गुंडा- जयशंकर प्रसाद Gunda Jaishankar Prasad Ki Kahani
घनी कहानी, छोटी शाखा: जयशंकर प्रसाद की कहानी “ग़ुंडा” का पहलाभाग
भाग-2
(अब तक आपने पढ़ा..ये उस काल की कहानी है जब काशी में उपनिषद, ज्ञान की मान्यता से कहीं अधिक शस्त्र और बल की मान्यता हो गयी थी। जब बुद्धि और तेज को शस्त्र और बल के सामने झुकते देखकर निराश जानो ने एक नया सम्प्रदाय निर्मित किया जो अपने मन से जीवन जीते और किसी के बल से काँपने वालों में से नहीं थे। उनकी बहादुरी और वीरता उन्हें औरों से अलग करती, ग़लत के सामने वो सीना ताने खड़े हो जाते, ऐसे लोगों को सभी गुंडा कहा करते। इन्हीं में से एक था पचास कि उम्र में क़दम रख चुका नन्हकू सिंह, जो था तो एक ज़मींदार का बेटा लेकिन किसी बात से व्यथित होकर वो अपनी धन-सम्पत्ति लुटाकर गुंडा बन बैठा था। तरह-तरह के स्वाँग उसे लुभाते, बलिष्ठ और आकर्षक व्यक्तित्व का स्वामी नन्हकू सिंह जुएख़ाने तब जाता जब उसके पास एक पैसा न होता। कोठे पर पैर न धरता लेकिन गीत सुनना उसका शौक़ हुआ करता। ऐसे ही एक दिन दुलारी से गीत सुनते नन्हकू सिंह को जब मौलवी ने अकड़ दिखायी और दुलारी से बदतमीज़ी की तो उसे नन्हकू सिंह ने अपने अन्दाज़ में जवाब दिया। गीत ख़त्म होते ही दुलारी राजमाता पन्ना की ओर से भेजी डोली में बैठकर शिवालय घाट की ओर रवाना हो गयी। अब आगे।।)
श्रावण का अंतिम सोमवार था| राजमाता पन्ना शिवालय में बैठकर पूजा कर रही थीं| दुलारी बाहर बैठी कुछ अन्य गानेवालियों के साथ भजन गा रही थी| आरती हो जाने पर,फूलों की अंजलि बिखेरकर पन्ना ने भक्तिभाव से देवता के चरणों में प्रणाम किया| फिर प्रसाद लेकर बाहर आते ही उन्होंने दुलारी को देखा|
उसने खड़ी होकर हाथ जोड़ते हुए कहा-”मैं पहले ही पहुँच जाती| क्या करूँ, वह कुबरा मौलवी निगोड़ा आकर रेजीडेंट की कोठी पर ले जाने लगा| घंटों इसी झंझट में बीत गया, सरकार!”
“कुबरा मौलवी!जहाँ सुनती हूँ उसी का नाम| सुना कि उसने यहाँ भी आकर कुछ…”-फिर न जाने क्या सोचकर बात बदलते हुए पन्ना ने कहा-”हाँ, तब फिर क्या हुआ? तुम कैसे यहाँ आ सकी?”
“बाबू नन्हकूसिंह उधर से आ गए” मैंने कहा-”सरकार की पूजा पर मुझे भजन गाने को जाना है और यह जाने नहीं दे रहा है| उन्होंने मौलवी को ऐसा झापड़ लगाया कि उसकी हेकड़ी भूल गई| और तब जाकर मुझे किसी तरह यहाँ आने की छुट्टी मिली”
“कौन बाबू नन्हकू सिंह?” दुलारी ने सर नीचा करके कहा-”अरे, क्या सरकार को नहीं मालूम! बाबू निरंजनसिंह के लड़के! उस दिन, जब मैं बहुत छोटी थी, आपकी बारी में झूला झूल रही थी,जब नवाब का हाथी बिगड़कर आ गया था, बाबू निरंजनसिंह के कुंवर ने ही तो उस दिन हमलोगों की रक्षा की थी”
राजमाता का मुख उस प्राचीन घटना को स्मरण करके न जाने क्यों विवर्ण हो गया, फिर अपने को संभालकर उन्होंने पूछा-”तो बाबू नन्हकू सिंह उधर कैसे आ गए?” दुलारी ने मुस्कराकर सर नीचा कर लिया|
दुलारी राजमाता पन्ना के पिता की ज़मींदारी में रहनेवाली वेश्या की लड़की थी| उसके साथ कितनी ही बार झूले-हिंडोले अपने बचपन में पन्ना झूल चुकी थी। वह बचपन से ही गाने में सुरीली थी| सुंदरी होने पर चंचल भी थी| पन्ना जब काशिराज की माता थी, तब दुलारी काशी की प्रसिद्ध गानेवाली थी| राजमहल में उसका गाना-बजाना हुआ ही करता| महाराज बलवंतसिंह के समय से ही संगीत पन्ना के जीवन का आवश्यक अंग था| हाँ, अब प्रेम-दुःख और दर्द भरी विरह-कल्पना के गीत की ओर अधिक रूचि न थी| अब सात्विक भावपूर्ण भजन होता था|
राजमाता पन्ना का वैधव्य से दीप्त शांत मुखमंडल कुछ मलिन हो गया| बड़ी रानी का सापत्न्य ज्वाला बलवंतसिंह के मर जाने पर भी नहीं बुझी| अंतःपुर कलह का रंगमंच बना रहता, इसी से प्रायः पन्ना काशी के राजमंदिर में आकर पूजापाठ में अपना मन लगाती| रामनगर में उसको चैन नहीं मिलता| नई रानी होने के कारण बलवंतसिंह की प्रेयसी होने का गौरव तो उसे था ही, साथ में पुत्र उत्पन्न करने का सौभाग्य भी मिला, फिर भी असवर्णता का सामाजिक दोष उसके हृदय को व्यथित किया करता| उसे अपने ब्याह की आरंभिक चर्चा का स्मरण हो आया| Gunda Jaishankar Prasad Ki Kahani
छोटे से मंच पर बैठी, गंगा की उमड़ती हुई धारा को पन्ना अन्यमनस्क होकर देखने लगी| उस बात को, जो अतीत में एक बार, हाथ से अनजाने में खिसक जाने वाली वस्तु की तरह लुप्त हो गई हो;सोचने का कोई कारण नहीं| उससे कुछ बनता-बिगड़ता भी नहीं;परन्तु मानव स्वभाव हिसाब रखने की प्रथानुसार कभी-कभी कह बैठता है, कि “यदि वह बात हो गयी होती तो?”
ठीक उसी तरह पन्ना भी राजा बलवंतसिंह द्वारा बलपूर्वक रानी बनाई जाने के पहले की एक सम्भावना सोचने लगी थी| सो भी बाबू नन्हकू सिंह का नाम सुन लेनेपर| गेंदा मुँहलगी दासी थी|वह पन्ना के साथ उसी दिन से है, जिस दिन से पन्ना बलवंतसिंह की प्रेयसी हुई| राज्य-भर का अनुसन्धान उसी के द्वारा मिला करता और उसे न जाने कितनी जानकारी भी थी| उसने दुलारी का रंग उखाड़ने के लिए कुछ आवश्यक समझा|
“महारानी! नन्हकू सिंह अपनी सब ज़मींदारी स्वाँग, भैंसों की लड़ाई, घुड़दौड़ और गाने-बजाने में उड़ाकर अब डाकू हो गया है| जितने ख़ून होते हैं, सबमें उसी का हाथ रहता है| जितनी….”
उसे रोककर दुलारी ने कहा- “यह झूठ है| बाबूसाहब के ऐसा धर्मात्मा तो कोई है ही नहीं| कितनी विधवाएँ उनकी दी हुई धोती से अपना तन ढाँकती हैं| कितनी लड़कियों की ब्याह-शादी होती है| कितने सताए हुए लोगों की उनके द्वारा रक्षा होती है”
रानी पन्ना के हृदय में एक तरलता उद्वेलित हुई, उन्होंने हंसकर कहा-”दुलारी, वे तेरे यहाँ आते हैं न, इसी से तू उनकी बड़ाई…”
“नहीं सरकार! शपथ खाकर कह सकती हूँ कि बाबू नन्हकू सिंह ने आज तक कभी मेरे कोठे पर पैर भी नहीं रखा”
राजमाता न जाने क्यों इस अद्भुत व्यक्ति को समझने के लिए चंचल हो उठी थीं| तब भी उन्होंने दुलारी को आगे कुछ न कहने के लिए तीखी दृष्टि से देखा| वह चुप हो गई| पहले पहर की शहनाई बजने लगी| दुलारी छुट्टी माँगकर डोली पर बैठ गई|
तब गेंदा ने कहा-”सरकार!आजकल नगर की दशा बड़ी बुरी है| दिन दहाड़े लोग लूट लिए जाते हैं, सैंकड़ो जगह नाल पर जुए चलने के लिए टेढ़ी भौवें कारण बन जाती हैं| उधर रेजीडेंट साहब से महाराजा की अनबन चल रही है”- राजमाता चुप रहीं|
दूसरे दिन राजा चेतसिंह के पास रेजीडेंट मार्कहेम की चिट्ठी आई, जिसमे नगर की दुर्व्यवस्था की कड़ी आलोचना थी| डाकुओं और गुंडों को पकड़ने के लिए उन पर कड़ा नियंत्रण रखने की सम्मति भी थी| कुबरा मौलवी वाली घटना का भी उल्लेख था| उधर हेस्टिंग्स के आने की भी सूचना थी| शिवालय घाट और रामनगर में हलचल मच गई| कोतवाल हिम्मतसिंह, पागल की तरह, जिसके हाथ में लाठी लोहांगी, गंड़ासा, बिछुआ और करौली देखते, उसी को ही पकड़ने लगे|
क्रमशः
घनी कहानी, छोटी शाखा: जयशंकर प्रसाद की कहानी “ग़ुंडा” का तीसरा भाग
घनी कहानी, छोटी शाखा: जयशंकर प्रसाद की कहानी “ग़ुंडा” का अंतिम भाग
Gunda Jaishankar Prasad Ki Kahani