छुईमुई- आंडाल प्रियदर्शिनी Hindi Kahani Chhuimui
घनी कहानी, छोटी शाखा: आंडाल प्रियदर्शिनी की कहानी “छुईमुई” का पहला भाग
भाग-2
(अब तक आपने पढ़ा…पद्मावती अपने घर में अलग-थलग रहती है। उसकी बहु रेवती उससे उखड़ा हुआ व्यवहार करती है, पोती अनु को गले लगाने, अपने हाथ से खाना खिलाने, गोद में लोरी सुनाकर सुलाने का पद्मावती स्वप्न ही देखती है। उस दिन अनु को पद्मावती के पास आने के कारण रेवती से मार पड़ जाती है जिससे पद्मावती का दिल छलनी होता है। रेवती पद्मावती से भी “होम(वृद्धाश्रम)” जाकर रहने की बात कहती है और उसे खरी खोटी सुनाती है। पद्मावती को बीते हुए दिन याद आ जाते हैं जब यही रेवती उसके आगे-पीछे घूमा करती थी और दोनों प्यार से रहा करते थे। अब तो पद्मावती को ये सब सालों पहले बीती हुई बात लगती है। आख़िर इसका कारण क्या है?..पद्मावती के प्रति रेवती के बदले व्यवहार का कारण क्या है? अब आगे…)
छः महीने पहले शुरू हुई थी दुर्दशा की यह कहानी। नारी निकेतन की संचालिका ने उत्साहपूर्वक कहा था, “हमारा यह संगठन बहुत मशहूर हो गया है, आप लोग जानती हैं न?”
“हाँ, हाँ… पत्रिका में फोटो देखी थी और इसके बारे में पढ़ा भी था”
जिन-जिन लोगों ने जोश में काम शुरू किया सब किसी न किसी बहाने पीछे हट गईं। परन्तु पद्मावती बोली, “कोई बात नहीं, मेरा बेटा विदेश जा रहा है, मेरे पास वक़्त बहुत है मैं करूँगी, इन लोगों की मदद ईश्वर की सेवा करना होगा”
उसने सच्ची निष्ठा से इन लोगों की सेवा की। उनका शरीर पोंछना, कपड़े बदलना, कहानी सुनाना, भय दूर भगाना, फूल काढ़ना आदि सिखाते हुए जब उनकी मदद करने लगी, तभी समस्या शुरू हुई।
आश्रम से घर लौटने पर बहू कहती, “जाइए, जाकर साबुन से अच्छी तरह नहाकर आइए, क़रीब आने पर उबकाई आती है”
“क्यों बेटी रेवती… मदर टेरेसा ने क्या-क्या नहीं किया… इनकी मदद करनेवालों की ईश्वर फूल के समान सुरक्षा करते हैं। चिंता न कर”- कहकर हँस देती।
पर ये भरोसा बेकार गया… सब काल्पनिक हो गया। सच तो कुछ और ही हो गया। विश्वास टूट-फूट गया।
यह आठ फ़ीट लम्बा कमरा उसका सब कुछ बनकर रह गया। अब जब तक उसकी अंतिम किया नहीं होती तब तक यहीं रहना है। इस तरह के ख़यालों के कारण दुख और तेज़ हो गया और इस दुख के सागर में डूबते-उतराते वे सो गई। थाली में रखा भात पड़ा-पड़ा सूख कर कड़ा हो गया।
सिट-आऊट में बैठे-बैठे बाहर का नज़ारा देख रही थी पद्मावती। सुबह की धूप, सड़क पर तेज़ी से भागती गाडियाँ… बिना रुके तेज़ रफ्तार से भागते लोग… तेज़ी से भागती भीड़।
इनमें किसी को यह बीमारी लगी होगी? मेरी तरह इनका हृदय भी विदीर्ण हुआ होगा? क्या अकेलेपन के सूने सागर में ये भी मेरी तरह डूबे-उतराए होंगे?- पद्मावती ने सोचा।
बग़ल के फ्लैट में रहने वाला भी तो कोई नहीं आता। उसकी ओर देख मुसकुराते भी तो नहीं वो लोग। क्या मुसकुराने से भी कोई बीमारी फैलती हैं?
पद्मावती को लगा जैसे सारा संसार सूना-सूखा कहनेवाला और उजाड़ हो गया। मित्र-भाव मिट गया है। अकेलापन… अकेलेपन की आग, जी को भी जलाकर भस्म कर रही है, अपना कोई नहीं हैं। चारों ओर लोगों की भीड़ है पर अपना आत्मीय कोई भी नहीं है… अकेलापन ही साथी है। सवेरा होते ही रेवती भी अनु को लेकर चली जाती है। Hindi Kahani Chhuimui
रेवती ने अनु को क्रेच में भर्ती कर दिया है।
“आपको उसकी देखभाल करने की ज़रूरत नहीं हैं, मैं स्वयं ही छोड़ भी आऊँगी और ले भी आऊँगी”
एक दिन बेलगाम जुबाँ से उसने ये शब्द उच्चारित किए थे। “मेरी बेटी के लिए आपको कुछ करने की ज़रूरत नहीं है… उसे हाथ नहीं लगाएँ बस वही काफ़ी है। आपकी शुक्रगुज़ार रहूँगी”- घाव पर शूल चुभते से लगे रेवती के शब्द।
“बच्ची है… वह तो नासमझ है पर बुज़ुर्गों की अक़्ल भी क्या मारी गई है?…बच्ची की आपको ज़रा भी परवाह होती तो क्या आप उसे छू कर बातें करतीं?”
नरक की आग में उसे भून रही थी बहू।
“क्या करूँ?..” सोचने लगी पद्मावती…“अगर मैं घर से बाहर निकलकर न जाऊँ तो ख़ुद घर छोड़ देने की धमकी दे रही है बहू। शायद मुझे ही चले जाना चाहिए? रेवती तो कम से कम ख़ुश हो जाएगी। चार महीने में मेरा बेटा आ जाएगा। क्या तब तक स्थिति टाली नहीं जा सकती”
इतने कम समय में कोहनी, घुटने, यहाँ वहाँ… हर जगह नसें फूलने लगी थी और गाँठ पड़ने लगी थी। उँगलियों के पोर सुन्न पड़ने लगे थे। कान का बाहरी हिस्सा फूलकर हाथी के कान जैसा हो गया था। पद्मावती का रंग तो वैसे ही गोरा था पर इस वक़्त उस पर एक विशिष्ट चमक आ गई थी। ‘स्किन बायोप्सी’ टेस्ट की रिपोर्ट आज आनेवाली थी। शाम तीन बजे चर्म-रोग विशेषज्ञ डॉ टी राजन जी से मिलना होगा।
बेकार बैठे-बैठे जब चिढ़ होने लगी तो पद्मावती डॉक्टर के पास चल पड़ी। ऊपरी मंज़िल से एक सफ़ेद मारुति कार जिसका स्टीरियो ऊँची आवाज़ में बज रहा था। कबूतर के समान फिसलती हुई कार के पास आकर रुक गई। इस संकरी गली में गाड़ियों का आना-जाना लगा रहता है।
“अरे! यह तो मालती की गाड़ी है..हूँ… बिलकुल उसी की है” Hindi Kahani Chhuimui
गाड़ी से मालती के साथ ही महिला संघ की समस्त नारियाँ भी उतरी। शायद महिला संघ की बैठक के लिए मुझे न्योता देने आई? उनसे मिले अरसा गुजर गया?
“मालती…”- उत्सुकता भरी आवाज़ से पद्मावती ने पुकारा।मालती ने सिर उठा कर उपर देखा।
“घर आओ न, बात करेंगे”
“हूँ…हूँ…आऊँगी” आवाज़ में नफ़रत की झलक थी
“मामी, ठीक तो हो?” कोरस के रूप में आवाज़ उभरी। कई अर्थों का प्रतिरूप आवाज़…किवाड़ खोलकर इंतज़ार करना व्यर्थ गया। मक्खी-मच्छर भी नहीं फटका। ये लोग पहले झुंड में आते थे।
पद्मावती की उँगलियाँ पहले बहुत पतली थी। फूल के समान कोमल और नरम, हाथ रुई के समान थे, अब तो मुड़ने लगी थी, केवल उँगलियाँ ही नहीं वरन उसकी ज़िन्दगी भी। पद्मावती सबसे प्यार से मिलती, अपनेपन से बातें करती और आत्मीयता से पेश आती। मैं माँ हूँ, धरती के सभी लोग मेरे बच्चे हैं। उनका व्यवहार सबके साथ इसी तरह का होता था।
“अरी कन्नम्मा…यह मेरी बेटी है? यहाँ आ बेटी…”- उसके गाल सहलाती और नज़र उतारती। बच्चों की मदद करते समय उन्हें क़तार में बिठाकर प्यार से सहलाकर हाथ थामे पढ़ाती।
“ये बच्ची बहुत दुबली हैं, साग खिलाओ”
“ये लड़की जल्दी ही बड़ी हो जाएगी”
कितने लोगों का रोग उन्होंने अपने स्पर्श से दूर किया होगा।
“अरे सासू माँ, आप सब को छूती हैं, अछूत हो जाएँगी” रेवती उन्हें छेड़ती।
“मानव-मानव के बीच कैसा छूत! हम जैसे ही तो हैं वे लोग भी… वही ख़ून, माँसपेशियाँ, हड्डियाँ, साँस या भोजन..” हँसते हुए वह जवाब देती।
अब वे सभी बातें हास्यास्पद हो गई हैं। सड़क पर चलो तो अन्य लोग कुछ हटकर ही चलते हैं। बस में बैठो तो कोई क़रीब नहीं बैठता, अब ज़िन्दगी वास्तव में बिना लोगों के ही हो गई हैं।
“विलग रहना ही ज़िन्दगी बन जाएगी क्या?..अपनों से विलग..मित्रों से विलग..देश से विलग..चुस्त ज़िंदगी अब पराई-सी लगती हैं? क्या इसे ही ज़िन्दगी से उखड़ना कहते हैं? क्या यही नर्क है? अचानक ही आज तक मन को छू सकने वाला अकेलेपन का दर्द हृदय को खरोंचने लगा।
क्रमशः
घनी कहानी, छोटी शाखा: आंडाल प्रियदर्शिनी की कहानी “छुईमुई” का अंतिम भाग
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