(अहमद फ़राज़ मनचंदा बानी)
राजेन्द्र मनचंदा “बानी” की ग़ज़ल
ऐ दोस्त मैं ख़ामोश किसी डर से नहीं था
क़ाइल ही तिरी बात का अंदर से नहीं था
हर आँख कहीं दौर के मंज़र पे लगी थी
बेदार कोई अपने बराबर से नहीं था
क्यूँ हाथ हैं ख़ाली कि हमारा कोई रिश्ता
जंगल से नहीं था कि समुंदर से नहीं था
अब उसके लिए इस क़दर आसान था सब कुछ
वाक़िफ़ वो मगर सई मुकर्रर से नहीं था
मौसम को बदलती हुई इक मौज-ए-हवा थी
मायूस मैं ‘बानी’ अभी मंज़र से नहीं था
राजेन्द्र मनचंदा “बानी”
________________________________
अहमद फ़राज़ की ग़ज़ल
भेद पाएँ तो रह-ए-यार में गुम हो जाएँ
वर्ना किस वास्ते बेकार में गुम हो जाएँ
ये न हो तुम भी किसी भीड़ में खो जाओ कहीं
ये न हो हम किसी बाज़ार में गुम हो जाएँ
किस तरह तुझ से कहें कितना भला लगता है
तुझको देखें तिरे दीदार में गुम हो जाएँ
हम तिरे शौक़ में यूँ ख़ुद को गँवा बैठे हैं
जैसे बच्चे किसी त्यौहार में गुम हो जाएँ
पेच इतने भी न दो किर्मक-ए-रेशम की तरह
देखना सर ही न दस्तार में गुम हो जाएँ
ऐसा आशोब-ए-ज़माना है कि डर लगता है
दिल के मज़मूँ ही न अशआर में गुम हो जाएँ
शहरयारों के बुलावे बहुत आते हैं ‘फ़राज़’
ये न हो आप भी दरबार में गुम हो जाएँ
अहमद फ़राज़
अहमद फ़राज़ मनचंदा बानी