अक्सर मैं सोचा करती हूँ कि कोई व्यक्ति अपने जीवन को लिखने के बारे में क्यों कर उत्सुक होता होगा? आख़िर ऐसी कौन सी बात होगी जिसे सोचकर व्यक्ति विशेष को ये लगता है कि वो अपने जीवन की कुछ घटनाओं को ही नहीं बल्कि पूरा का पूरा जीवन ही लोगों के सामने ज्यों का त्यों रख दे? हालाँकि इस बात में भी मुझे अक्सर शक हुआ करता था कि क्या वाक़ई कोई अपने जीवन को ईमानदारी के साथ लोगों के सामने पेश करता है या उसमें जोड़-तो’ड़ कर उसे एक अलग रूप में सबके सामने रखता है। अब तक जितनी भी आत्मकथाएँ मैंने पढ़ी हैं उनके पाठक के तौर पर मैं ये तो कह सकती हूँ कि जब ईमानदारी से कुछ लिखा जाता है तो वो पसंद आये या नहीं पर कहीं न कहीं अपना असर ज़रूर छोड़ता है।
पिछले एक-दो महीने से मैं यूँ ही एक आत्मकथा को पढ़ रही थी। ये आत्मकथा जानी- मानी लेखिका, निर्माता- निर्देशक सीमा कपूर की आत्मकथा है- ‘यूँ गुज़री है अब तलक’। एक पाठक के तौर पर मैंने इस किताब या कहूँ आत्मकथा के साथ एक यात्रा सी तय की। किसी की भी आत्मकथा पढ़ते वक़्त मन में दो तरह के ख़्याल होते हैं पहला कि कितनी ईमानदारी होगी और दूसरा कि क्या मैं कभी इस तरह की ईमानदारी रख सकूँगी? इस आत्मकथा ने दोनों ही सवालों के जवाब मुझे दिये, अब चूँकि मैं इसे पूरा कर चुकी हूँ तो ये कह सकती हूँ कि ईमानदारी की कमी मुझे कहीं नज़र नहीं आयी वहीं मेरे दूसरे सवाल का जवाब भी लेखिका के कारण ही मिला कि सही समय का इंतज़ार ज़रूरी है।
सीमा कपूर ने इस आत्मकथा में अपने जीवन को पूरा का पूरा ही उडेल दिया है। पढ़कर लगता है कि कई बार एक ही व्यक्ति के जीवन में कितना कुछ लिखा होता है। दुनिया भर की तमाम उलझनें, परेशानियाँ और दुख, वहीं उसी इंसान के पास सबसे ज़्यादा साहस, दृढ़ इच्छाशक्ति और हर परिस्थिति से निकलने की जीवटता भी मिलती है। कुछ यही अनुभव मुझे इस आत्मकथा को पढ़ते हुए हुआ। सीमा कपूर जो कि लंबे समय से लेखन से जुड़ी हैं और न जाने उसके साथ ही कितनी विधाओं को आत्मसात् किया है।
पता नहीं सबके साथ होता है या नहीं पर किसी आत्मकथा को पढ़ते हुए एक वक़्त के बाद मेरा उस व्यक्ति से एक तरह का जुड़ाव होता जाता है। लगने लगता है कि जैसे वो हमें पास बिठाकर अपनी आपबीती, अपनी कहानी सुना रहा है। उसका हम पर इतना विश्वास है कि वो बिना लाग-लपेट हमें हर बात बता रहा है, वो बातें भी जो उसने शायद पहले किसी से नहीं बाँटी, अपनी ग़लतियों, कमज़ोरियों को भी वो हमसे नहीं छुपा रहा है।इस आत्मकथा को पढ़ते हुए ये जुड़ाव ज़रा जल्दी ही हो गया क्योंकि सीमा कपूर की लिखनी धाराप्रवाह है और उनकी लेखन शैली की भी मैं मुरीद हो गई, सहज, सरल लेकिन असरदार। पढ़ते हुए लगने लगा जैसे कि अपनी किसी सहेली से उसके दिल का हाल जान रही हूँ।
हालाँकि यहाँ ये भी कहना ही होगा कि शुरुआती पन्ने ख़ास जोड़ नहीं पाये। इसका एक बड़ा कारण है कि लेखिका का शुरुआती जीवन ख़ुद इतने बदलावों वाला था कि लगातार नई- नई जगहों का उल्लेख होता। हालाँकि ये समझ सकते हैं कि आत्मकथा में जीवन का हर वो पन्ना जुड़ना ज़रूरी है जिसने व्यक्तित्व को बनाने में मदद किया हो। बचपन तो फिर होता ही ऐसा है कि उसे जितना याद किया जाये कम है।लेखिका के शब्दों में “शायद बचपन दुनिया कि सबसे अच्छा समय होता है, जब आपका भार कोई और उठा रहा होता है।बड़े होकर तो बक़ौल जीजस, हम सब अपनी-अपनी सलीब का बोझ अपने कंधों पर ढो रहे होते हैं”। वैसे बचपन में माँ की मार याने ‘शॉक ट्रीटमेंट’ का इतना ज़िक्र रहा कि एक वक़्त के बाद लगा कि उस पन्ने से ही भाग जायें। जैसे ही आत्मकथा पूरी तरह लेखिका के जीवन पर केंद्रित हुई जुड़ाव बनना शुरु हो गया।
एक दो घटनायें ऐसी भी रहीं जहाँ लेखिका ने कुछ ऐसी बातों का उल्लेख किया जिसे पढ़कर लगा कि शायद बहुत से लोग इसे छिपा जाते। जैसे कस्तूरी और सखी को लेकर लिया गया उनका निर्णय, एन. एस. डी. का आम वाला क़िस्सा, ये तो ईमानदारी की हद ही है। कहना ही होगा कि यहाँ आकर मुझे लेखिका की इस बात पर विश्वास हो गया कि वो वाक़ई ज़रूरत से ज़्यादा भोली थीं। पढ़ाई की जद्दोजहद, काम के लिए संघर्ष और हर वक़्त ख़ुद के बल पर कुछ पाने की कोशिश, जी -जान लगाकर मेहनती करना, रात में स्टेशन में दूसरी गाड़ी का इंतज़ार, यहाँ तो बड़ी घबराहट बनी हुई थी। सारा काम-धाम छोड़ हम भी उन्हें ट्रेन में सकुशल बिठाने के लिए ख़ासे परेशान रहे।
कहना ही होगा कि एक ही जीवन में इतने उतार-चढ़ाव देखने वाले व्यक्ति वाक़ई कम होंगे। जो होंगे भी उनमें से इस तरह जीवन की हर मुश्किल का यूँ सामना करने वाले तो गिने-चुने ही होंगे। अपने संघर्ष, साहस और हार न मानने की इच्छाशक्ति के कारण ही शायद सीमा कपूर आज इस मुक़ाम पर हैं। इस बात भी आश्चर्य होता है कि जिस व्यक्ति को उन्होंने सबसे अधिक प्रेम किया और जिनके साथ के लिए वो ख़ुद को भी कई बार भूलती नज़र आयीं उन्हें उनका ईमानदार प्रेम न मिल सका। बावजूद इसके लेखिका हर मुश्किल समय में साथ खड़ी रहीं, ख़ुद को भावनात्मक रूप से आहत करते हुए भी। ये एक ऐसा गुण रहा जो मैंने अब तक किसी में देखा नहीं है।
यूँ तो मैं इस आत्मकथा को पढ़ने के बाद उसके बारे में लिखने बैठी थी पर जैसा कि इसे पढ़ते हुए मुझे लेखिका अपनी एक सखी सी लगने लगी तो आत्मकथा के बारे में लिखते हुए भी कहीं न कहीं वो अपनापन झलकने लगा है। हालाँकि न मेरी उनसे कभी मुलाक़ात हुई न बात फिर भी एक अपनापन उनकी आत्मकथा ने मन में जगाया है। उनकी लिखी कुछ बातें मन पर छाप छोड़ती हैं ख़ासतौर से अपने अजन्मे बच्चे से एक कविता के रूप में बाँटी गई उनकी भावनाएँ, अपने पति से न कही जा सकी भावनाओं का अलग-अलग जगहों पर ज़िक्र, माँ और पिता को लेकर लेखिका के मन की भावनाएँ, पुरुष सत्तात्मक समाज के अलग-अलग पहलुओं को बताती उनकी बातें, प्रेम को लेकर उनकी भावनाएँ और समझ, जीवन के कठिनतम समय में सकारात्मकता ढूँढ निकालने की उनकी जिजीविषा और भी न जाने कितनी बातें…
लेखिका की एक बात ने शुरू से अचंभे में डाला, उन्होंने ख़ुद को बचपन के खंड में ही काली, और ख़ूबसूरती में कम बताया। ऐसे में मुख्यपृष्ठ की उनकी तस्वीर से तो ये बातें मेल नहीं खा रही थीं तो लगा कि जो तस्वीरें उन्होंने साझा की हैं उन्हें ही देखा जाये।ये कहना ही होगा कि लेखिका से इस तरह का कोई इत्तेफ़ाक़ रखना मुश्किल है।ये आत्मकथा कई बार किसी फ़िल्म या टीवी सीरियल की पटकथा जैसी भी लगने लगती है। इतना कुछ एक ही व्यक्ति के जीवन में होना आश्चर्य में डालता है। बस इस बात की ख़ुशी है कि इन सारी परिस्थतियों में भी लेखिका सीमा कपूर ने अपना व्यक्तित्व ऐसा बनाये रखा जिसे देखकर, जानकर कोई भी उन पर गर्व करेगा। उन्हें कुछ बेहद अच्छे दोस्तों का साथ भी मिला जिन्हें वो हर कदम पर धन्यवाद करती रहीं। उनके बड़े भाई अन्नू कपूर का नाम भी हमेशा साथ देने वालों में अग्रिम पंक्ति में शामिल रहा।
पूरी तरह से ‘यूँ गुज़री है अब तलक’ आत्मकथा की बात की जाये तो लेखन धाराप्रवाह है, एक बार पढ़ना शुरू करने के बाद आप पढ़ते ही चले जाते हैं। शुरुआती कुछ अंश जहाँ अलग-अलग घटनाओं, जगहों का उल्लेख जैसा है वो ब्योरे की तरह लगता है उसे उसी तरह पढ़कर आगे बढ़ने पर आपको आत्मकथा की नायिका ख़ुद से जोड़ती जायेंगी। लेखन शैली धाराप्रवाह होने के साथ-साथ भावनात्मक रूप से जोड़ने में कामयाब होती है। आपको इस आत्मकथा में बड़े-बड़े साहित्यिक वाक्यांश नहीं मिलते बल्कि सरल, सहज शब्दों में जीवन की झलक मिलती है।
मुझे निजी तौर पर नंदिता पुरी के ओम पुरी को लिखे ख़त इस किताब में अनुचित लगते हैं, वहीं FIR कॉपी भी कुछ इसी तरह की लगती है लेकिन आत्मकथा जिनकी है यहाँ उनके विचार इस विषय में क्या हैं और क्यों उन्होंने इसे शामिल किया ये न पता होने के कारण इस विषय को छोड़ना ही उचित है। कुल मिलाकर ये कहना चाहते हैं कि इस आत्मकथा को पढ़कर ये जाना जा सकता है कि ईमानदारी से अपनी पूरी ज़िंदगी किसी के सामने किस तरह रखी जा सकती है और आत्मकथा लिखते समय कितनी ईमानदारी की ज़रूरत होती है।
(सभी तस्वीरें सीमा कपूर की आत्मकथा से ली गई हैं)