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ये कहानी साहित्य दुनिया के लिए अरग़वान रब्बही ने लिखी है.
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सुबह के आठ बजे के बाद का समय…
6, अगस्त 1945
हिरोशिमा
रोज़ वो इसी वक़्त मिलते थे और कुछ देर एक इमारत की सीढ़ियों पर बैठ कर बात करने लगते थे। कभी कोई बात ना रहे तो दुनिया की बात..
इसी तरह वो उस रोज़ भी बैठे थे, सामने की सड़क पर आती-जाती साइकिलों को वो देखते, कोई बस रूकती तो ठहर कर उसकी ओर भी देखते लेकिन ख़ुद की बातें भी करते रहते…
गुलाबी रंग की फ़्रॉक पहने, बालों में दो चुटिया करे एक ६ साल की लड़की अपनी माँ के साथ आती है। वो दोनों उस खेलती बच्ची को देख मुस्कुराते हैं। बच्ची अपनी माँ के साथ अंदर चली जाती है। अंदर बाज़ार जैसा माहौल है, लोग जल्दी में हैं भीड़ लगी है।
उन्हें लेकिन कोई जल्दी नहीं, वो आराम से सीढ़ियों के ठीक किनारे की ओर अपनी जगह पर बैठे हैं।
“देखो, ना दुनिया जंग में मुब्तिला है और हम हैं कि रोज़ सुबह एक दूसरे से मिलने आते हैं कि कुछ प्यार की बातें हो जाएँ…,” सकूरा ने यूकी के कंधे पर सर रखते हुए कहा.
“हाँ, जंग भी तो ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही.. ऐसे भी हम बस कुछ ही देर तो साथ बैठ पाते हैं… ” यूकी ने सकूरा का बायाँ हाथ थामते हुए कहा।
“कोई बता रहा था कि हम जंग नहीं जीत सकेंगे”
“हम जंग लड़ भी कहाँ रहे हैं, हम तो प्यार कर रहे हैं”
“तुम्हें तो प्यार सूझता है पर दुनिया में कितना कुछ हो रहा है उसकी फ़िक्र भी करनी चाहिए…सुना है कि अमरीका हम पर किसी बड़े बम से हमला करने वाला है”
“अमरीका हम पर हमला नहीं कर सकेगा..ऐसे भी हमारा शहर तो युद्ध से दूर ही है..हमारे शहर पर तो कोई भी आक्रमण ना हुआ है बल्कि कहने वाले कहते हैं कि युद्ध से कारोबार में इज़ाफ़ा हुआ है.. सामान बिकने लगा है”
“तुम बहुत बेवक़ूफ़ हो.. जंग में लोग मारे जा रहे हैं और तुम हो कि व्यापार सूझ रहा है”
“अरे..मेरा ये मतलब नहीं था”
“अच्छा कोई बात नहीं, तुम अच्छे हो पर कभी-कभी कुछ भी बोल जाते हो”, कंधे को दोस्ताना तरह से पकड़ते हुए सकूरा ने कहा तो यूकी मुस्कुराया.
..
“हे.. यूकी.. वो देखो ऊपर कुछ है”
“फ़ाइटर प्लेन… इतनी ऊँचाई पर.. क्या ये अमरीकी है? हमारे फाइटर प्लेन इतनी ऊँचाई पर नहीं उड़ पाते…”
“तुम्हें कैसे पता.. हमारा ही है ये…”
8:16 AM
अचानक से बड़ा सा धमाका हुआ….
शहर धुएँ में तब्दील हो गया, कहीं से तेज़ चीख़ें आ रहीं थीं तो कहीं से पुरज़ोर ख़ामोशी।
इमारत के अंदर सिर्फ़ धुआँ था, इमारत मलबे के ढेर में बदल गई थी, लोगों की चीख़ें आ रही थीं कुछ अंदर से कुछ बाहर से, सूरज की खिड़की और धुएँ को पारकर एक मरे हुए कबूतर पर पड़ रही थी।
2:00 PM
अपनी माँ के जिस्म में छुपी गुलाबी फ़्रॉक वाली बच्ची की आँख खुलती है, वो उठती है और तबाही के मंज़र को देखकर सहम जाती है। तमाम लाशों के बीच उसकी नज़र उस कबूतर पर पड़ती है। वो उस कबूतर को प्यार से अपनी गोद में लेती है। कबूतर की लाश को अपने साथ लिए बच्ची बाहर आती है।
बाहर निकलते ही उसने देखा कि बेतहाशा बुरी शक्ल में लोग पड़े हैं, यूँ कि जैसे लकड़ियाँ हों.. बस में खड़े लोग किसी भूत की शक्ल से भी ख़राब शक्ल के हो गए थे, ज़िंदा लोग अपनी आँखों को अपने हाथों में लिए थे, लोग पानी की तलाश कर रहे थे लेकिन उन्हें कुछ नहीं मिल रहा था….
अजीब से भयानक मंज़र से डरकर वो बिल्डिंग की सीढ़ियों पर बैठ जाती है। उन्हीं सीढ़ियों पर जहाँ सकूरा और यूकी बैठे थे, वहाँ काली सी परछाईं रह गयी थी, बिलकुल उसी अंदाज़ में वो परछाई थी जैसे वो बैठे थे.. सकूरा का हाथ यूकी के गले में था, .. जिस्म फ़ना हो चुका था, परछाई ज़मीन में सिमट गयी थी…
बच्ची कबूतर को परछाईं के पास रख देती है।
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(हिरोशिमा और नागासाकी पर जब एटम बम से हमला हुआ तो कई लोगों के जिस्म पूरी तरह से ग़ायब हो गए थे और सिर्फ़ कार्बन कॉपी बची थी.. जिसे इस कहानी में परछाईं कहा गया है. फ़ीचर्ड इमेज का चित्र उसी दौर का एक चित्र है जिसमें सीढ़ियों पर परछाईं नज़र आ रही है)