DinoN Ki LaasheN ~~ अरग़वान रब्बही
ट्रेन की खिड़की से बाहर साथ-साथ चलते अंधेरों के बीच अंदर सोए लोगों की जागती नींदों की लोरियाँ मुझे भी सुलाने की कोशिश कर रही थीं, मगर मैं चाहकर भी सो नहीं सकता था क्योंकि मुझे अगले ही स्टेशन पर उतरना था…
कुछ ही वक़्त में काले अंधेरे रास्ते रंगीन हो गए, पटरियों के जोड़ बढ़ते चले गए, शहर की खुशबू देतीं इमारतें दिखाई पड़ने लगीं और धीरे-धीरे ट्रेन की तेज़ रफ़्तार कम होने लगी और ये अंदाज़ा पाते हुए कि चारबाग़ (लखनऊ स्टेशन) नज़दीक है, मैं अपना ख़ाकी रंग का बस्ता संभाल ही रहा था कि
— “कौन सा स्टेशन है?”
ऊपर की बर्थ के मुसाफ़िर ने नींद में सवाल किया…
“जी, लखनऊ”, मैंने जवाब दिया…
उसने अपनी चादर से मुँह को फिर ढंक लिया…
और चारबाग़ आ गया, ट्रेन से उतरते ही मैंने अपने मोबाइल में वक़्त देखा — रात के एक बजकर तीस मिनट हुए थे। रात के इस वक़्त स्टेशन पे लोग कम ही थे, चार-छः लोग मेरी ट्रेन से उतरे थे और बाक़ी दो-एक क़ुली, दो-एक आवारा, कुछ एक आने वाली ट्रेनों के मुसाफ़िर और इनके अलावा दो टी.टी.ई. नज़र आ रहे थे.
ख़ैर इन सब से बेमतलब, मैं अपना थका हुआ बदन उठाता-गिराता ज़ीनों के ज़रिए पुल को पार करता हुआ स्टेशन के गेट पर आ गया। वहीं विश्रामालय और पूछताछ केंद्र भी है, जोकि लोगों से खचाखच भरा था।
ये और बात है कि ज़्यादातर लोग सो रहे थे लेकिन सबको अपने सामान का पूरा ख़याल था, किसी ने सामान पे सिर रखा था तो किसी ने बैग के बाज़ुओं को हाथ में फंसा रखा था। लोग अपने परिवार के साथ अपनी नींदें पूरी कर रहे थे। वो सब बाहरी मालूम हो रहे थे — जो कहीं से आए थे और कहीं जाने वाले थे, मगर ट्रेन शायद सुबह होगी, इसलिए वो आराम कर रहे थे।
उस हल्की पीली रोशनी से बाहर आते ही तेज़ सफ़ेद रौशनी में जहाँ दो साइकिल-रिक्शे वाले मुसाफ़िरों का इंतज़ार कर रहे थे, “भइय्या रिक्शा?” — दोनों ने बारी-बारी पूछा। मैंने उन्हें मना कर दिया, मुझे दूर जाना था। वहाँ रिक्शेवाला ना ही जाता और अगर जाता तो इतने पैसे माँगता के बस — और फिर वक़्त का तगाज़ा…
मगर इन सब में मुझे ऑटोवाला नज़र नहीं आ रहा था। इत्तेफ़ाक़ से एक ऑटो दिखा और मैं उसकी ओर लपका। मैंने पूछा, “विकासनगर चलोगे?”
उसने सोचा, फिर हल्की आवाज़ में कहा — “चलेंगे।”
मैंने पूछा, “कितना लोगे?”
“विकासनगर… हम्म, कहाँ जाओगे विकासनगर में?”
“सेक्टर सात”
उसने एक सौ बीस रुपए कहे। मुझे यक़ीन नहीं हुआ, मुझे लगा था दो सौ से ऊपर कहेगा। ख़ैर, मैं बैठ गया। मगर दिल ही दिल में अभी तक हिचकिचाहट थी,और कुछ ये उलझन भी कि कहीं उसने कुछ ग़लत तो नहीं सुन लिया या फिर मैंने ही कुछ ग़लत समझ लिया…
मगर वो ख़ाली सड़क पाकर ख़ूब रफ़्तार में ऑटो खींचे था, अच्छी बात ये थी कि उसने पी नहीं थी। आमतौर पर लखनऊ में दस बजे के बाद शराबी ऑटोवाले ही मिलते हैं, मगर वो अलग मिज़ाज का था — रेडियो की मस्ती में खोया सा, कुछ साढ़े तीन गानों में उसने मुझे घर के क़रीब वाले हाईवे पर पहुंचा दिया।
मेरी अपनी आदत है कि मैं अक्सर मोड़ पे ही उतर जाता हूँ, रात में गलियों के चक्कर लगवाने से वैसे भी कोई फ़ायदा नहीं, और फिर मेरा घर तो दो गली छोड़ के ही है, इसलिए उतर ही जाता हूँ… उसको पैसे देकर मैं अपने घर की ओर बढ़ा, तो वहाँ फुटपाथ पे एक अजीब तरह का घट्टर सा नज़र आ रहा था। क़रीब जाकर देखा तो बेतरतीबी से एक-दूसरे से लिपटे दिनों की लाशों के ख़्वाब लिए ग़रीब मज़दूर थे — आती जाती गाड़ियों और मुझ जैसे आने-जाने वाले मुसाफ़िरों से बेख़बर सो रहे थे।
उनके पास न तो दुनिया जीतने का ख़्वाब था, न उसे हारने का ख़ौफ़। कोई तहमद बनियान, कोई नैकर बनियान, तो कुछ ऐसे अजीब कपड़े पहने थे जिनके मुझे नाम भी नहीं आते। ऐसा लगता था जैसे उनका जिस्म ही उनका लिबास है और उनकी रूह उनका जिस्म…
और वहीं पास में ईंटों के बने चूल्हों में कालिख के निशान कुछ सच और कुछ झूठ की गवाही दे रहे थे —
सच ये कि खाना खाया गया था, और झूठ के पूरा हो गया था।
वैसे भी वो सिर्फ पेट की ही भूक थी — और मन की भूक??
ज़हन में ऐसे न जाने कितने सवाल और ख़याल लिए सूनसान गलियों के भौंकते कुत्तों के बीच से मैं घर पहुँचा। दो आवाज़ों में ही अम्मी आ गईं, मैंने सलाम किया। उन्होंने जवाब दिया या नहीं, पता नहीं — वो अक्सर खो जाती हैं…
ख़ैर, मैं अंदर आया। बस्ता उतार ही रहा था। अम्मी ने नींद में पूछा — “खाना खाओगे या चाय पियोगे?”
मैंने कहा — “कुछ नहीं, तुम सो जाओ। मैंने खा लिया था दिल्ली में ही और फिर ट्रेन में भी मंगवा लिया था।”
इतना कह कर मैं फुटपाथ पे सो रहे ग़रीबों के बारे में सोचता-सोचता सो गया…
सुबह देर से उठा, नाश्ता किया और चल पड़ा मोबाइल रिचार्ज कराने। रिचार्ज कूपन हाइवे के दूसरी तरफ़ मिलते हैं, तो मैं अपनी दो गलियों को छोड़ता हुआ जैसे ही हाईवे पे पहुँचा, एक फुटपाथ टूटा हुआ देखा — ये वही फुटपाथ था जहाँ रात लोग घट्टर से पड़े थे।
मैंने पास जाकर देखा तो कुछ ख़ून के धब्बे थे, बगल में एक फ़र्नीचर की दुकान थी और बाहर एक नौकर खड़ा था। मैंने उससे पूछा…
उसने बताया — “रात एक ट्रक वाला ऐक्सिडेंट कर गया, तीन उसी वक़्त ख़त्म हो गए और दो अस्पताल में हैं। उनकी भी उम्मीद कम ही है।”
…मुझे सदमा लगा। मैंने जिन लोगों को रात अपनी आँखों के सामने देखा था, उनके साथ ऐसा होना मुझे चौंका रहा था…
मुझे ख़बर भी ना हुई कि मेरे बगल में कोई और भी खड़ा है। उस आदमी ने पूछा — “उस ट्रक वाले का क्या हुआ?”
उन दोनों ने ट्रकवाले को गालियाँ देना शुरू कीं, मगर मुझे उसमें कोई दिलचस्पी ना थी।
मैं वहाँ से जैसे ही आगे आया, ज़हन में ख़याल आया। तुरंत फ़र्नीचर वाले लड़के से पूछा — “कहाँ ले गए? कौन से हॉस्पिटल?”
उसने कहा — “पता नहीं।”
इतना सुन कर मैं भी मायूसी से अपना रिचार्ज करवाने चला गया। दिन भर मैं परेशान था। घर आया तो अम्मी ने सवाल किया — “क्या कोई ऐक्सिडेंट हुआ है सामने?”
मेरी आँखों में आँसू भरे थे, बस किसी तरह नज़रें चुरा लीं। मैंने “ना” कहा और कमरे की तरफ़ बढ़ गया। टीवी देखने लगा, अम्मी भी अपने काम में लग गईं…
करा कुछ भी, मगर पूरे दिन मन तो ना ही लगा। पूरे दिन मैं एक अजीब सी उलझन में पड़ा रहा और उस उलझन से बाहर आने की कोशिशें भी बेकार ही जा रही थीं…
फिर वही रात हुई, ये वही थी — पता नहीं, मगर थी तो रात ही।
रात यूँ तो काली ही होती है, मगर इस काले रंग को किसी ने और काला कर दिया था।
इसी तरह के और ऐसे सवाल आ रहे थे, जिनका या तो कोई जवाब नहीं था या अब वो सवाल नहीं थे…
इन सब ख़यालों के बीच मैं सो कैसे सकता था? तो तक़रीबन दो बजे मैंने बिस्तर का सहारा छोड़ दरवाज़े का रुख़ किया। ट्रक की आवाज़ें सुनाई पड़ने लगीं।
मैंने दरवाज़ा खोला और कुत्ते भौंकने लगे, मगर वो काटने वाले नहीं थे, मुझे पहचानते भी थे…
धीरे-धीरे मैं सड़क के गड्ढों से बचता हुआ हाइवे के उसी फुटपाथ पर आ पहुँचा और जब मैंने दूर से उसी टूटे फुटपाथ की ओर देखा तो दिल की आवाज़ — जो मुझे यहाँ तक लाई थी — उसी की ख़ातिर और चलने लगा।
चलते-चलते क़रीब आ गया — और उस जगह को क़रीब से देख मैं हैरान रह गया। वहाँ उसी तरह के एक घट्टर और पड़े थे —
ये वही लोग नहीं थे —
ये मानना मुश्किल था, मगर ये पूरी तौर पर नए भी नहीं थे —
बस इंसान बदल गए थे — हालात नहीं, जज़्बात नहीं…
वक़्त का चल-चल के वहीं आ जाना अजीब तो था — मगर इतना भी नहीं।
कुछ वक़्त ऐसे ही इधर-उधर के ख़यालों को इकट्ठा कर के — मैं भी घर लौट गया।
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