु को अपनी ओर खींच लिया।

“चलो अनु…” शेरनी की तरह रेवती गरजी।

“मैं होम में जा रही हूँ”

“सच, सच में!” रेवती ने संतुष्ट नज़र उसकी ओर फेरी।

“उफ्… बला टली… अब जा कर चैन मिलेगा..अनु दादी को टाटा करो”

“दादी कहीं बाहर जा रही हो क्या?”

“हाँ बेटी”

“कब लौटोगी?”

“अब दादी नहीं आएगी”- रेवती की आवाज़ में खुशी हिलोरें ले रही थी। सुनते ही अनु रोने लगी।

“हूँ… दादी ले चलिए मुझे…तुम नहीं…मैं दादी के पास जाऊँगी”

हाथ छुड़ाकर जब अनु भागने को उद्धत हुई तो उसने उसे कसकर पकड़ लिया।

“जल्दी से जाती क्यों नहीं? तमाशा करना हैं क्या? बच्ची को रुलाना है क्या? मरने तक आपकी यह हरकतें चैन नहीं लेने देंगी!”

अब और थोड़ी भी देर रहना उनके लिए मुश्किल हो गया।

“हे भगवान! मेरी आवाज़ सुन रहे हो…” कमरे से बाहर निकल बिल्ली की तरह पंजों पर चलने पर भी रेवती को शक हो जाता था।

“क्या आप सोफ़े पर बैठी थी। बदबू आ रही है”

“रसोईघर में गई थीं… गंध आ रही है”

“अद्भुत ज़ंजीरें… कभी न तोड़ सकनेवाली ज़ंजीरें!.. हे भगवान! अब सहा नहीं जाता… मुझे जल्दी बुला लो”

भगवान की मूर्ति के सामने यह करुण क्रंदन करती पद्मावती को अकेलेपन की नारकीय वेदना, ताली बजाकर मज़ाक बनाती। प्रेत की ज़िन्दगी भी इससे बेहतर होगी।

सड़क उसकी हँसी उड़ाने लगी। घर लौटने में चार बज गए। ‘स्किन बायोप्सी’ टेस्ट पॉज़िटिव था।पद्मावती निष्प्राण शरीर लिए घिसटती हुई घर आई।

“ऐसी सज़ा क्यों? पुत्र, बहू, पोती,समाजसेवा, जैसे छोटे से दायरे में निश्चिंत जी रही मुझे, रिश्तों की समाधि क्यों मिली? अब मैं इस घर में नहीं रह सकती। घर छोड़ने का समय आ गया हैं। परिवार से अलग होना ही पड़ेगा”

“किसी को मत छूइएगा… होम में जाना ही बेहतर होगा..इस चिट्ठी को रख लीजिये..आज ही भर्ती हो जाइए” डॉक्टर ने भी कह दिया।

“अब चलना? चलना ही होगा। मानवीय गंध… रिश्तों की गंध… पोती की गंध से दूर… यह भी तो एक सुरक्षित प्राणमय कब्र ही है? प्राण निकलने के बाद ज़मीन के नीचे कब…”- मन विचारों के सागर में गोते लगाने लगा। बुरे-बुरे ख़याल आने लगे।

दो साडियाँ और दो ब्लाउज़ थैले में ठूँस लिया।

“अनु की फ़ोटो मिल जाती तो मन निश्चिंत हो जाता। फ़ोटो तो छूने से अशुद्ध नहीं होगी न…बच्ची की फ़्रॉक मिल जाती तो अच्छा रहता। मौत के समय पोती की सुगंध मिल जाती तो उसके साथ निश्चिंत हो मौत को गले लगा लेती। जाने से पहले काश एक बार अनु को देख पाती! छू पाती? चूम सकती, जन्म सार्थक हो जाता” Chhuimui Aandal Priyadarshini ki kahani

“मैं चलती हूँ, बच्ची का ख्याल रखना” कहकर पद्मावती बिना पीछे मुड़े तेज़ी से आगे बढ़ गई।

“दादी… दा…दी, दा…दी…मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी..मुझे भी ले चलो दादी” -अनु की चीख बढ़ती गई।

“छी, नादान, चुप रह… दादी के पास जाएगी?”

“हाँ…! तुम चुप रहो, मुझे छोड़ो, तुम गंदी हो… मुझे दादी ही चाहिए”

माँ के हाथ से अपना हाथ ज़बरदस्ती खींचकर छुड़ा लिया अनु ने। और दौड़ती हुई सड़क पर पहुँच गई।

“दादी मैं भी आ रही हूँ”

रेवती चिल्लाई “अनु रुक जा गाड़ी आ रही है”

हाथ में पकड़े थैले को झटक कर स्कूटर को स्टैंड पर खड़ा कर जब तक रेवती सड़क पर पहुँचती तब तक अनु सड़क पर दौड़ने लगी थी। उस तरफ़ से तेज़ रफ़्तार से कार आ रही थी… “दादी…अनु…दादी”

क़रीब आते अनु के करुणामय क्रंदन को सुन कर पद्मावती मुड़ी। अनु तूफ़ानी वेग से आती कार को बिना देखे दौड़ती चली आ रही थी। स्थिति की गंभीरता समझ, झपटकर बच्ची को गेंद की तरह उठाकर उसने उछाल दिया, कार पद्मावती को रौंदती हुई तेज़ रफ़्तार से गुज़र गई।

“अनु…अ…नु” आसपास की हवा में पद्मावती की धीमी आवाज़ घुल गई।

“दादी…दादी” लंगड़ाते हुए अनु वहाँ पहुँची।

ख़ून से लथपथ दादी से लिपट बोली- “मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी दादी, मुझे भी ले चलो, दादी”-

दादी का चेहरा अपनी ओर मोड़कर सुबकने लगी। कितनी तड़प और छटपटाहट थी दादी के मन में इस पोती को छूने की। उस स्पर्श की गरमाहट का अनुभव कर, निश्चिंत मुस्कान बिखर गई थी होठों पर।

समाप्त
Chhuimui Aandal Priyadarshini ki kahani

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