फिर उसी रहगुज़ार पर शायद

Phir usi rah guzaar par shaayad

फिर उसी रहगुज़ार पर शायद
हम कभी मिल सकें मगर शायद

जिन के हम मुंतज़िर रहे उन को
मिल गए और हम-सफ़र शायद

जान-पहचान से भी क्या होगा
फिर भी ऐ दोस्त ग़ौर कर शायद

अज्नबिय्यत की धुँद छट जाए
चमक उठ्ठे तिरी नज़र शायद

ज़िंदगी भर लहू रुलाएगी
याद-ए-यारान-ए-बे-ख़बर शायद

जो भी बिछड़े वो कब मिले हैं ‘फ़राज़’
फिर भी तू इंतिज़ार कर शायद

अहमद फ़राज़

मैं अब विदा लेता हूँ – पाश
रवीन्द्रनाथ टैगोर की कहानी- भिखारिन
Phir usi rah guzaar par shaayad

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