Acharya Chatursen न मालूम सी एक ख़ता- आचार्य चतुरसेन
भाग-3
Acharya Chatursen (अब तक आपने पढ़ा…बादशाह अपनी नयी बेगम सलीमा के सतह विवाह के बाद से ही कश्मीर के दौलतख़ाने में रहते हैं..दो दिन बादशाह के शिकार से न लौटने पर विरह से व्याकुल सलीमा बेगम अपनी साक़ी से संगीत सुनकर मन बहलाती है और साथ में साक़ी द्वारा दिए शरबत को पीकर अपने होश भी खो बैठती है। गीत ख़त्म करके साक़ी सलीमा बेगम की ख़ूबसूरती निहारती है और उनका चेहरा चूम लेती है जिसे बादशाह देख लेते हैं। क्रोध में भरकर बादशाह साक़ी की ख़बर लेते हैं तो उन्हें पता चलता है कि वो एक मर्द है जो भेष बदलकर यहाँ रह रह था। इस बात पर बादशाह उसे क़ैद में डाल देते हैं और सलीमा बेगम से नाराज़ होकर उन्हें नज़रबंद कर देते हैं। इन सारी बातों से अनजान सलीमा बेगम अगली सुबह अपने रोज़मर्रा के कार्य करने के लिए साक़ी को बुलाती है और उन्हें उसके क़ैद में होने की बात मालूम होती है। वो बादशाह को ख़त लिखकर अपने सोए रहने के लिए क्षमा माँगती है और बाँदी को छोड़ देने की गुहार लगाती है। बादशाह उसके ख़त से भी नाराज़ हो जाते हैं ये जानकार सलीमा बेगम का दिल टूट जाता है। बादशाह की नाराज़गी को सहन न कर पाने की बात कहकर सलीमा बेगम एक और ख़त लिखकर अपनी जान देने के लिए अँगूठी चाट लेती है..अब आगे)
घनी कहानी, छोटी शाखा: आचार्य चतुरसेन की कहानी ‘न मालूम सी एक ख़ता’ का पहला भाग
घनी कहानी, छोटी शाखा: आचार्य चतुरसेन की कहानी ‘न मालूम सी एक ख़ता’ का दूसरा भाग
बादशाह शाम की हवाखोरी को नज़रबाग़ में टहल रहे थे। दो-तीन खोजे घबराए हुए आए और चिट्ठी पेश करके अर्ज़ की- “ हुज़ूर ग़ज़ब हो गया! सलीमा बीबी ने ज़हर खा लिया है और वह मर रही हैं!”
क्षण-भर में बादशाह ने ख़त पढ लिया। झपटे हुए सलीमा के महल पहुँचे। प्यारी दुलहिन सलीमा ज़मीन पर पड़ी है। ऑंखें ललाट पर चढ गई है। रंग कोयले के समान हो गया है। बादशाह से न रहा गया। उन्होंने घबराकर कहा- “हकीम, हकीम को बुलाओ! कई आदमी दौड़े”
बादशाह का शब्द सुनकर सलीमा ने उसकी तरफ देखा और धीमे स्वर में कहा- “ज़हे-क़िस्मत!”
बादशाह ने नज़दीक बैठकर कहा- “सलीमा! बादशाह की बेगम होकर क्या तुम्हें यही लाजिम था?”
सलीमा ने कष्ट से कहा- “हुज़ूर! मेरा क़ुसूर बहुत मामूली था”
बादशाह ने कडे स्वर में कहा- “बदनसीब! शाही जनानख़ाने में मर्द को भेष बदलकर रखना मामूली क़ुसूर समझती है? कानों पर यक़ीन कभी न करता, मगर ऑंखों-देखी को भी झूठ मान लूँ?”
तड़पकर सलीमा ने कहा- “क्या?”
बादशाह डरकर पीछे हट गए। उन्होंने कहा- “सच कहो, इस वक़्त तुम ख़ुदा की राह पर हो, यह जवान कौन था?”
सलीमा ने अचकचाकर पूछा- “कौन जवान?”
बादशाह ने ग़ुस्से से कहा- “जिसे तुमने साक़ी बनाकर पास रखा था”
सलीमा ने घबराकर कहा- “हैं! क्या वह मर्द है?”
बादशाह- “तो क्या तुम सचमुच यह बात नहीं जानतीं?” Acharya Chatursen
सलीमा के मुँह से निकला- “या ख़ुदा!”
फिर उसके नेत्रों से ऑंसू बहने लगे। वह सब मामला समझ गई। कुछ देर बाद बोली- “खाविन्द! तब तो कुछ शिकायत ही नहीं; इस क़ुसूर को तो यही सज़ा मुनासिब थी। मेरी बदगुमानी माफ फ़रमाई जाए। मैं अल्लाह के नाम पर पड़ी कहती हूँ, मुझे इस बात का कुछ भी पता नहीं है”
बादशाह का गला भर आया। उन्होंने कहा- “तो प्यारी सलीमा! तुम बेक़ुसूर ही चलीं?” – बादशाह रोने लगे।
सलीमा ने उनका हाथ पकडकर अपनी छाती पर रखकर कहा- “मालिक मेरे! जिसकी उम्मीद न थी, मरते वक़्त वह मज़ा मिल गया..कहा-सुना माफ हो और एक अर्ज़ कनीज़ की मंज़ूर हो”
बादशाह ने कहा- “जल्दी कहो सलीमा!”
सलीमा ने साहस से कहा- “उस जवान को माफ़ कर देना”
इसके बाद सलीमा की ऑंखों से ऑंसू बह चले, और थोडी ही देर में वह ठंडी हो गई।!
बादशाह ने घुटनों के बल बैठकर उसका ललाट चूमा और फिर बालक की तरह रोने लगे।
ग़ज़ब के अंधेरे और सर्दी में युवक भूखा-प्यासा पड़ा था। एकाएक घोर चीत्कार करके किवाड़ खुले। प्रकाश के साथ ही एक गंभीर शब्द तहख़ाने में भर गया- “बदनसीब नौजवान! क्या होश-हवास में है?” Acharya Chatursen
युवक ने तीव्र स्वर में पूछा- “कौन?”
जवाब मिला- “बादशाह”
युवक ने कुछ भी अदब किए बिना कहा- “यह जगह बादशाहों के लायक नहीं है। क्यों तशरीफ़ लाए हैं?”
“तुम्हारी कैफ़ियत नहीं सुनी थी, उसे सुनने आया हूँ”
कुछ देर चुप रहकर युवक ने कहा- “सिर्फ़ सलीमा को झूठी बदनामी से बचाने के लिए कैफ़ियत देता हूँ। सुनिए : सलीमा जब बच्ची थी, मैं उसके बाप का नौकर था। तभी से मैं उसे प्यार करता था। सलीमा भी प्यार करती थी, पर वह बचपन का प्यार था। उम्र होने पर सलीमा पर्दे में रहने लगी और फिर वह शहंशाह की बेगम हुई। मगर मैं उसे भूल न सका। पाँच साल तक पागल की तरह भटकता रहा, अंत में भेष बदलकर बांदी की नौकरी कर ली। सिर्फ़ उसे देखते रहने और ख़िदमत करके दिन गुज़ारने का इरादा था। उस दिन उज्ज्वल चाँदनी, सुगंधित पुष्पराशि, शराब की उत्तेजना और एकांत ने मुझे बेबस कर दिया। उसके बाद मैंने ऑंचल से उसके मुख का पसीना पोंछा और मुँह चूम लिया। मैं इतना ही ख़तावार हूँ। सलीमा इसकी बाबद कुछ नहीं जानती”
बादशाह कुछ देर चुपचाप खडे रहे। इसके बाद वे बिना दरवाज़ा बंद किए ही धीरे-धीरे चले गए।
सलीमा की मृत्यु को दस दिन बीत गए। बादशाह सलीमा के कमरे में ही दिन-रात रहते हैं। सामने नदी के उस पार पेड़ों के झुरमुट में सलीमा की सफ़ेद क़ब्र बनी है। जिस खिड़की के पास सलीमा बैठी उस रात को बादशाह की प्रतीक्षा कर रही थी, उसी खिड़की में उसी चौकी पर बैठे हुए बादशाह उसी तरह सलीमा की क़ब्र दिन-रात देखा करते हैं। किसी को पास आने का हुक़्म नहीं। जब आधी रात हो जाती है, तो उस गंभीर रात्रि के सन्नाटे में एक मर्मभेदिनी गीतध्वनि उठ खड़ी होती है। बादशाह साफ़-साफ़ सुनते हैं, कोई करुण-कोमल स्वर में गा रहा है..
“दुखवा मैं कासे कहूँ मोरी सजनी…”
-समाप्त Acharya Chatursen