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Munshi Premchand ki kahani Dhaporshankhढपोरशंख, मुंशी प्रेमचंद

Munshi Premchand ki kahani Dhaporshankh – ढपोरशंख- मुंशी प्रेमचंद
भाग-1 

Munshi Premchand ki kahani Dhaporshankh:: मुरादाबाद में मेरे एक पुराने मित्र हैं, जिन्हें दिल में तो मैं एक रत्न समझता हूँ पर पुकारता हूँ ढपोरशंख कहकर और वह बुरा भी नहीं मानते। ईश्वर ने उन्हें जितना ह्रदय दिया है, उसकी आधी बुद्धि दी होती, तो आज वह कुछ और होते ! उन्हें हमेशा तंगहस्त ही देखा; मगर किसी के सामने कभी हाथ फैलाते नहीं देखा। हम और वह बहुत दिनों तक साथ पढ़े हैं, खासी बेतकल्लुफ़ी है; पर यह जानते हुए भी कि मेरे लिए सौ-पचास रुपये से उनकी मदद करना कोई बड़ी बात नहीं और मैं बड़ी खुशी से करूँगा, कभी मुझसे एक पाई के रवादार न हुए। अगर हीले से बच्चों को दो-चार रुपये दे देता हूँ, तो विदा होते समय उसकी दुगनी रक़म के मुरादाबादी बर्तन लादने पड़ते हैं। इसलिए मैंने यह नियम बना लिया है कि जब उनके पास जाता हूँ, तो एक-दो दिन में जितनी बड़ी-से-बड़ी चपत दे सकता हूँ, देता हूँ। मौसम में जो महँगी-से-महँगी चीज होती है, वही खाता हूँ और माँग-माँगकर खाता हूँ। मगर दिल के ऐसे बेहया हैं कि अगर एक बार भी उधर से निकल जाऊँ और उससे न मिलूँ तो बुरी तरह डाँट बताते हैं। इधर दो-तीन साल से मुलाकात न हुई थी। जी देखने को चाहता था।

मई में नैनीताल जाते हुए उनसे मिलने के लिए उतर पड़ा। छोटा-सा घर है, छोटा-सा परिवार, छोटा-सा डील। द्वार पर आवाज़ दी- “ढपोरशंख!”

तुरन्त बाहर निकल आये और गले से लिपट गए। तांगे पर से मेरे ट्रंक को उतारकर कंधों पर रखा, बिस्तर बग़ल में दबाया और घर में दाख़िल हो गये। कहता हूँ, बिस्तर मुझे दे दो मगर कौन सुनता है। भीतर कदम रखा तो देवीजी के दर्शन हुए। छोटे बच्चे ने आकर प्रणाम किया। बस यही परिवार है। कमरे में गया तो देखा ख़तों का एक दफ़्तर फैला हुआ है।

“ख़तों को सुरक्षित रखने की तो इनकी आदत नहीं ? इतने ख़त किसके हैं?”  कुतूहल से पूछा- “यह क्या कूड़ा फैला रखा है जी, समेटो।”

देवीजी मुसकराकर बोलीं,- “क़ूड़ा न कहिए, एक-एक पत्र साहित्य का रत्न है। आप तो इधर आये नहीं। इनके एक नये मित्र पैदा हो गये हैं। यह उन्हीं के कर-कमलों के प्रसाद हैं”

ढपोरशंख ने अपनी नन्ही-नन्ही आँखें सिकोड़कर कहा, “तुम उसके नाम से क्यों इतना जलती हो, मेरी समझ में नहीं आता ? अगर तुम्हारे दो-चार सौ रुपये उस पर आते हैं, तो उनका देनदार मैं हूँ। वह भी अभी जीता-जागता है। किसी को बेईमान क्यों समझती हो? यह क्यों नहीं समझतीं कि उसे अभी सुविधा नहीं है। और फिर दो-चार सौ रुपये एक मित्र के हाथों डूब ही जायें, तो क्यों रोओ। माना हम गरीब हैं, दो-चार सौ रुपये हमारे लिए दो-चार लाख से कम नहीं; लेकिन खाया तो एक मित्र ने”

देवीजी जितनी रूपवती थीं, उतनी ही ज़बान की तेज़ थीं।

बोलीं – “अगर ऐसों ही का नाम मित्र है, तो मैं नहीं समझती, शत्रु किसे कहते हैं”

ढपोरशंख ने मेरी तरफ देखकर, मानो मुझसे हामी भराने के लिए कहा- “औरतों का ह्रदय बहुत ही संकीर्ण होता है”

देवीजी नारी-जाति पर यह आपेक्ष कैसे सह सकती थीं, आँखें तरेरकर बोलीं —

“यह क्यों नहीं कहते, कि उल्लू बनाकर ले गया, ऊपर से हेकड़ी जताते हो! दाल गिर जाने पर तुम्हें भी सूखा अच्छा लगे, तो कोई आश्चर्य नहीं। मैं जानती हूँ, रुपया हाथ का मैल है। यह भी समझती हूँ कि जिसके भाग्य का जितना होता है, उतना वह खाता है; मगर यह मैं कभी न मानूँगी, कि वह सज्जन था और आदर्शवादी था और यह था, वह था। साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहते, लंपट था, दग़ाबाज़ था ! बस, मेरा तुमसे कोई झगड़ा नहीं” Munshi Premchand ki kahani Dhaporshankh

ढपोरशंख ने गर्म होकर कहा, “मैं यह नहीं मान सकता”

देवीजी भी गर्म होकर बोलीं – “तुम्हें मानना पड़ेगा। महाशय जी आ गये हैं। मैं इन्हें पंच बदती हूँ। अगर यह कह देंगे, कि सज्जनता का पुतला था, आदर्शवादी था, वीरात्मा था, तो मैं मान लूँगी और फिर उसका नाम न लूँगी। और यदि इनका फैसला मेरे अनुकूल हुआ, तो लाला, तुम्हें इनको अपना बहनोई कहना पड़ेगा”

मैंने पूछा, “मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है, आप किसका जिक्र कर रही हैं ? वह कौन था ?”

देवीजी ने आँखें नचाकर कहा, “इन्हीं से पूछो, कौन था ? इनका बहनोई था”

ढपोरशंख ने झेंपकर कहा, “अजी, एक साहित्य-सेवी था करुणाकर जोशी। बेचारा विपत्ति का मारा यहाँ आ पड़ा था ! उस वक्त तो यह भी भैया-भैया करती थीं, हलवा बना-बनाकर खिलाती थीं, उसकी विपत्ति-कथा सुनकर टेसवे बहाती थीं और आज वह दग़ाबाज़ है, लंपट है, लबार है”

देवीजी ने कहा, “वह तुम्हारी ख़ातिर थी। मैं समझती थी, लेख लिखते हो, व्याख्यान देते हो, साहित्य के मर्मज्ञ बनते हो, कुछ तो आदमी पहचानते होगे। पर अब मालूम हो गया, कि क़लम घिसना और बात है, मनुष्य की नाड़ी पहचानना और बात”

मैं इस जोशी का वृत्तांत सुनने के लिए उत्सुक हो उठा ढपोरशंख तो अपना पचड़ा सुनाने को तैयार थे; मगर देवीजी ने कहा, ख़ाने-पीने से निवृत्त होकर पंचायत बैठे। मैंने भी इसे स्वीकार कर लिया। देवीजी घर में जाती हुई बोलीं -“तुम्हें क़सम है जो अभी जोशी के बारे में एक शब्द भी इनसे कहो। मैं भोजन बनाकर जब तक खिला न लूँ, तब तक दोनों आदमियों पर दफ़ा 144 है”

ढपोरशंख ने आँखे मारकर कहा, “तुम्हारा नमक खाकर यह तुम्हारी तरफ़दारी करेंगे ही”

इस बार देवीजी के कानों में यह जुमला न पड़ा। धीमे स्वर में कहा, भी गया था, नहीं तो देवीजी ने कुछ-न-कुछ जवाब ज़रूर दिया होता। देवीजी चूल्हा जला चुकीं और ढपोरशंख उनकी ओर से निश्चिन्त हो गये, तो मुझसे बोले, “जब तक वह रसोई में हैं, मैं संक्षेप में तुम्हें वह वृत्तांत सुना दूँ ?”

मैंने धर्म की आड़ लेकर कहा, “नहीं भाई, मैं पंच बनाया गया हूँ और इस विषय में कुछ न सुनूँगा। उन्हें आ जाने दो”

“मुझे भय है, कि तुम उन्हीं का-सा फ़ैसला कर दोगे और फिर वह मेरा घर में रहना अपाढ कर देगी”

मैंने ढाढ़स दिया -“यह आप कैसे कह सकते हैं, मैं क्या फ़ैसला करूँगा?”

“मैं तुम्हें जानता जो हूँ। तुम्हारी अदालत में औरत के सामने मर्द कभी जीत ही नहीं सकता”

“तो क्या चाहते हो तुम्हारी डिग्री कर दूँ?”

“क्या दोस्ती का इतना हक़ भी नहीं अदा कर सकते?”

“अच्छा लो, तुम्हारी जीत होगी, चाहे गालियाँ ही क्यों न मिलें”

खाते-पीते दोपहर हो गयी। रात का जागा था। सोने की इच्छा हो रही थी पर देवीजी कब माननेवाली थीं। भोजन करके आ पहुँचीं। ढपोरशंख ने पत्रों का पुलिंदा समेटा और वृत्तान्त सुनाने लगे। देवीजी ने सावधान किया एक शब्द भी झूठ बोले, तो जुर्माना होगा। ढपोरशंख ने गम्भीर होकर कहा, “झूठ वह बोलता है, जिसका पक्ष निर्बल होता है। मुझे तो अपनी विजय का विश्वास है” Munshi Premchand ki kahani Dhaporshankh

इसके बाद कथा शुरू हो गई।

दो साल से ज्यादा हुए, एक दिन मेरे पास एक पत्र आया, जिसमें साहित्य सेवा के नाते एक ड्रामे की भूमिका लिखने की प्रेरणा की गई थी। करुणाकर का पत्र था। इस साहित्यिक रीति से मेरा उनसे प्रथम परिचय हुआ।

साहित्यकारों की इस जमाने में जो दुर्दशा है, उसका अनुभव कर चुका हूँ, और करता रहता हूँ और यदि भूमिका तक बात रहे, तो उनकी सेवा करने में पसोपेश नहीं होता। मैंने तुरन्त जवाब दिया आप ड्रामा भेज दीजिए। एक सप्ताह में ड्रामा आ गया, पर अबके पत्र में भूमिका लिखने ही की नहीं कोई प्रकाशक ठीक कर देने की भी प्रार्थना की गयी थी। मैं प्रकाशकों के झंझट में नहीं पड़ता। दो-एक बार पड़कर कई मित्रों को जानी दुश्मन बना चुका हूँ। मैंने ड्रामे को पढ़ा, उस पर भूमिका लिखी और हस्तलिपि लौटा दी। ड्रामा मुझे सुन्दर मालूम हुआ; इसलिए भूमिका भी प्रशंसात्मक थी। कितनी ही पुस्तकों की भूमिका लिख भी चुका हूँ। कोई नई बात न थी; पर अबकी भूमिका लिखकर पिंड न छूटा। एक सप्ताह के बाद एक लेख आया, कि इसे अपनी पत्रिका में प्रकाशित कर दीजिए। (ढपोरशंख एक पत्रिका के सम्पादक हैं।) इसे गुण कहिए या दोष, मुझे दूसरों पर विश्वास बहुत जल्द आ जाता है। और जब किसी लेखक का मुआमला हो, तो मेरी विश्वास-क्रिया और भी तीव्र हो जाती है। मैं अपने एक मित्र को जानता हूँ जो साहित्यकारों के साये से भागते हैं। वह ख़ुद निपुण लेखक हैं, बड़े ही सज्जन हैं, बड़े ही ज़िन्दा-दिल। अपनी शादी करके लौटने पर जब-जब रास्ते में मुझसे भेंट हुई, कहा, आपकी मिठाई रखी हुई है, भेजवा दूँगा, पर वह मिठाई आज तक न आई, हालाँकि अब ईश्वर की दया से विवाह-तरु में फल भी लग आये, लेकिन ख़ैर, मैं साहित्य सेवियों से इतना चौकन्ना नहीं रहता। इन पत्रों में इतनी विनय, इतना आग्रह, इतनी भक्ति होती थी, कि मुझे जोशी से बिना साक्षात्कार के ही स्नेह हो गया।

मालूम हुआ, एक बड़े बाप का बेटा है, घर से इसीलिए निर्वासित है, कि उसके चाचा दहेज की लम्बी रक़म लेकर उसका विवाह करना चाहते थे, यह उसे मंज़ूर न हुआ। इस पर चाचा ने घर से निकाल दिया। बाप के पास गया। बाप आदर्श भ्रातृ-भक्त था। उसने चाचा के फ़ैसले की अपील न सुनी। ऐसी दशा में सिद्धान्त का मारा युवक सिवाय घर से बाहर निकल भागने के और क्या करता ? यों वन-वन के पत्ते तोड़ता, द्वार-द्वार ठोकरें खाता वह ग्वालियर आ गया था। उस पर मंदाग्नि का रोगी, जीर्ण ज्वर से ग्रस्त।

आप ही बतलाइए, ऐसे आदमी से क्या सहानुभूति न होती ? फिर जब एक आदमी आपको ‘प्रिय भाई साहब’ लिखता है, अपने मनोरहस्य आपके सामने खोलकर रखता है, विपत्ति में भी धैर्य और पुरुषार्थ को हाथ से नहीं छोड़ता, कड़े से कड़ा परिश्रम करने को तैयार है, तो यदि आप में सौजन्य का अणुमात्र भी है, तो आप उसकी मदद जरूर करेंगे। अच्छा, अब फिर ड्रामे की तरफ आइए। कई दिनों बाद जोशी का पत्र प्रयाग से आया। वह वहाँ के एक मासिक पत्रिका के सम्पादकीय विभाग में नौकर हो गया था। यह पत्र पाकर मुझे कितना संतोष और आनन्द हुआ, कह नहीं सकता। कितना उद्यमशील आदमी है ! उसके प्रति मेरा स्नेह और भी प्रगाढ़ हो गया। पत्रिका का स्वामी संपादक सख्ती से पेश आता था, ज़रा-सी देर हो जाने पर दिन-भर की मजदूरी काट लेता था, बात-बात पर घुड़कियाँ जमाता था; पर यह सत्याग्रही वीर सब कुछ सहकर भी अपने काम में लगा रहता था। अपना भविष्य बनाने का ऐसा अवसर पाकर वह उसे कैसे छोड़ देता। यह सारी बातें स्नेह और विश्वास को बढ़ाने वाली थीं। एक आदमी को कठिनाइयों का सामना करते देखकर किसे उससे प्रेम न होगा, गर्व न होगा !

क्रमशः Munshi Premchand ki kahani Dhaporshankh

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