उर्दू शा’इरी में यूँ तो कई बड़े नाम सुनने को मिलते हैं लेकिन कुछ-एक नाम ऐसे हैं जो अक्सर आम लोगों की ज़ुबान पर रहते हैं. मौजूदा दौर में इसी तरह का एक नाम है जौन एलिया. जौन के चाहने वाले कहते हैं कि जौन अपनी ज़िन्दगी में इतने मशहूर न थे जितने वो आज हैं. जौन की शाइरी इस क़िस्म की शाइरी है जो नए पढ़ने वालों को चौंकाती है. उर्दू की बेहतरीन समझ रखने वालों को भी जौन की शाइरी में कहीं भी बनावट सी बात नहीं मिलती.
जौन की सबसे मक़बूल किताब “शायद” है. उर्दू में इस किताब का प्रकाशन सन 1990 में हुआ. जौन की सभी किताबों में ये किताब सबसे ख़ास मानी जाती है. आलोचक दावा करते हैं कि इस किताब के बाद उनकी जितनी भी किताबें मंज़र ए आम पर आयीं सब इससे कमज़ोर हैं. ‘शायद’ की सबसे ख़ास बात है कि इसमें जौन की दीवानगी और समझदारी दोनों साथ-साथ चलती हैं. शायद ही उनकी सबसे पॉपुलर किताब भी मानी जाती है. इसकी नज़्म ‘रम्ज़’ आम ओ ख़ास सभी की ज़बान पर रहती है.
“मेरे कमरे को सजाने की तमन्ना है तुम्हें/मेरे कमरे में किताबों के सिवा कुछ भी नहीं” ये दो मिसरे ऐसे हैं जो अक्सर लोगों से सुनने को मिल जाते हैं. बाज़ लोगों को तो ये भी नहीं मालूम कि ये किसी नज़्म के दो मिसरे हैं. देखा जाए तो इन दो मिसरों से कोई ख़ास बात नहीं निकलती लेकिन ज़बान की सफ़ाई और आसानी ने इसे लोगों से जोड़ दिया है. जौन के अन्दर कुछ इसी तरह की बात थी, जब वो मुशाइरे भी करते थे तब भी वो हर एक बात में लोगों से जुड़ने की कोशिश करते थे. हालाँकि इसको लेकर उनकी आलोचना भी काफ़ी हुई है. उनकी आलोचना करने वाले कहते हैं कि वो मुशाइरे लूटने के लिए बहुत सी हरकतें करते थे.
जौन की नज़्में जज़्बाती तौर पर काफ़ी मज़बूत हैं और बहुत आसान सी बातों को भी जौन ऐसे कहते हैं कि लोग उस पर सोचने लगते हैं. ‘शायद’ नज़्म में वो कहते हैं-‘ मैं शायद तुमको यकसर भूलने वाला हूँ/ शायद जान-ए-जाँ शायद/ कि अब तुम मुझको पहले से ज़ियादा याद आती हो’. ग़ौर करें तो ये बात बहुत आम है लेकिन अंदाज़ ए बयाँ आसान होकर भी ख़ास है. ‘शायद’ किताब में नज़्म ‘सज़ा’ भी कुछ इसी तरह की बात कहती है, इस नज़्म के दो मिसरे देखिये-
‘हर बार मेरे सामने आती रही हो तुम
हर बार तुमसे मिल के बिछड़ता रहा हूँ मैं’
इस किताब की ग़ज़लों की बात करें तो यहाँ भी जौन की रवानगी नज़र आती है. जौन शेर बढ़ाने के लिए शेर कहते मालूम नहीं होते. हर एक शेर अपनी ही तरह की रवानी लिए होता है और भले ही जौन की ग़ज़लें मुहब्बत से किसी तरह की बे-समझ लड़ाई करती हुई मालूम होती है, हर ग़ज़ल में कुछ चौंकाने वाले शेर भी मिलते हैं, जैसे- “मैं हवाओं से कैसे पेश आऊँ/यही मौसम है क्या वहाँ जानाँ”, या फिर इसी ग़ज़ल का ये शेर- “है जो पुरखों तुम्हारा अक्स-ए-ख़याल/ ज़ख़्म आए कहाँ-कहाँ जानाँ”. एक और ग़ज़ल का मतला देखिए-“है बिखरने को ये महफ़िल-ए-रंग-ओ-बू तुम कहाँ जाओगे हम कहाँ जाएँगे/ हर तरफ़ हो रही है यही गुफ़्तुगू तुम कहाँ जाओगे हम कहाँ जाएँगे”, इस शेर में जौन फ़लसफ़ी नज़र आते हैं जबकि इसी ग़ज़ल के एक और शेर को देखिए-‘इक जुनूँ था कि आबाद हो शहर-ए-जाँ और आबाद जब शहर-ए-जाँ हो गया/हैं ये सरगोशियाँ दर-ब-दर कू-ब-कू तुम कहाँ जाओगे हम कहाँ जाएँगे’, इस शेर में मायूसी भी है और हल्की सी वहशत भी. जौन की ग़ज़लों में ये अक्सर मिलता है. ग़ज़ल में कई शेर एक ही पैटर्न पर रहते हैं लेकिन एक दो शेर इस तरह के होते हैं कि ज़हन चौंकने पर मजबूर हो जाता है. कुल मिलाकर ‘शायद’ में जौन एलिया बतौर शा’इर पूरी तरह नज़र आते हैं.