Aahat Si Koi Aaye To Lagta Hai Ke Tum Ho
जाँ निसार अख़्तर की ग़ज़ल: आहट सी कोई आए तो लगता है कि तुम हो,
आहट सी कोई आए तो लगता है कि तुम हो,
साया कोई लहराए तो लगता है कि तुम हो
जब शाख़ कोई हाथ लगाते ही चमन में,
शरमाए लचक जाए तो लगता है कि तुम हो
संदल से महकती हुई पुर-कैफ़ हवा का,
झोंका कोई टकराए तो लगता है कि तुम हो
ओढ़े हुए तारों की चमकती हुई चादर,
नद्दी कोई बल खाए तो लगता है कि तुम हो
जब रात गए कोई किरन मेरे बराबर,
चुप-चाप सी सो जाए तो लगता है कि तुम हो
Aahat Si Koi Aaye To Lagta Hai Ke Tum Ho
[रदीफ़- तो लगता है कि तुम हो]
[क़ाफ़िये- आए, लहराए, जाए, टकराए, खाए, जाए]
[पहला शे’र मत’ला है, इसके दोनों मिसरों में रदीफ़ और क़ाफ़िये की पाबंदी है]
महशर बदायूँनी की ग़ज़ल: आख़िर आख़िर एक ग़म ही आशना रह जाएगा
आख़िर आख़िर एक ग़म ही आशना रह जाएगा,
और वो ग़म भी मुझ को इक दिन देखता रह जाएगा
सोचता हूँ अश्क-ए-हसरत ही करूँ नज़्र-ए-बहार,
फिर ख़याल आता है मेरे पास क्या रह जाएगा
अब हवाएँ ही करेंगी रौशनी का फ़ैसला,
जिस दिए में जान होगी वो दिया रह जाएगा
आज अगर घर में यही रंग-ए-शब-ए-इशरत रहा,
लोग सो जाएँगे दरवाज़ा खुला रह जाएगा
ता-हद-ए-मंज़िल तवाज़ुन चाहिए रफ़्तार में,
जो मुसाफ़िर तेज़-तर आगे बढ़ा रह जाएगा
घर कभी उजड़ा नहीं ये घर का शजरा है गवाह,
हम गए तो आ के कोई दूसरा रह जाएगा
रौशनी ‘महशर’ रहेगी रौशनी अपनी जगह,
मैं गुज़र जाऊँगा मेरा नक़्श-ए-पा रह जाएगा
[रदीफ़- रह जाएगा]
[क़ाफ़िये- आशना, देखता, क्या, दिया, खुला, बढ़ा, दूसरा,नक़्श-ए-पा]
[पहला शे’र मत’ला है, इसके दोनों मिसरों में रदीफ़ और क़ाफ़िये की पाबंदी है]