Baal Kavita Hindi
इम्तिहान से छुट्टी पाई..
बौड़मजी ने इम्तिहान में,
खूब अक्ल का जोर लगाया।
अगली-बगली रहे झाँकते,
फिर भी एक सवाल न आया।।
गिनते रहे हॉल की कड़ियाँ,
यों ही घंटे तीन बिताए।
कोरी कापी वहीं छोड़कर,
हँसी-खुशी वापस घर आए।।
आकर खूब कबड्डी खेले,
फिर यारों में गप्प लड़ाई।
मौज-मजे से दिन गुजारकर,
इम्तिहान से छुट्टी पाई।।
-कन्हैयालाल मत्त (Kanhaiyalal Matt)
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कोयल
देखो कोयल काली है पर
मीठी है इसकी बोली
इसने ही तो कूक कूक कर
आमों में मिश्री घोली
कोयल कोयल सच बतलाना
क्या संदेशा लायी हो
बहुत दिनों के बाद आज फिर
इस डाली पर आई हो
क्या गाती हो किसे बुलाती
बतला दो कोयल रानी
प्यासी धरती देख माँगती
हो क्या मेघों से पानी?
कोयल यह मिठास क्या तुमने
अपनी माँ से पायी है?
माँ ने ही क्या तुमको मीठी
बोली यह सिखलायी है?
डाल-डाल पर उड़ना गाना
जिसने तुम्हें सिखाया है
सबसे मीठे मीठे बोलो
यह भी तुम्हें बताया है
बहुत भली हो तुमने माँ की
बात सदा ही है मानी
इसीलिए तो तुम कहलाती
हो सब चिड़ियों की रानी
-सुभद्राकुमारी चौहान (Subhadra Kumari Chauhan)
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जश्न-ए-सालगिरह
सालगिरह ख़रगोश मनाए
जंगल के सब साथी आए
भीड़ लगी है मेहमानों की
कुछ अपनों कुछ बेगानों की
शेर दहाड़ें मारता आया
हाथी भी चिंघाड़ता आया
कुत्ता भौं भौं करता आया
सांभर चौकड़ी भरता आया
गाय जब रम्भाती आई
बकरी कुछ शरमाती आई
नाचता गाता आया भालू
डोलता आया मेंढा कालू
घोड़ा सरपट दौड़ा आया
भैंसों का इक जोड़ा आया
हिरनी आई लोमड़ी आई
बिल्ली अपने बच्चे लाई
साथ में सब ही लाए तोहफ़े
सब ख़रगोश ने पाए तोहफ़े
फूलों का गुलदस्ता ले कर
चीं चीं करता आया बंदर
केक बना के लाया चीता
उसने दिल ख़रगोश का जीता
केक कटा तो सारे ख़ुश थे
केक बंटा तो सारे ख़ुश थे
इक दूजे से गले मिले सब
भूल के शिकवे और गिले सब
बंदर नाचे भालू गाए
कालू मेंढा ढोल बजाए
सालगिरह का जश्न बपा है
जंगल जंगल शोर हुआ है
हैदर बयाबानी (Haidar Bayabani)
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अक्कड़ मक्कड़
अक्कड़ मक्कड़,धूल में धक्कड़,
दोनों मूरख, दोनों अक्खड़,
हाट से लौटे, ठाठ से लौटे,
एक साथ एक बाट से लौटे।
बात-बात में बात ठन गयी,
बाँह उठीं और मूछें तन गयीं;
इसने उसकी गर्दन भींची,
उसने इसकी दाढ़ी खींची।
अब वह जीता, अब यह जीता,
दोनों का बढ चला फ़जीता;
लोग तमाशाई जो ठहरे
सबके खिले हुए थे चेहरे!
मगर एक कोई था फक्कड़,
मन का राजा जेब से कक्कड़;
बढा भीड़ को चीर-चार कर
बोला ‘ठहरो’ गला फाड़कर।
अक्कड़ मक्कड़, धूल में धक्कड़,
दोनों मूरख, दोनों अक्खड़;
गर्जन गूँजी, रुकना पड़ा,
सही बात पर झुकना पड़ा!
उसने कहा सधी वाणी में,
डूबो चुल्लू भर पानी में;
ताकत लड़ने में मत खोओ
चलो भाईचारे को बोओ!
खाली सब मैदान पड़ा है,
आफ़त का शैतान खड़ा है,
ताकत ऐसे ही मत खोओ,
चलो भाईचारे को बोओ।
सुनी मूर्खों ने जब यह वाणी
दोनों हुए पानी-पानी
लड़ना छोड़ा अलग हट गए
लोग शर्म से गले, छट गए।
सबको नाहक लड़ना अखरा
ताक़त भूल गई तब नखरा
गले मिले तब अक्कड़-बक्कड़
ख़त्म हो गया धूल में धक्कड़
अक्कड़ मक्कड़, धूल में धक्कड़
दोनों मूरख, दोनों अक्खड़।
भवानीप्रसाद मिश्र (Bhawani Prasad Mishr)
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लड्डू ले लो
ले लो दो आने के चार
लड्डू राजगिरे के यार
यह हैं धरती जैसे गोल
ढुलक पड़ेंगे गोल-मटोल
इनके मीठे स्वादों में ही
बन आता है इनका मोल
दामों का मत करो विचार
ले लो दो आने के चार।
लोगे ख़ूब मज़ा लायेंगे
ना लोगे तो ललचायेंगे
मुन्नी, लल्लू, अरुण, अशोक
हँसी ख़ुशी से सब खायेंगे
इनमें बाबूजी का प्यार
ले लो दो आने के चार।
कुछ देरी से आया हूँ मैं
माल बना कर लाया हूँ मैं
मौसी की नज़रें इन पर हैं
फूफा पूछ रहे क्या दर है
जल्द खरीदो लुटा बजार
ले लो दो आने के चार।
माखनलाल चतुर्वेदी (Makhanlal Chaturvedi)
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अमरुद मियाँ, अमरुद मियाँ- योगेन्द्रदत्त शर्मा
अमरूद मियाँ! अमरूद मियाँ!
मैं जहाँ कहीं भी जाता हूँ,
तुम रहते हो मौजूद, मियाँ!
तुम मीठे-मीठे, गोल-गोल
जैसे शरबत से भरे हुए,
इतराते फिरते हो, लेकिन
लगते अनार से डरे हुए।
तुम रहे इलाहाबाद कभी
पर गए यहाँ पर कूद, मियाँ!
अमरूद मियाँ! अमरूद मियाँ!
जब होते हरे, कड़े लगत
पीले होते तो बड़े नरम,
भीतर से तुम बेहद सफेद
जैसे रसगुल्ला या चमचम।
इतने सफेद तुम कैसे हो
क्या पीते हो तुम दूध, मियाँ!
अमरूद मियाँ! अमरूद मियाँ!
तुम आम नहीं, पर खास बहुत
कुछ बात निराली है जरूर,
क्या इत्र लगाकर आते हो
खुशबू फैला देते, हुजूर।
तुम इधर-उधर लुढ़का करते,
क्या चलते आँखें मूँद, मियाँ!
अमरूद मियाँ! अमरूद मियाँ!
-योगेन्द्रदत्त शर्मा (Yogendra Datt Sharma)
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‘हवा चल रही तेज़ बड़ी थी’ – लता पंत
हवा चल रही तेज़ बड़ी थी,
एक खटइया कहीं पड़ी थी!
उड़ी खटइया आसमान में,
फिर मच्छर के घुसी कान में!
वहीं खड़ा था काला भालू,
बैठ खाट पर बेचे आलू।
आलू में तो छेद बड़ा था,
शेर वहाँ पर तना खड़ा था!
लंबी पूँछ लटकती नीचे,
झटका दे-दे मुनिया खींचे!
खिंची पूँछ तो गिरा शेर था,
गिरते ही बन गया बेर था!
बेर देखकर झपटा बंदर,
खाकर पहुँचा पार समंदर!
पार समंदर अजब नजारे,
दिन में दीख रहे थे तारे!
तारों बीच महल था भारी,
राजा की जा रही सवारी!
छोड़ सवारी राजा-रानी,
उठा बाल्टी भरते पानी!
मीठा था मेहनत का पानी,
पीकर झूमें राजा-रानी!
अच्छा भैया, खतम कहानी,
अब तो मुझे पुकारे नानी!
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लता पंत (Lala Pant)
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चूहे राम की अकड़
अकड़-अकड़ कर
क्यों चलते हो
चूहे चिंटूराम,
गर बिल्ली ने
देख लिया तो
करेगी काम तमाम,
चूहा मुक्का तानकर बोला
नहीं डरूँगा दादी
मेरी भी अब हो गई है
इक बिल्ली से शादी
दीनदयाल शर्मा (Deendayal Sharma)
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तितली
मेह बरसने वाला है
मेरी खिड़की में आ जा तितली।
बाहर जब पर होंगे गीले,
धुल जाएँगे रंग सजीले,
झड़ जाएगा फूल, न तुझको
बचा सकेगा छोटी तितली,
खिड़की में तू आ जा तितली!
नन्हे तुझे पकड़ पाएगा,
डिब्बी में रख ले जाएगा,
फिर किताब में चिपकाएगा
मर जाएगी तब तू तितली,
खिड़की में तू छिप जा तितली।
महादेवी वर्मा (Mahadevi Verma)
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गरमी मई की जून की
आई चिपक पसीने वाली,
गरमी मई की जून की।
चैन नहीं आता है मन को,दिन बेचैनी वाले
सल्लू का मन करता कूलर, खींसे में रखवा ले।
बातें तो बस उसकी बातें, बातें अफ़लातून की।
दादी कहतीं सत्तू खाने से जी ठंडा होता।
जिसने बचपन से खाया है, तन मन चंगा होता।
ख़ुद ले आतीं खुली पास में, इक दूकान परचून की।
बोले पापा इस गरमी में, हम शिमला जाएँगे
वहीं किसी भाड़े के घर में सब रहकर आएँगे
मज़े-मज़े बीतेगी सबकी, छुट्टी बड़े सुकून की
प्रभुदयाल श्रीवास्तव (Prabhudayal Srivastava)
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गिलहरी का घर
एक गिलहरी एक पेड़ पर
बना रही है अपना घर,
देख-भाल कर उसने पाया
खाली है उसका कोटर
कभी इधर से, कभी उधर से
फुदक-फुदक घर-घर जाती,
चिथड़ा-गुदड़ा, सुतली, तागा
ले जाती जो कुछ पाती
ले जाती वह मुँह में दाबे
कोटर में रख-रख आती,
देख बड़ा सामान इकट्ठा
किलक-किलककर वह गाती
चिथड़े-गुदडे़, सुतली, धागे-
सब को अन्दर फैलाकर,
काट कुतरकर एक बराबर
एक बनायेगी बिस्तर
फिर जब उसके बच्चे होंगे
उस पर उन्हें सुलायेगी,
और उन्हीं के साथ लेटकर
लोरी उन्हें सुनायेगी
हरिवंशराय बच्चन (Harivansh Rai Bachchan)
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कम्प्यूटर पर चिड़िया
बहुत देर से कम्प्यूटर पर बैठी चिड़िया रानी
बड़े मज़े से छाप रही थी, कोई बड़ी कहानी
तभी अचानक चिड़िया ने जब,गर्दन ज़रा घुमाई
किंतु न जाने किस कारण वह,ज़ोरों से चिल्लाई
कौआ भाई फुदक-फुदक कर,शीघ्र वहाँ पर आए
“तुम्हें क्या हुआ बहिन चिरैया” कौआ जी घबराए
चिड़िया बोली, “पता नहीं है, कैसी ये लाचारी
हुआ दर्द गर्दन में मुझको कौआ भाई भारी”
तब कौए ने गिद्ध वैद्य से, उसकी जाँच कराई
वैद्यराज ने सर्वाईकल की बीमारी पाई
कम्प्यूटर पर बहुत देर से बैठी चिड़िया रानी
ज़ोर पड़ा गर्दन पर सच में की तो थी नादानी
कम्प्यूटर पर बहुत देर मत,बैठो मेरे भाई
बहुत देर बैठा जो उसको,यह बीमारी आई
प्रभुदयाल श्रीवास्तव (Prabhudayal Srivastava)
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डॉ वंदना वर्मा की कविता “चाँद”
मम्मी देखो न
ये चाँद टुकुर-टुकुर तकता है
मुँह से तो कुछ न बोले
पर मन ही मन हँसता है
चैन से मुझको सोने नहीं देता
ख़ुद सारी रात चलता है
मम्मी देख न
ये चाँद टुकुर-टुकुर तकता है
इसको भी चपत लगाओ
ख़ूब ज़ोर से डाँट लगाओ
मुझको नींद आती है
फिर ये सारी रात जगता है
मम्मी देखो न
ये चाँद टुकुर-टुकुर तकता हाई
ये नहीं स्थिर मन का
कभी घटता, कभी बढ़ता है
कभी आकाश में छुप जाता है
मुँह से तो कुछ न बोले
पर मन ही मन ये हँसता है
मम्मी देखो न
ये चाँद टुकुर-टुकुर तकता है
-डॉ. वंदना वर्मा (Dr Vandana Mishra)
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मिर्च का मज़ा
एक काबुली वाले की कहते हैं लोग कहानी,
लाल मिर्च को देख गया भर उसके मुँह में पानी
सोचा, क्या अच्छे दाने हैं, खाने से बल होगा,
यह जरूर इस मौसम का कोई मीठा फल होगा।
एक चवन्नी फेंक और झोली अपनी फैलाकर,
कुंजड़िन से बोला बेचारा ज्यों-त्यों कुछ समझाकर;
“लाल-लाल पतली छीमी हो चीज अगर खाने की,
तो हमको दो तोल छीमियाँ फ़क़त चार आने की”
“हाँ, यह तो सब खाते हैं”-कुँजड़िन बेचारी बोली,
और सेर भर लाल मिर्च से भर दी उसकी झोली;
मगन हुआ काबुली, फली का सौदा सस्ता पाके,
लगा चबाने मिर्च बैठकर नदी-किनारे जाके!
मगर, मिर्च ने तुरंत जीभ पर अपना ज़ोर दिखाया,
मुँह सारा जल उठा और आँखों में पानी आया।
पर, काबुल का मर्द लाल छीमी से क्यों मुँह मोड़े?
खर्च हुआ जिस पर उसको क्यों बिना सधाए छोड़े?
आँख पोंछते, दाँत पीसते, रोते औ रिसियाते,
वह खाता ही रहा मिर्च की छीमी को सिसियाते!
इतने में आ गया उधर से कोई एक सिपाही,
बोला, “बेवकूफ़! क्या खाकर यों कर रहा तबाही?”
कहा काबुली ने- “मैं हूँ आदमी न ऐसा-वैसा!
जा तू अपनी राह सिपाही, मैं खाता हूँ पैसा”
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ (Ramdhari Singh Dinkar)
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कोयल
काली-काली कू-कू करती,
जो है डाली-डाली फिरती!
कुछ अपनी ही धुन में ऐंठी
छिपी हरे पत्तों में बैठी
जो पंचम सुर में गाती है
वह ही कोयल कहलाती है।
जब जाड़ा कम हो जाता है
सूरज थोड़ा गरमाता है
तब होता है समा निराला
जी को बहुत लुभाने वाला
हरे पेड़ सब हो जाते हैं
नये नये पत्ते पाते हैं
कितने ही फल औ फलियों से
नई नई कोपल कलियों से
भली भांति वे लद जाते हैं
बड़े मनोहर दिखलाते हैं
रंग रंग के प्यारे प्यारे
फूल फूल जाते हैं सारे
बसी हवा बहने लगती है
दिशा सब महकने लगती है
तब यह मतवाली होकर
कूक कूक डाली डाली पर
अजब समा दिखला देती है
सबका मन अपना लेती है
लडके जब अपना मुँह खोलो
तुम भी मीठी बोली बोलो
इससे कितने सुख पाओगे
सबके प्यारे बन जाओगे
अयोध्या सिंह उपाध्याय’हरिऔध’ (Ayodhya Singh Upadhyay Hariaudh)
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“गुटर-गुटर-गूँ बोल कबूतर”
गुटर-गुटर-गूँ बोल, कबूतर,
कानों में रस घोल, कबूतर।
बैठा तू छत की मुँडेर पर
देख रहा क्या लचक-लचककर,
बोल जरा, मैं भी तो सुन लूँ
गीत तेरा अनमोल, कबूतर!
तूने सिखलाया है गाना
मुक्त हवा में उड़े जाना,
तुझसे हमने सीख लिया है
आजादी का मोल, कबूतर!
जा, उस डाली पर भी कहना
प्यारे भाई, मिल-जुल रहना,
मस्ती से गर्दन लहराकर-
पंख सजीले तोल, कबूतर!
–
प्रकाश मनु (Prakash Manu)
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किताबों मे बिल्ली के बच्चे
किताबों मे बिल्ली ने बच्चे दिए हैं,
ये बच्चे बड़े हो के अफ़सर बनेंगे
दरोगा बनेंगे किसी गाँव के ये,
किसी शहर के ये कलेक्टर बनेंगे
न चूहों की इनको ज़रूरत रहेगी,
बड़े होटलों के मैनेजर बनेंगे
ये नेता बनेंगे औ’ भाषण करेंगे,
किसी दिन विधायक, मिनिस्टर बनेंगे
वकालत करेंगे सताए हुओं की,
बनेंगे ये जज औ’ बैरिस्टर बनेंगे
दलिद्दर कटेंगे हमारे-तुम्हारे,
किसी कम्पनी के डिरेक्टर बनेंगे
खिलाऊँगा इनको मैं दूध और मलाई
मेरे भाग्य के ये रजिस्टर बनेंगे।
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना (Sarveshvar Dayal Saxena)
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बंदर और मदारी
देखो बच्चों बंदर आया,एक मदारी उसको लाया।
उसका है कुछ ढंग निराला,कानों में पहने है बाला।
फटे-पुराने रंग-बिरंगे कपड़े हैं उसके बेढंगे।
मुँह डरावना आँखें छोटी, लंबी दुम थोड़ी-सी मोटी।
भौंह कभी है वह मटकाता, आँखों को है कभी नचाता।
ऐसा कभी किलकिलाता है, मानो अभी काट खाता है।
दाँतों को है कभी दिखाता, कूद-फाँद है कभी मचाता।
कभी घुड़कता है मुँह बा कर, सब लोगों को बहुत डराकर।
कभी छड़ी लेकर है चलता, है वह यों ही कभी मचलता।
है सलाम को हाथ उठाता, पेट लेटकर है दिखलाता।
ठुमक ठुमककर कभी नाचता, कभी कभी है टके जाँचता।
देखो बंदर सिखलाने से, कहने सुनने समझाने से-
बातें बहुत सीख जाता है, कई काम कर दिखलाता है।
बनो आदमी तुम पढ़-लिखकर, नहीं एक तुम भी हो बंदर।
अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ (Ayodhya Singh Upadhyay Hariaudh)
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बया
बया हमारी चिड़िया रानी।
तिनके लाकर महल बनाती,
ऊँची डालों पर लटकाती,
खेतों से फिर दाना लाती
नदियों से भर लाती पानी।
तुझको दूर न जाने देंगे,
दानों से आँगन भर देंगे,
और हौज में भर देंगे हम
मीठा-मीठा पानी।
फिर अंडे सेयेगी तू जब,
निकलेंगे नन्हें बच्चे तब
हम आकर बारी-बारी से
कर लेंगे उनकी निगरानी।
फिर जब उनके पर निकलेंगे,
उड़ जायेंगे, बया बनेंगे
हम सब तेरे पास रहेंगे
तू रोना मत चिड़िया रानी।
बया हमारी चिड़िया रानी।
महादेवी वर्मा (Mahadevi Verma)
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चाँद का कुर्ता
हठ कर बैठा चाँद एक दिन, माता से यह बोला
सिलवा दो माँ मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला
सन-सन चलती हवा रात भर जाड़े से मरता हूँ
ठिठुर-ठिठुर कर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ।
आसमान का सफर और यह मौसम है जाड़े का
न हो अगर तो ला दो कुर्ता ही कोई भाड़े का
बच्चे की सुन बात, कहा माता ने ‘अरे सलोने`
कुशल करे भगवान, लगे मत तुझको जादू टोने।
जाड़े की तो बात ठीक है, पर मैं तो डरती हूँ
एक नाप में कभी नहीं तुझको देखा करती हूँ
कभी एक अंगुल भर चौड़ा, कभी एक फुट मोटा
बड़ा किसी दिन हो जाता है, और किसी दिन छोटा।
घटता-बढ़ता रोज, किसी दिन ऐसा भी करता है
नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पड़ता है
अब तू ही ये बता, नाप तेरा किस रोज लिवायें
सी दें एक झिंगोला जो हर रोज़ बदन में आये!
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ (Ramdhari Singh Dinkar)
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Baal Kavita Hindi