सफ़र के वक़्त – जौन एलिया
तुम्हारी याद मिरे दिल का दाग़ है लेकिन सफ़र के वक़्त तो बे-तरह याद आती हो बरस बरस की हो…
हिन्दी और उर्दू साहित्य का संगम
तुम्हारी याद मिरे दिल का दाग़ है लेकिन सफ़र के वक़्त तो बे-तरह याद आती हो बरस बरस की हो…
ठानी थी दिल में अब न मिलेंगे किसी से हम पर क्या करें कि हो गए नाचार जी से हम…
अब इतनी सादगी लाएँ कहाँ से ज़मीं की ख़ैर माँगें आसमाँ से अगर चाहें तो वो दीवार कर दें हमें…
दिल धड़कने का सबब याद आया वो तिरी याद थी अब याद आया आज मुश्किल था सँभलना ऐ दोस्त तू…
भले दिनों की बात है भली सी एक शक्ल थी न ये कि हुस्न-ए-ताम हो न देखने में आम सी…
तेरी ख़ुश्बू का पता करती है मुझ पे एहसान हवा करती है चूम कर फूल को आहिस्ता से मो’जिज़ा बाद-ए-सबा…
दुनिया की रिवायात से बेगाना नहीं हूँ छेड़ो न मुझे मैं कोई दीवाना नहीं हूँ इस कसरत-ए-ग़म पर भी मुझे…
किसी के ब’अद अपने हाथों की बद-सूरती में खो गई है वो मुझे कहती है ‘ताबिश’! तुमने देखा मेरे हाथों…
हवा का लम्स जो अपने किवाड़ खोलता है तो देर तक मिरे घर का सुकूत बोलता है हम ऐसे ख़ाक-नशीं…
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू क्या है न शो’ले…