भिखारिन (रबीन्द्रनाथ टैगोर)
भाग-1
Bhikharin Kahani
अन्धी प्रतिदिन मन्दिर के दरवाजे पर जाकर खड़ी होती, दर्शन करने वाले बाहर निकलते तो वह अपना हाथ फैला देती और नम्रता से कहती- “बाबूजी, अन्धी पर दया हो जाए”
वह जानती थी कि मन्दिर में आने वाले सहृदय और श्रध्दालु हुआ करते हैं। उसका यह अनुमान असत्य न था। आने-जाने वाले दो-चार पैसे उसके हाथ पर रख ही देते। अन्धी उनको दुआएँ देती और उनकी सहृदयता को सराहती। स्त्रियाँ भी उसके पल्ले में थोड़ा-बहुत अनाज डाल जाया करती थीं। प्रात: से संध्या तक वह इसी प्रकार हाथ फैलाए खड़ी रहती। उसके पश्चात् मन-ही-मन भगवान को प्रणाम करती और अपनी लाठी के सहारे झोपड़ी का पथ ग्रहण करती। उसकी झोंपड़ी नगर से बाहर थी। रास्ते में भी याचना करती जाती किन्तु राहगीरों में अधिक संख्या श्वेत वस्त्रों वालों की होती, जो पैसे देने की अपेक्षा झिड़कियाँ दिया करते हैं। तब भी अन्धी निराश न होती और उसकी याचना बराबर जारी रहती। झोपड़ी तक पहुँचते-पहुँचते उसे दो-चार पैसे और मिल जाते। झोपड़ी के समीप पहुंचते ही एक दस वर्ष का लड़का उछलता-कूदता आता और उससे चिपट जाता। अन्धी टटोलकर उसके मस्तक को चूमती।
बच्चा कौन है? किसका है? कहां से आया? इस बात से कोई परिचय नहीं था। पांच वर्ष हुए पास-पड़ोस वालों ने उसे अकेला देखा था। इन्हीं दिनों एक दिन संध्या-समय लोगों ने उसकी गोद में एक बच्चा देखा, वह रो रहा था, अन्धी उसका मुख चूम-चूमकर उसे चुप कराने का प्रयत्न कर रही थी। वह कोई असाधारण घटना न थी, अत: किसी ने भी न पूछा कि बच्चा किसका है। उसी दिन से यह बच्चा अन्धी के पास था और प्रसन्न था। उसको वह अपने से अच्छा खिलाती और पहनाती। अन्धी ने अपनी झोपड़ी में एक हांडी गाड़ रखी थी। संध्या-समय जो कुछ माँगकर लाती उसमें डाल देती और उसे किसी वस्तु से ढाँप देती। इसलिए कि दूसरे व्यक्तियों की दृष्टि उस पर न पड़े। खाने के लिए अन्न काफी मिल जाता था। उससे काम चलाती। पहले बच्चे को पेट भरकर खिलाती फिर स्वयं खाती। रात को बच्चे को अपने वक्ष से लगाकर वहीं पड़ रहती। प्रात:काल होते ही उसको खिला-पिलाकर फिर मन्दिर के द्वार पर जा खड़ी होती। Bhikharin Kahani
काशी में सेठ बनारसीदास बहुत प्रसिध्द व्यक्ति हैं। बच्चा-बच्चा उनकी कोठी से परिचित है। बहुत बड़े देशभक्त और धर्मात्मा हैं। धर्म में उनकी बड़ी रुचि है। दिन के बारह बजे तक सेठ स्नान-ध्यान में संलग्न रहते। कोठी पर हर समय भीड़ लगी रहती। क़र्ज़ के इच्छुक तो आते ही थे, परन्तु ऐसे व्यक्तियों का भी तांता बँधा रहता जो अपनी पूँजी सेठजी के पास धरोहर रूप में रखने आते थे। सैकड़ों भिखारी अपनी जमा-पूँजी इन्हीं सेठजी के पास जमा कर जाते। अन्धी को भी यह बात ज्ञात थी, किन्तु पता नहीं अब तक वह अपनी कमाई यहां जमा कराने में क्यों हिचकिचाती रही। उसके पास काफ़ी रुपये हो गए थे, हांडी लगभग पूरी भर गई थी। उसको शंका थी कि कोई चुरा न ले।
एक दिन संध्या-समय अन्धी ने वह हांडी उखाड़ी और अपने फटे हुए आँचल में छिपाकर सेठजी की कोठी पर पहुँची। सेठजी बही-खाते के पृष्ठ उलट रहे थे, उन्होंने पूछा-
“क्या है बुढ़िया?”
अंधी ने हांडी उनके आगे सरका दी और डरते-डरते कहा- “सेठजी, इसे अपने पास जमा कर लो, मैं अंधी, अपाहिज कहाँ रखती फिरूंगी?”
सेठजी ने हांडी की ओर देखकर कहा-“इसमें क्या है?”
अन्धी ने उत्तर दिया- “भीख माँग-माँगकर अपने बच्चे के लिए दो-चार पैसे संग्रह किये हैं, अपने पास रखते डरती हूँ, कृपया इन्हें आप अपनी कोठी में रख लें”
सेठजी ने मुनीम की ओर संकेत करते हुए कहा- “बही में जमा कर लो”- फिर बुढ़िया से पूछा- “तेरा नाम क्या है?”
अंधी ने अपना नाम बताया, मुनीमजी ने नकदी गिनकर उसके नाम से जमा कर ली और वह सेठजी को आशीर्वाद देती हुई अपनी झोंपड़ी में चली गई।
दो वर्ष बहुत सुख के साथ बीते। इसके पश्चात् एक दिन लड़के को ज्वर ने आ दबाया। अंधी ने दवा-दारू की, झाड़-फूँक से भी काम लिया, टोने-टोटके की परीक्षा की, परन्तु सम्पूर्ण प्रयत्न व्यर्थ सिध्द हुए। लड़के की दशा दिन-प्रतिदिन बुरी होती गई, अंधी का हृदय टूट गया, साहस ने जवाब दे दिया, निराश हो गई। परन्तु फिर ध्यान आया कि संभवत: डॉक्टर के इलाज से फ़ायदा हो जाए। इस विचार के आते ही वह गिरती-पड़ती सेठजी की कोठी पर आ पहुंची। सेठजी उपस्थित थे।
अंधी ने कहा- “सेठजी मेरी जमा-पूँजी में से दस-पाँच रुपये मुझे मिल जाएँ तो बड़ी कृपा हो। मेरा बच्चा मर रहा है, डॉक्टर को दिखाऊंगी”
सेठजी ने कठोर स्वर में कहा- “कैसी जमा पूँजी ? कैसे रुपये? मेरे पास किसी के रुपये जमा नहीं हैं”
अंधी ने रोते हुए उत्तर दिया- “दो वर्ष हुए मैं आपके पास धरोहर रख गई थी। दे दीजिए बड़ी दया होगी”Bhikharin Kahani
सेठजी ने मुनीम की ओर रहस्यमयी दृष्टि से देखते हुए कहा- “मुनीमजी, ज़रा देखना तो, इसके नाम की कोई पूँजी जमा है क्या? तेरा नाम क्या है री?”
अंधी की जान-में-जान आई, आशा बंधी। पहला उत्तर सुनकर उसने सोचा कि सेठ बेईमान है, किन्तु अब सोचने लगी सम्भवत: उसे ध्यान न रहा होगा। ऐसा धर्मी व्यक्ति भी भला कहीं झूठ बोल सकता है। उसने अपना नाम बता दिया। उलट-पलटकर देखा। फिर कहा- “नहीं तो, इस नाम पर एक पाई भी जमा नहीं है”
अंधी वहीं जमी बैठी रही। उसने रो-रोकर कहा- “सेठजी, परमात्मा के नाम पर, धर्म के नाम पर, कुछ दे दीजिए। मेरा बच्चा जी जाएगा। मैं जीवन-भर आपके गुण गाऊँगी”
परन्तु पत्थर में जोंक न लगी। सेठजी ने क्रुध्द होकर उत्तर दिया- “जाती है या नौकर को बुलाऊँ?”
अंधी लाठी टेककर खड़ी हो गई और सेठजी की ओर मुंह करके बोली- “अच्छा भगवान तुम्हें बहुत दे”- और अपनी झोंपड़ी की ओर चल दी। यह अशीष न था बल्कि एक दुखी का शाप था। बच्चे की दशा बिगड़ती गई, दवा-दारू हुई ही नहीं, फ़ायदा क्यों कर होता। एक दिन उसकी अवस्था चिन्ताजनक हो गई, प्राणों के लाले पड़ गये, उसके जीवन से अंधी भी निराश हो गई। सेठजी पर रह-रहकर उसे क्रोध आता था। इतना धनी व्यक्ति है, दो-चार रुपये दे देता तो क्या चला जाता और फिर मैं उससे कुछ दान नहीं माँग रही थी, अपने ही रुपये माँगने गई थी। सेठजी से घृणा हो गई। बैठे-बैठे उसको कुछ ध्यान आया। उसने बच्चे को अपनी गोद में उठा लिया और ठोकरें खाती, गिरती-पड़ती, सेठजी के पास पहुंची और उनके द्वार पर धरना देकर बैठ गई।
क्रमशः
घनी कहानी, छोटी शाखा- रबीन्द्रनाथ टैगोर की कहानी “भिखारिन” का अंतिम भाग
Bhikharin Kahani