(हिंदी की पहली कहानी कौन-सी है? इस सवाल पर अलग-अलग जानकारों के अलग-अलग मत हैं..और उन मतों के अनुसार ही कुछ कहानियों को हिंदी की पहली कहानी माना जाता है।अभी कुछ दिन “घनी कहानी छोटी शाखा” में हम शामिल कर रहे हैं ऐसी ही कुछ कहानियों को, जो मानी जाती हैं हिंदी की पहली कहानियों में से एक..इन दिनों आप पढ़ रहे हैं, “आचार्य रामचंद्र शुक्ल” की लिखी कहानी “ग्यारह वर्ष का समय” ..आज पढ़िए तीसरा भाग) Acaharya Ram Chandra Shukl Ki Kahani Gyaarah Varsh Ka Samay
ग्यारह वर्ष का समय-आचार्य रामचंद्र शुक्ल
घनी कहानी छोटी शाखा: आचार्य रामचंद्र शुक्ल की लिखी कहानी “ग्यारह वर्ष का समय” का पहला भाग
घनी कहानी छोटी शाखा: आचार्य रामचंद्र शुक्ल की लिखी कहानी “ग्यारह वर्ष का समय” का दूसरा भाग
भाग-3
(अब तक आपने पढ़ा..लेखक और उनके मित्र संध्याकालीन भ्रमण के लिए निकले और टहलते हुए उस खंडहर तक आ पहुँचते हैं जिसके बारे में नगर में कई दंतकथाएँ प्रचलित है। निर्भीक हृदय लेखक और उनके मित्र के पाँव खंधर की ओर बढ़ जाते हैं। इस खंडहर का हाल कुछ ऐसा है मानो रातों-रात वहाँ से लोगों को समेट दिया हो लेकिन आख़िर यहाँ हुआ क्या था, इस सवाल का जवाब अवशेषों में भी बाक़ी नहीं रह गया है। यहाँ आकर लेखक के मित्र का स्वभाव तो बदल सा गया है और लेखक के मन पर भी कई सवालों और विचारों ने धावा बोल दिया, उन दोनों की तंद्रा टूटती है जब उन्हें खंडहर में एक स्त्री नज़र आती है। अधिक जानने की उत्सुकता में वो उस स्त्री के जाने की जगह की खोज करते हैं और पाते हैं कि खंडहर में मिट्टी के ढेर के बीच एक छोटी-सी कोठरी है, उस कोठरी के दरवाज़े से झाँकने पर उन्हें वो स्त्री नज़र आ जाती है। आख़िर वो स्त्री कौन है ये जिज्ञासा दोनों के मन को घेरे हुए है। अब आगे..)
मेरे मित्र ने कहा, “इसका शोध अवश्य लगाओ कि यह स्त्री कौन है?”-अंत में हम दोनों आड़ में, इस आशा से कि कदाचित् वह फिर बाहर निकले, बैठे रहे। पौन घण्टे के लगभग हम लोग इसी प्रकार बैठे रहे। इतने में वही श्वेतवसनधारिणी स्त्री आँगन में सहसा आकर खड़ी हो गई, हम लोगों को यह देखने का समय न मिला कि वह किस ओर से आयी।
उसका अपूर्व सौंदर्य देखकर हम लोग स्तम्भित व चकित रह गए। चंद्रिका में उसके सर्वांग की सुदंरता स्पष्ट जान पड़ती थी। गौर वर्ण, शरीर किंचित क्षीण और आभूषणों से सर्वथा रहित; मुख उसका, यद्यपि उस पर उदासीनता और शोक का स्थायी निवास लक्षित होता था, एक अलौकिक प्रशांत कांति से देदीप्यमान हो रहा था। सौम्यता उसके अंग-अंग से प्रदर्शित होती थी। वह साक्षात देवी जान पड़ती थी।
कुछ काल तक किंकर्त्तव्ययविमूढ़ होकर स्तब्ध लोचनों से उसी ओर हम लोग देखते रहे; अंत में हमने अपने को सँभाला और इसी अवसर को अपने कार्योपयुक्त विचारा। हम लोग अपने स्थान पर से उठे और तुरंत उस देवीरूपिणी के सम्मुख हुए। वह देखते ही वेग से पीछे हटी। मेरे मित्र ने गिड़गिड़ा के कहा,-
“देवि ! ढिठाई क्षमा करो। मेरे भ्रमों का निवारण करो।”
वह स्त्री क्षण भर तक चुप रही, फिर स्निग्ध और गंभीर स्वर से बोली- “तुम कौन हो और क्यों मुझे व्यर्थ कष्ट देते हो?”
इसका उत्तर ही क्या था?मेरे मित्र ने फिर विनीत भाव से कहा- “देवि! मुझे बड़ा कौतूहल है – दया करके यहाँ का सब रहस्य कहो”
इस पर उसने उदास स्वर से कहा- “तुम हमारा परिचय लेके क्या करोगे? इतना जान लो कि मेरे समान अभागिनी इस समय इस पृथ्वी मण्डल में कोई नहीं है”
मेरे मित्र से न रहा गया; हाथ जोड़कर उन्होंने फिर निवेदन किया- “देवि ! अपने वृत्तान्त से मुझे परिचित करो। इसी हेतु हम लोगों ने इतना साहस किया है। मैं भी तुम्हारे ही समान दुखिया हूँ। मेरा इस संसार में कोई नहीं है।”- मैं अपने मित्र का यह भाव देखकर चकित रह गया।
स्त्री ने करुण-स्वर से कहा, “तुम मेरे नेत्रों के सम्मुख भूला-भुलाया मेरा दु:ख फिर उपस्थित करने का आग्रह कर रहे हो, अच्छा बैठो”
मेरे मित्र निकट के एक पत्थर पर बैठ गये। मैं भी उन्हीं के पास जा बैठा। कुछ काल तक सब लोग चुप रहे, अंत में वह स्त्री बोली –
“इसके प्रथम कि मैं अपने वृत्तान्त से तुम्हें परिचित करूँ, तुम्हें शपथपूर्वक यह प्रतिज्ञा करनी होगी कि तुम्हारे सिवा यह रहस्य् संसार में और किसी के कानों तक न पहुँचे। नहीं तो इस स्थान पर रहना दुष्कर हो जाएगा और आत्महत्या ही मेरे लिए एकमात्र उपाय शेष रह जाएगा”
हमलोगों के नेत्र गीले हो आए। मेरे मित्र ने कहा- “देवि ! मुझसे तुम किसी प्रकार का भय न करो; ईश्वर मेरा साक्षी है”
स्त्रीं ने तब इस प्रकार कहना आरम्भ किया –
“यह खँडहर जो तुम देखते हो, आज से 11 वर्ष पूर्व एक सुंदर ग्राम था। अधिकांश ब्राह्मण-क्षत्रियों की इसमें बस्ती थी। यह घर जिसमें हम लोग बैठे हैं चंद्रशेखर मिश्र नामक एक प्रतिष्ठित और कुलीन ब्राह्मण का निवास-स्थान था। घर में उनकी स्त्री और एक पुत्र था, इस पुत्र के सिवा उन्हें और कोई संतान न थी। आज ग्यारह वर्ष हुए कि मेरा विवाह इसी चंद्रशेखर मिश्र के पुत्र के साथ हुआ था” Acaharya Ram Chandra Shukl Ki Kahani Gyaarah Varsh Ka Samay
इतना सुनते ही मेरे मित्र सहसा चौंक पड़े, “हे परमेश्वर! यह सब स्वप्न है या प्रत्यक्ष?”- ये शब्द उनके मुख से निकले ही थे कि उनकी दशा विचित्र हो गयी। उन्होंने अपने को बहुत सँभाला – और फिर सँभलकर बैठे, वह स्त्री उनका यह भाव देखकर विस्मित हुई और उसने पूछा,- “क्यों, क्या है?”
मेरे मित्र ने विनीत भाव से उत्तर दिया- “कुछ नहीं, यों ही मुझे एक बात का स्मरण आया। कृपा करके आगे कहो”
स्त्री ने फिर कहना आरम्भ किया – “मेरे पिता का घर काशी में था। विवाह के एक वर्ष पश्चात् ही इस ग्राम में एक भयानक दुर्घटना उपस्थित हुई, यहीं से मेरे दुर्दमनीय दु:ख का जन्म हुआ। संध्या को सब ग्रामीण अपने-अपने कार्य से निश्चिन्त होकर अपने-अपने घरों को लौटे। बालकों का कोलाहल बंद हुआ। निद्रादेवी ने ग्रामीणों के चिंता-शून्य हृदयों में अपना डेरा जमाया। आधी रात से अधिक बीत चुकी थी; कुत्ते भी थोड़ी देर तक भूँककर अंत में चुप हो रहे थे। प्रकृति निस्तब्ध हुई; सहसा ग्राम में कोलाहल मचा और धमाके के कई शब्द हुए। लोग आँखें मींचते उठे। चारपाई के नीचे पैर देते हैं तो घुटने भर पानी में खड़े!! कोलाहल सुनकर बच्चे भी जागे। एक-दूसरे का नाम ले-लेकर लोग चिल्लाने लगे। अपने-अपने घरों में से लोग बाहर निकलकर खड़े हुए। भगवती जाह्नवी को द्वार पर बहते हुए पाया!! भयानक विपत्ति! कोई उपाय नहीं। जल का वेग क्रमश: अधिक बढ़ने लगा। पैर कठिनता से ठहरते थे। फिर दृष्टि उठाकर देखा, जल ही जल दिखाई दिया। एक-एक करके सब सामग्रियाँ बहने लगीं। संयोगवश एक नाव कुछ दूर पर आती दीख पड़ी। Acaharya Ram Chandra Shukl Ki Kahani Gyaarah Varsh Ka Samay
आशा! आशा!! आशा !!!
“नौका आयी, लोग टूट पड़े और बलपूर्वक चढ़ने का यत्न करने लगे। मल्लाहों ने भारी विपत्ति सम्मुख देखी। नाव पर अधिक बोझ होने के भय से उन्होंने तुरंत अपनी नाव बढ़ा दी। बहुत-से लोग रह गए। नौका पवनगति से गमन करने लगी। नौका दूसरे किनारे पर लगी। लोग उतरे। चंद्रशेखर मिश्र भी नाव पर से उतरे और अपने पुत्र का नाम लेके पुकारा। कोई उत्तर न मिला। उन्होंने अपने साथ ही उसे नाव पर चढ़ाया था, किंतु भीड़-भाड़ नाव पर अधिक होने के कारण वह उनसे पृथक हो गया था; मिश्रजी बहुत घबराए और तुरंत नाव लेकर लौटे। देखा, बहुत-से लोग रह गए थे; उनसे पूछ-ताछ किया। किसी ने कुछ पता न दिया। निराशा भयंकर रूप धारण करके उनके सामने उपस्थित हुई”
“संध्या का समय था; मेरे पिता दरवाजे पर बैठे थे। सहसा मिश्र जी घबराए हुए आते दीख पड़े। उन्होंने आकर आद्योपरान्त पूर्वोल्लिखित घटना कह सुनाई, और तुरंत उन्मत्त की भाँति वहाँ से चल दिए। लोग पुकारते ही रह गए। वे एक क्षण भी वहाँ न ठहरे। तब से फिर कभी वे दिखाई न दिए। ईश्वर जाने वे कहाँ गये! मेरे पिता भी दत्तचित होकर अनुसंधान करने लगे। उन्होंने सुना कि ग्राम के बहुत-से लोग नाव पर चढ़-चढ़कर इधर-उधर भाग गए हैं। इसलिए उन्हें आशा थी। इस प्रकार ढूँढ़ते-ढूँढ़ते कई मास व्यतीत हो गए।
अब तक वे समाचार की प्रतीक्षा में थे और उन्हें आशा थी; किंतु अब उन्हें चिता हुई। चंद्रशेखर मिश्र का भी तब से कहीं कुछ समाचार न मिला। जहाँ-जहाँ मिश्र जी का संबंधथा, मेरे पिता स्वयं गए;किंतु चारों ओर से निराश लौटे; किसी का कुछ अनुसंधान न लगा। एक वर्ष बीता, दो वर्ष बीते, तीसरा वर्ष आरम्भ हुआ। पिता बहुत इधर-उधर दौड़े, अंत में ईश्वर और भाग्य के ऊपर छोड़कर बैठ रहे। तीसरा वर्ष भी व्यतीत हो गया। मेरी अवस्था उस समय 14 वर्ष की हो चुकी थी; अब तक तो मैं निर्बोध बालिका थी। अब क्रमश: मुझे अपनी वास्तविक दशा का ज्ञान होने लगा। मेरा समय भी अहर्निश इसी चिंता में अब व्यतीत होने लगा”
क्रमशः Acaharya Ram Chandra Shukl Ki Kahani Gyaarah Varsh Ka Samay
घनी कहानी छोटी शाखा: आचार्य रामचंद्र शुक्ल की लिखी कहानी “ग्यारह वर्ष का समय” का चौथा भाग
घनी कहानी छोटी शाखा: आचार्य रामचंद्र शुक्ल की लिखी कहानी “ग्यारह वर्ष का समय” का पाँचवा भाग