fbpx
Best Urdu Rubai Shaam Shayari Har Haqeeqat Majaz Ho Jaye Tagore ki Kahani Bhikharin Parveen Shakir Shayarisahityaduniya.com

Tagore ki Kahani Bhikharin
भिखारिन (रवीन्द्रनाथ टैगोर)
घनी कहानी, छोटी शाखा- रबीन्द्रनाथ टैगोर की कहानी “भिखारिन” का पहला भाग
भाग-2
(अब तक आपने पढ़ा कि एक अंधी भिखारिन जीवनयापन के लिए मंदिर और रास्ते में भिक्षा माँगती है। उसके जीने की आस एक छोटा-सा बालक है जो उसे एक दिन रास्ते में मिला था। वो भिखारिन सिर्फ़ उस बच्चे के लिए ही जीती है और एक दिन अपनी जमा-पूँजी उस बच्चे के लिए बचाकर रखने की सोच लिए वो सारा धन सेठ बनारसीदास के पास जमा करवा देती है। कुछ साल बाद बच्चे को ताप चढ़ने और तबियत बहुत ख़राब होने पर जब वो सेठ के पास अपनी पूँजी लेने जाती है तो धर्मी सेठ की बेईमानी झलकती है। निराश अंधी भिखारिन घर तो लौट जाती है किंतु बच्चे की बिगड़ती तबियत के कारण वो आख़िरकार अपने बच्चे को गोद में लिए सेठ के घर पहुँचती है और द्वार पर धरना देकर बैठ जाती है। अब आगे..) Tagore ki Kahani Bhikharin

बच्चे का शरीर ज्वर से भभक रहा था और अंधी का कलेजा भी। एक नौकर किसी काम से बाहर आया। अंधी को बैठा देखकर उसने सेठजी को सूचना दी, सेठजी ने आज्ञा दी कि उसे भगा दो। नौकर ने अंधी से चले जाने को कहा, किन्तु वह उस स्थान से न हिली। मारने का भय दिखाया, पर वह टस-से-मस न हुई। उसने फिर अन्दर जाकर कहा कि वह नहीं टलती। सेठजी स्वयं बाहर पधारे। देखते ही पहचान गये। बच्चे को देखकर उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ कि उसकी शक्ल-सूरत उनके मोहन से बहुत मिलती-जुलती है। सात वर्ष हुए तब मोहन किसी मेले में खो गया था। उसकी बहुत खोज की, पर उसका कोई पता न मिला। उन्हें स्मरण हो आया कि मोहन की जाँघ पर एक लाल रंग का चिह्न था। इस विचार के आते ही उन्होंने अंधी की गोद के बच्चे की जाँघ देखी। चिह्न अवश्य था परन्तु पहले से कुछ बड़ा।
उनको विश्वास हो गया कि बच्चा उन्हीं का है। तुरन्त उसको छीनकर अपने कलेजे से चिपटा लिया। शरीर ज्वर से तप रहा था। नौकर को डॉक्टर लाने के लिए भेजा और स्वयं मकान के अन्दर चल दिये। अंधी खड़ी हो गई और चिल्लाने लगी- “मेरे बच्चे को न ले जाओ, मेरे रुपये तो हजम कर गये अब क्या मेरा बच्चा भी मुझसे छीनोगे?”
सेठजी बहुत चिन्तित हुए और कहा-“बच्चा मेरा है, यही एक बच्चा है, सात वर्ष पूर्व कहीं खो गया था अब मिला है, सो इसे कहीं नहीं जाने दूंगा और लाख यत्न करके भी इसके प्राण बचाऊंगा”
अंधी ने एक जोर का ठहाका लगाया- “तुम्हारा बच्चा है, इसलिए लाख यत्न करके भी उसे बचाओगे। मेरा बच्चा होता तो उसे मर जाने देते, क्यों? यह भी कोई न्याय है? इतने दिनों तक खून-पसीना एक करके उसको पाला है। मैं उसको अपने हाथ से नहीं जाने दूंगी”
सेठजी की अजीब दशा थी। कुछ करते-धरते बन नहीं पड़ता था। कुछ देर वहीं मौन खड़े रहे फिर मकान के अन्दर चले गये। अन्धी कुछ समय तक खड़ी रोती रही फिर वह भी अपनी झोंपड़ी की ओर चल दी। दूसरे दिन प्रात:काल प्रभु की कृपा हुई या दवा ने जादू का-सा प्रभाव दिखाया। मोहन का ज्वर उतर गया। होश आने पर उसने आँख खोली तो सर्वप्रथम शब्द उसकी जबान से निकला- “माँ”
चहुँओर अपरिचित शक्लें देखकर उसने अपने नेत्र फिर बन्द कर लिये। उस समय से उसका ज्वर फिर अधिक होना आरम्भ हो गया। माँ-माँ की रट लगी हुई थी, डॉक्टरों ने जवाब दे दिया, सेठजी के हाथ-पाँव फुल गये, चहुँओर अँधेरा दिखाई पड़ने लगा- “क्या करूँ एक ही बच्चा है, इतने दिनों बाद मिला भी तो मृत्यु उसको अपने चंगुल में दबा रही है, इसे कैसे बचाऊँ?” ?सहसा उनको अन्धी का ध्यान आया। पत्नी को बाहर भेजा कि देखो कहीं वह अब तक द्वार पर न बैठी हो। परन्तु वह वहाँ कहाँ?
सेठजी ने फिटन तैयार करवाई और बस्ती से बाहर उसकी झोंपड़ी पर पहुँचे। झोंपड़ी बिना द्वार के थी, अन्दर गए। देखा अन्धी एक फटे-पुराने टाट पर पड़ी है और उसके नेत्रों से अश्रुधार बह रही है। सेठजी ने धीरे से उसको हिलाया। उसका शरीर भी अग्नि की भाँति तप रहा था। सेठजी ने कहा- “बुढ़िया! तेरा बच्चा मर रहा है, डॉक्टर निराश हो गए, रह-रहकर वह तुझे पुकारता है। अब तू ही उसके प्राण बचा सकती है। चल और मेरे…नहीं-नहीं अपने बच्चे की जान बचा ले”
अन्धी ने उत्तर दिया- “मरता है तो मरने दो, मैं भी मर रही हूँ। हम दोनों स्वर्ग-लोक में फिर मां-बेटे की तरह मिल जाएंगे। इस लोक में सुख नहीं है, वहाँ मेरा बच्चा सुख में रहेगा। मैं वहां उसकी सुचारू रूप से सेवा-सुश्रूषा करूंगी”
सेठजी रो दिये। आज तक उन्होंने किसी के सामने सिर न झुकाया था। किन्तु इस समय अन्धी के पाँवों पर गिर पड़े और रो-रोकर कहा- “ममता की लाज रख लो, आख़िर तुम भी उसकी माँ हो। चलो, तुम्हारे जाने से वह बच जायेगा”
ममता शब्द ने अन्धी को विकल कर दिया। उसने तुरन्त कहा- “अच्छा चलो”
सेठजी सहारा देकर उसे बाहर लाये और फिटन पर बिठा दिया। फिटन घर की ओर दौड़ने लगी। उस समय सेठजी और अन्धी भिखारिन दोनों की एक ही दशा थी। दोनों की यही इच्छा थी कि शीघ्र-से-शीघ्र अपने बच्चे के पास पहुँच जाएँ। कोठी आ गई, सेठजी ने सहारा देकर अन्धी को उतारा और अन्दर ले गए। भीतर जाकर अन्धी ने मोहन के माथे पर हाथ फेरा। मोहन पहचान गया कि यह उसकी माँ का हाथ है। उसने तुरन्त नेत्र खोल दिये और उसे अपने समीप खड़े हुए देखकर कहा- “माँ, तुम आ गईं”
अन्धी भिखारिन मोहन के सिरहाने बैठ गई और उसने मोहन का सिर अपने गोद में रख लिया। उसको बहुत सुख अनुभव हुआ और वह उसकी गोद में तुरन्त सो गया। दूसरे दिन से मोहन की दशा अच्छी होने लगी और दस-पन्द्रह दिन में वह बिल्कुल स्वस्थ हो गया। जो काम हकीमों के जोशान्दे, वैद्यों की पुड़िया और डॉक्टरों के मिक्सचर न कर सके वह अन्धी की स्नेहमयी सेवा ने पूरा कर दिया।
मोहन के पूरी तरह स्वस्थ हो जाने पर अन्धी ने विदा मांगी। सेठजी ने बहुत-कुछ कहा-सुना कि वह उन्हीं के पास रह जाए परन्तु वह सहमत न हुई, विवश होकर विदा करना पड़ा। जब वह चलने लगी तो सेठजी ने रुपयों की एक थैली उसके हाथ में दे दी। अन्धी ने मालूम किया, इसमें क्या है।
सेठजी ने कहा-“इसमें तुम्हारे धरोहर है, तुम्हारे रुपये। मेरा वह अपराध….”
अन्धी ने बात काट कर कहा-“यह रुपये तो मैंने तुम्हारे मोहन के लिए संग्रह किये थे, उसी को दे देना”
अन्धी ने थैली वहीं छोड़ दी। और लाठी टेकती हुई चल दी। बाहर निकलकर फिर उसने उस घर की ओर नेत्र उठाये उसके नेत्रों से अश्रु बह रहे थे किन्तु वह एक भिखारिन होते हुए भी सेठ से महान थी। इस समय सेठ याचक था और वह दाता थी।

_____
समाप्त

Tagore ki Kahani Bhikharin

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *