Premchand ki kahani Dhaporshankh ढपोरशंख- मुंशी प्रेमचंद
पहला भाग
दूसरा भाग
तीसरा भाग
चौथा भाग
पाँचवाँ भाग
छठा भाग
भाग-7
(अब तक आपने पढ़ा…लेखक यहाँ अपने एक मित्र ढपोरशंख की कहानी सुना रहे हैं। ढपोरशंख ने जब लेखक को अपने एक दोस्त के विषय में बताया तो उनकी पत्नी ने उस दोस्त करुणाकर को धोखेबाज़ कहा इस बात पर फ़ैसला करने के लिए लेखक को पाँच बनाकर लेखक को ढपोरशंख करुणाकर की कहानी बताने बैठे हैं।वो बताते हैं कि एक पुस्तक की समीक्षा को लिखने के अनुरोध के पत्र से शुरू हुआ ये सिलसिला करुणाकर के दुःख, दर्द और आपबीती के ख़तों के सिलसिले में बदल गया। ढपोरशंख और उनकी पत्नी करुणाकर की बातों से प्रभावित होकर उससे लगाव लगा बैठे और एक वक़्त नौकरी के सिलसिले में ज़रूरत पड़ने पर उसे सौ रुपए तार से देकर मदद तक की। फिर अपनी ज़िंदगी की आपाधापी से तंग आकर करुणाकर आख़िर ढपोरशंख के घर आ जाता है और उसे किसी होटल में व्यवस्था करने की ज़िम्मेदारी संभालनते हुए ढपोरशंख अपनी जेब से रुपए ख़र्च करता है इस आस में कि करुणाकर की तनख़्वाह आते ही वो लौटा देगा। इधर कुछ महीने होटल में रहने के बाद करुणाकर ढपोरशंख के दूसरे मित्र माथुर जिससे अब करुणाकर की भी अच्छी दोस्ती हो गयी थी उसके घर बसने का विचार करता है। वहाँ बसते ही वो रोज़ माथुर की व्यथा और दुःख भरी ज़िंदगी की कहानियाँ लेकर ढपोरशंख को सुनाने आने लगता है और एक रोज़ उसके लिए भी मदद के कुछ रुपए माँग ले जाता है। किसी तरह ढपोरशंख करुणाकर को अपने एक आगरा के मित्र के यहाँ लेखन के काम में जोड़ देता है, जाते हुए भी करुणाकर कुछ रुपए उधार ले जाता है। ढपोरशंख अब भी उस बात से व्यथित नहीं होता बल्कि सोचता है कि अपने आगरा वाले दोस्त से कहकर सीधे तनख़्वाह से एक किस्त अपनी उधार की रक़म वापसी के लिए रखने कह देगा। इसी बीच उसे कुछ ही रोज़ में करुणाकर नज़र आता है, उसे देखकर ढपोरशंख के मन में ख़याल आता है कि कहीं उसने बाक़ियों की तरह ये नौकरी भी तो नहीं छोड़ दी। वो उससे मिलकर हाल पूछता है। करुणाकर उन्हें बताता है कि वो बस उनसे मिलने चला आया है, बाद में वो ढपोरशंख से एक बार फिर रुपए माँगता है लेकिन ढपोरशंख मना कर देता है। कुछ दिनों बाद फिर करुणाकर आ जाता है और उन्हें बताता है कि किस तरह पहचान के एक वृद्ध ने मिलने पर अपने परिवार की बात छेड़ी और इसी बीच उस वृद्ध के साथ आयी उसकी कन्या का मंगेतर आकर उस वृद्ध से उलझ जाता है क्योंकि वो पुराने विचारों का है और उसे लड़कियों का इस तरह बाहर घूमना पसंद नहीं है। इसी बात पर तू-तू, मैं-मैं के बाद हाथापाई की नौबत आ जाती है। लोग बीचबचाव करके उन्हें छुड़ाते हैं। लेकिन उस लड़की का मंगेतर विवाह वहीं तोड़ देता है और वृद्ध के सामने प्रसातव रखकर करुणाकर लड़की का हाथ माँगते हैं। करुणाकर की शादी की बात सुनकर ढपोरशंख के पैरों तले ज़मीन खिसक जाती है वो उसे कहता है कि इस शादी को करने के लिए उसके पास पैसे और कमाई का साधन होना ज़रूरी है। लेकिन करुणाकर शादी का सारा भार ढपोरशंख के ऊपर डाल देता है। लिहाज़ में मना करने की बजाय ढपोरशंख उस ख़र्च को उठाता है। करुणाकर कहता है कि वो शादी में ससुर से मिलने वाली रक़म से उसका उधर चुका देगा लेकिन अंत तक वहाँ रहने पर भी करुणाकर उसे कुछ नहीं देता। आख़िर माथुर को वहाँ छोड़कर ढपोरशंख वापस लौट जाता है। माथुर आकर उसे बताता है कि करुणाकर उस लड़की से किसी नदी के किनारे नहीं मिला था बल्कि वो उससे काफ़ी समय से पत्र व्यवहार करता रहा था। ये बात सुनते ही ढपोरशंख चौंक जाता है…अब आगे)
माथुर की बात सुनते ही ढपोरशंख के कान खड़े हो गये।
उसने माथुर से पूछा, ‘अच्छा ! यह बिलकुल कल्पना थी उसकी ?’
माथुर– ‘ज़ी हाँ।’
ढपोरसंख -‘अच्छा, तुम्हारी भांजी के विवाह का क्या हुआ ?’
माथुर -‘ अभी तो कुछ नहीं हुआ।
ढपोरसंख -‘मगर जोशी ने कई महीने तक तुम्हारी सहायता तो खूब की ?’
माथुर -‘मेरी सहायता वह क्या करता। हाँ, दोनों जून भोजन भले कर लेता था।’ Premchand ki kahani Dhaporshankh
ढपोरसंख -‘तुम्हारे नाम पर उसने मुझसे जो रुपये लिये थे, वह तो तुम्हें दिये होंगे ?’
माथुर -‘क्या मेरे नाम पर भी कुछ रुपये लिये थे ?’
ढपोरसंख -‘हाँ भाई, तुम्हारे घर का किराया देने के लिए तो ले गया था।’
माथुर -‘सरासर बेईमानी। मुझे उसने एक पैसा भी नहीं दिया, उलटे और एक महाजन से मेरे नाम पर सौ रुपयों का स्टाम्प लिखकर रुपये लिये।’
मैं क्या जानता था, कि धोखा दे रहा है। संयोग से उसी वक्त आगरे से वह सज्जन आ गये जिनके पास जोशी
कुछ दिनों रहा था। उन्होंने माथुर को देखकर पूछा, ‘अच्छा ! आप अभी जिंदा हैं। जोशी ने तो कहा था, माथुर मर गया है।’
माथुर ने हँसकर कहा, ‘मेरे तो सिर में दर्द भी नहीं हुआ।’
ढपोरसंख ने पूछा, ‘अच्छा, आपके मुरादाबादी बरतन तो पहुँच गये ?’
आगरा-निवासी मित्र ने कुतूहल से पूछा, ‘क़ैसे मुरादाबादी बरतन ?’
‘वही जो आपने जोशी की मारफत मँगवाये थे ?’
‘मैंने कोई चीज उसकी मारफत नहीं मँगवाई। मुझे जरूरत होती तो आपको सीधा न लिखता !’
माथुर ने हँसकर कहा, ‘तो यह रुपये भी उसने हजम कर लिये।’
आगरा-निवासी मित्र बोले -‘मुझसे भी तो तुम्हारी मृत्यु के बहाने सौ रुपये लाया था। यह तो एक ही जालिया निकला। उफ ! कितना बड़ा चकमा दिया है इसने ! जिन्दगी में यह पहला मौका है, कि मैं यों बेवकूफ बना।
बच्चा को पा जाऊँ तो तीन साल को भेजवाऊँ। कहाँ हैं आजकल ?’
माथुर ने कहा, ‘अभी तो ससुराल में है।’
ढपोरसंख का वृत्तान्त समाप्त हो गया। जोशी ने उन्हीं को नहीं, माथुर जैसे और गरीब, आगरा-निवासी सज्जन-जैसे घाघ को भी उलटे छुरे से मूड़ा और अगर भंडा न फूट गया होता तो अभी न-जाने कितने दिनों तक मूड़ता।
उसकी इन मौलिक चालों पर मैं भी मुग्ध हो गया। बेशक ! अपने फन का उस्ताद है, छॅटा हुआ गुर्गा।
देवीजी बोलीं –सुन ली आपने सारी कथा ?
मैंने डरते-डरते कहा, ‘हाँ, सुन तो ली।’
‘अच्छा, तो अब आपका क्या फैसला है ? इन्होंने घोंघापन किया या नहीं ? जिस आदमी को एक-एक पैसे के लिए दूसरों का मुँह ताकना पड़े, वह घर के पाँच-छ: सौ रुपये इस तरह उड़ा दे, इसे आप उसकी सज्जनता कहेंगे या बेवकूफी ? अगर इन्होंने यह समझकर रुपये दिये होते, कि पानी में फेंक रहा हूँ, तो मुझे कोई आपत्ति न थी; मगर यह बराबर इस धोखे में रहे और मुझे भी उसी धोखे में डालते रहे, कि वह घर
का मालदार है और मेरे सब रुपये ही न लौटा देगा; बल्कि और भी कितने सलूक करेगा। जिसका बाप दो हजार रुपये महीना पाता हो, जिसके चाचा की आमदनी एक हजार मासिक हो और एक लाख की जायदाद घर में हो, वह और कुछ नहीं तो यूरोप की सैर तो एक बार करा ही सकता था। मैं अगर कभी मना भी करती, तो आप बिगड़ जाते और उदारता का उपदेश देने लगते थे। यह मैं स्वीकार करती हूँ, कि शुरू में मैं भी धोखे में आ गई थी, मगर पीछे से मुझे उसका सन्देह होने लगा था। और विवाह के समय तो मैंने जोर देकर कह दिया था, कि अब एक पाई भी न दूँगी। पूछिए, झूठ कहती हूँ, या सच ? फिर अगर मुझे धोखा हुआ; तो मैं घर में रहनेवाली स्त्री हूँ। मेरा धोखे में आ जाना क्षम्य है, मगर यह जो लेखक और विचारक और उपदेशक बनते हैं, यह क्यों धोखे में आये और जब मैं इन्हें समझाती थी, तो यह क्यों अपने को बुद्धिमत्ता का अवतार समझकर मेरी बातों की उपेक्षा करते थे ? देखिए, रू-रिआयत न कीजिएगा, नहीं मैं बुरी तरह खबर लूँगी। मैं निष्पक्ष न्याय चाहती हूँ।’ Premchand ki kahani Dhaporshankh
ढपोरसंख ने दर्दनाक आँखों से मेरी तरफ देखा, जो मानो भिक्षा माँग रही थीं। उसी के साथ देवीजी की आग्रह, आदेश और गर्व से भरी आँखें ताक रही थीं। एक को अपनी हार का विश्वास था, दूसरी को अपनी जीत
का। एक रिआयत चाहती थी, दूसरी सच्चा न्याय। मैंने कृत्रिम गंभीरता से अपना निर्णय सुनाया मेरे मित्र ने कुछ भावुकता से अवश्य काम लिया है, पर उनकी सज्जनता निर्विवाद है। ढपोरसंख उछल पड़े और मेरे गले लिपट गये। देवीजी ने सगर्व नेत्रों से देखकर कहा, यह तो मैं जानती ही थी, कि चोर-चोर मौसेरे भाई होंगे।
तुम दोनों एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हो। अब तक रुपये में एक पाई मर्दों का विश्वास था। आज तुमने वह भी उठा दिया। आज निश्चय हुआ, कि पुरुष छली, कपटी, विश्वासघाती और स्वार्थी होते हैं। मैं इस निर्णय को नहीं
मानती। मुफ्त में ईमान बिगाड़ना इसी को कहते हैं। भला मेरा पक्ष लेते, तो अच्छा भोजन मिलता, उनका पक्ष लेकर आपको सड़े सिगरेटों के सिवा और क्या हाथ लगेगा। खैर, हाँड़ी गई, कुत्ते की जात तो पहचानी गई। उस दिन से दो-तीन बार देवीजी से भेंट हो चुकी है और वही फटकार सुननी पड़ी है। वह न क्षमा चाहती हैं; न क्षमा कर सकती हैं।
समाप्त
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