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(हिंदी की पहली कहानी कौन-सी है? इस सवाल पर अलग-अलग जानकारों के अलग अलग मत हैं..और उन मतों के अनुसार ही कुछ कहानियों को हिंदी की पहली कहानी माना जाता है।अभी कुछ दिन “घनी कहानी छोटी शाखा” में हम शामिल कर रहे हैं ऐसी ही कुछ कहानियों को, जो मानी जाती हैं हिंदी की पहली कहानियों में से एक..आज से पेश है “आचार्य रामचंद्र शुक्ल” की लिखी कहानी “ग्यारह वर्ष का समय” ..आज पढ़िए पहला भाग ~ Acaharya Ram Chandra Shukl Ki Kahani Gyaarah Varsh Ka Samay )

ग्यारह वर्ष का समय-आचार्य रामचंद्र शुक्ल

भाग-1

दिन-भर बैठे-बैठे मेरे सिर में पीड़ा उत्प‍न्न हुई। मैं अपने स्थान से उठा और अपने एक नए एकांतवासी मित्र के यहाँ मैंने जाना विचारा। जाकर मैंने देखा तो वे ध्यानमग्न सिर नीचा किए हुए कुछ सोच रहे थे। मुझे देखकर कुछ आश्चर्य नहीं हुआ; क्योंकि यह कोई नई बात नहीं थी। उन्हें थोड़े ही दिन पूरब से इस देश मे आए हुआ है। नगर में उनसे मेरे सिवा और किसी से विशेष जान-पहिचान नहीं है; और न वह विशेषत: किसी से मिलते-जुलते ही हैं। केवल मुझसे मेरे भाग्य से,वे मित्र-भाव रखते हैं। उदास तो वे हर समय रहा करते हैं। कई बेर उनसे मैंने इस उदासीनता का कारण पूछा भी; किंतु मैंने देखा कि उसे प्रकट करने में उन्हें एक प्रकार का दु:ख-सा होता है;इसी कारण मैं विशेष पूछताछ नहीं करता।

मैंने पास जाकर कहा- “मित्र! आज तुम बहुत उदास जान पड़ते हो। चलो थोड़ी दूर तक घूम आवें। चित्त बहल जाएगा“ Acaharya Ram Chandra Shukl Ki Kahani Gyaarah Varsh Ka Samay

वे तुरंत खड़े हो गए और कहा- “चलो मित्र, मेरा भी यही जी चाहता है मैं तो तुम्हारे यहाँ जानेवाला था”

हम दोनों उठे और नगर से पूर्व की ओर का मार्ग लिया। बाग़ के दोनों ओर की कृषि-सम्पन्न भूमि की शोभा का अनुभव करते और हरियाली के विस्तृत राज्य का अवलोकन करते हम लोग चले। दिन का अधिकांश अभी शेष था, इससे चित्त को स्थिरता थी। पावस की जरावस्था थी, इससे ऊपर से भी किसी प्रकार के अत्याचार की संभावना न थी। प्रस्तुत ऋतु की प्रशंसा भी हम दोनों बीच-बीच में करते जाते थे।

अहा! ऋतुओं में उदारता का अभिमान यही कर सकता है। दीन कृषकों को अन्नदान और सूर्यात-तप्त पृथिवी को वस्त्रदान देकर यश का भागी यही होता है। इसे तो कवियों की ‘कौंसिल’ से ‘रायबहादुर’ की उपाधि मिलनी चाहिए। यद्यपि पावस की युवावस्था का समय नहीं है; किंतु उसके यश की ध्वजा फहरा रही है। स्थान-स्थान पर प्रसन्न-सलिल-पूर्ण ताल यद्यपि उसकी पूर्व उदारता का परिचय दे रहे हैं।

एतादृश भावों की उलझन में पड़कर हम लोगों का ध्यान मार्ग की शुद्धता की ओर न रहा। हम लोग नगर से बहुत दूर निकल गए। देखा तो शनै:-शनै: भूमि में परिवर्तन लक्षित होने लगा; अरुणता-मिश्रित पहाड़ी, रेतीली भूमि, जंगली बेर-मकोय की छोटी-छोटी कण्टकमय झाड़ियाँ दृष्टि के अंतर्गत होने लगीं। अब हम लोगों को जान पड़ा कि हम दक्षिण की ओर झुके जा रहे हैं। संध्या भी हो चली। दिवाकर की डूबती हुई किरणों की अरुण आभा झाड़ियों पर पड़ने लगी। इधर प्राची की ओर दृष्टि गयी; देखा तो चंद्रदेव पहिले ही से सिंहासनारूढ़ होकर एक पहाड़ी के पीछे से झाँक रहे थे।

अब हम लोग नहीं कह सकते कि किस स्थान पर हैं। एक पगडण्डी के आश्रय अब तक हम लोग चल रहे थे, जिस पर उगी हुई घास इस बात की शपथ खा के साक्षी दे रही थी कि वर्षों से मनुष्यों के चरण इस ओर नहीं पड़े हैं। कुछ दूर चलकर यह मार्ग भी तृण-सागर में लुप्त हो गया। ‘इस समय क्या कर्तव्य है?’ चित्त इसी के उत्तर की प्रतीक्षा में लगा। अंत में यह विचार स्थिर हुआ कि किसी खुले स्थान से चारों ओर देखकर यह ज्ञान प्राप्त हो सकता है कि हम लोग अमुक स्थान पर हैं।

दैवात् सम्मु‍ख ही ऊँची पहाड़ी देख पड़ी, उसी को इस कार्य के उपयुक्त स्थान हम लोगों ने विचारा। ज्यों-त्यों करके पहाड़ी के शिखर तक हम लोग गए। ऊपर आते ही भगवती जन्हूथ-नन्दिनी के दर्शन हुए। नेत्र तो सफल हुए। इतने में चारुहासिनी चंद्रिका भी अट्टहास करके खिल पड़ी। उत्तर-पूर्व की ओर दृष्टि गई। विचित्र दृश्य सम्मुख उपस्थित हुआ। जाह्नवी के तट से कुछ अंतर पर नीचे मैदान में, बहुत दूर, गिरे हुए मकानों के ढेर स्वच्छ चंद्रिका में स्पष्ट रूप से दिखाई दिए।

मैं सहसा चौंक पड़ा और ये शब्द मेरे मुख से निकल पड़े- “क्या यह वही खँडहर है जिसके विषय में यहाँ अनेक दंतकथाएँ प्रचलित हैं?” Acaharya Ram Chandra Shukl Ki Kahani Gyaarah Varsh Ka Samay

चारों ओर दृष्टि उठाकर देखने से पूर्ण रूप से निश्चय हो गया कि हो न हो, यह वही स्थान है जिसके संबंध में मैंने बहुत कुछ सुना है। मेरे मित्र मेरी ओर ताकने लगे। मैंने संक्षेप में उस खँडहर के विषय में जो कुछ सुना था, उनसे कह सुनाया। हम लोगों के चित्त में कौतूहल की उत्पत्ति हुई; उसको निकट से देखने की प्रबल इच्छा ने मार्गज्ञान की व्यग्रता को हृदय से बहिर्गत कर दिया। उत्तर की ओर उतरना बड़ा दुष्कर प्रतीत हुआ, क्योंकि जंगली वृक्षों और कण्ट्कमय झाड़ियों से पहाड़ी का वह भाग आच्छादित था। पूर्व की ओर से हम लोग सुगमतापूर्वक नीचे उतरे। यहाँ से खँडहर लगभग डेढ़ मील प्रतीत होता था। हम लोगों ने पैरों को उसी ओर मोड़ा। मार्ग में घुटनों तक उगी हुई घास पग-पग पर बाधा उपस्थित करने लगी; किंतु अधिक विलम्ब् तक यह कष्ट हम लोगों को भोगना न पड़ा; क्योंकि आगे चलकर फूटे हुए खपरैलों की सिटकियाँ मिलने लगीं; इधर-उधर गिरी हुई दीवारें और मिट्टी के ढूह प्रत्यक्ष होने लगे। हम लोगों ने जाना कि अब यहीं से खँडहर का आरंभ है।

दीवारों की मिट्टी से स्थान क्रमश: ऊँचा होता जाता था, जिस पर से होकर हम लोग निर्भय जा रहे थे। इस निर्भयता के लिए हम लोग चंद्रमा के प्रकाश के भी अनुगृहीत हैं। सम्मुख ही एक देव मंदिर पर दृष्टि जा पड़ी, जिसका कुछ भाग तो नष्ट हो गया था, किंतु शेष प्रस्तर-विनिर्मित होने के कारण अब तक क्रूर काल के आक्रमण को सहन करता आया था। मंदिर का द्वार ज्यों-का-त्यों खड़ा था। किवाड़ सट गए थे। भीतर भगवान् भवानीपति बैठे निर्जन कैलाश का आनंद ले रहे थे, द्वार पर उनका नंदी बैठा था। मैं तो प्रणाम करके वहाँ से हटा, किंतु देखा तो हमारे मित्र बड़े ध्यान से खड़े हो, उस मंदिर की ओर देख रहे हैं और मन-ही-मन कुछ सोच रहे हैं। मैंने मार्ग में भी कई बेर लक्ष्य किया था कि वे कभी-कभी ठिठक जाते और किसी वस्तु को बड़ी स्थिर दृष्टि से देखने लगते। मैं खड़ा हो गया और पुकारकर मैंने कहा, “कहो मित्र! क्या है? क्या देख रहे हो?”

मेरी बोली सुनते ही वे झट मेरे पास दौड़ आए और कहा- “कुछ नहीं, यों ही मंदिर देखने लग गया था”

मैंने फिर तो कुछ न पूछा,किंतु अपने मित्र के मुख की ओर देखता जाता था,जिस पर कि विस्मिय-युक्त एक अद्भुत भाव लक्षित होता था। इस समय खँडहर के मध्य भाग में हम लोग खड़े थे। मेरा हृदय इस स्थान को इस अवस्था में देख विदीर्ण होने लगा। प्रत्येक वस्तु से उदासी बरस रही थी; इस संसार की अनित्यता की सूचना मिल रही थी। इस करुणोत्पादक दृश्य का प्रभाव मेरे हृदय पर किस सीमा तक हुआ, शब्दों द्वारा अनुभव करना असम्भव है।

क्रमशः
घनी कहानी छोटी शाखा: आचार्य रामचंद्र शुक्ल की लिखी कहानी “ग्यारह वर्ष का समय” का दूसरा भाग
घनी कहानी छोटी शाखा: आचार्य रामचंद्र शुक्ल की लिखी कहानी “ग्यारह वर्ष का समय” का तीसरा भाग
घनी कहानी छोटी शाखा: आचार्य रामचंद्र शुक्ल की लिखी कहानी “ग्यारह वर्ष का समय” का चौथा भाग
घनी कहानी छोटी शाखा: आचार्य रामचंद्र शुक्ल की लिखी कहानी “ग्यारह वर्ष का समय” का पाँचवा भाग
Acaharya Ram Chandra Shukl Ki Kahani Gyaarah Varsh Ka Samay

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