इस उम्मीद पे रोज़ चराग़ जलाते हैं…ज़हरा निगाह

Zehra Nigah

इस उम्मीद पे रोज़ चराग़ जलाते हैं
आने वाले बरसों ब’अद भी आते हैं

हमने जिस रस्ते पर उसको छोड़ा है
फूल अभी तक उस पर खिलते जाते हैं

दिन में किरनें आँख-मिचोली खेलती हैं
रात गए कुछ जुगनू मिलने जाते हैं

देखते-देखते इक घर के रहने वाले
अपने अपने ख़ानों में बट जाते हैं

देखो तो लगता है जैसे देखा था
सोचो तो फिर नाम नहीं याद आते हैं

कैसी अच्छी बात है ‘ज़हरा’ तेरा नाम
बच्चे अपने बच्चों को बतलाते हैं

ज़हरा निगाह Zehra Nigah

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