हिन्दी व्याकरण ड और ढ ठ वाले शब्द Radeef Qafiya Misra Shayari Mirza Rafi Sauda Shayariसाहित्य दुनिया

Jangal Short Story

रेलवे स्टेशन

बहुत देर से एक ट्रेन प्लेटफ़ॉर्म नंबर एक पर खड़ी थी, वो देर से ये सोच रही थी कि ये ट्रेन जब प्लेटफ़ॉर्म छोड़ेगी तो उसकी ट्रेन आएगी. हालाँकि उसका ध्यान ट्रेन से भी ज़्यादा फ़ोन पर था, बार-बार वो मोबाइल देखती..उसके चहरे पर ज़ाहिरी थकान थी लेकिन whatsapp मेसेज में कुछ तो ऐसा होता था कि वो मुस्कुरा देती थी. उसने एक बार ट्रेन की तरफ़ देखा,मोबाइल को अपने पैर पर ऐसे रोका कि मेसेज भी नज़र आये और मोबाइल गिरे भी ना, बैग से पानी की बोतल निकाली..मोबाइल पर नज़र रखते हुए उसने बोतल का ढक्कन हटाया,बोतल होंठों से लगाई, थोड़ा सा पानी पिया और मेसेज देखते-देखते बोतल बंद कर दी.
बैग-पैक को उसने अपनी पीठ पर किया और इन्क्वारी की तरफ़ बढ़ गयी…
“सद्भावना…सद्भावना..अरे यार अभी तो 6 बजे हैं..यहाँ तो इसका टाइम 9:10 दिखा रहा है..”, नोटिस बोर्ड देखते हुए उसने अपने आप से ही ये बातें कहीं और वापिस प्लेटफ़ॉर्म की ओर जाने लगी…अचानक उसकी नज़र बाहर की ओर पड़ी.शाम के ढलने की ख़ूबसूरती लिए जहाँ सूरज नज़र आ रहा था वहीँ कुछ लोग स्टेशन की ओर जल्दी जल्दी क़दम बढ़ा रहे थे,बाहर कुछ ऑटो वाले नज़र आ रहे थे जो सवारियों को अपनी ओर बुला रहे थे. जाने क्या सोच कर उसने अपना मोबाइल जीन्स की दायीं जेब में कर लिया और शहर की ओर बढ़ गयी.
सफ़ेद शर्ट, नीली जीन्स, बिखरे हुए बाल, और चहरे पर थकान लिए वो आगे बढ़ी..थोड़ी दूर चलकर उसे याद आया कि यहीं पास में कोई गली है जहाँ कोई ठीक-ठाक सी चाय देता है. कमर पर हाथ रख कर एक दफ़ा दाएँ और फिर बाएँ देखा, सड़क पार की..और बायीं ओर शराब की दुकानों से गुज़रते हुए उसे वो गली मिल गयी जहाँ उसने कभी चाय पी थी. बारीक सी पतली गली में छोटी-छोटी दुकानें जिसमें तरह-तरह के सामान बिक रहे थे, वो उन्हें देखती गयी…
“भैया, चाय मिलेगी क्या..”, बाहर से ही उसने दुकान के काउंटर पर खड़े आदमी से पूछा..
“हाँ जी बहन जी..आइये..बैठिये”
दुकान पर चढ़ने के लिए पत्थर था, उसने उस पत्थर पर पाँव रखा, चढ़ गयी और बेंच पर बैठ गयी.. “थोड़ा जल्दी करना”
जल्दी ही दुकानदार ने चाय उसके सामने रख दी… वो चाय पी रही थी, कुछ लोग कांग्रेस-भाजपा की बात कर रहे थे लेकिन कहीं पास से मुहम्मद रफ़ी की आवाज़ आ रही थी…. उसने ध्यान देना शुरू ही किया था कि गाने की आवाज़ बंद हो गयी, अचानक तेज़ आवाज़ हुई, वो चौंक गयी..देखा तो सामने का दुकानदार शटर बंद कर रहा था.. अगले ही पल अफ़रा-तफ़री का माहौल हो गया, लोग भाग रहे थे..
“क्या हुआ भैया?” उसने घबराहट में दुकानदार से पूछा..
“पता नहीं..” वो ये कह कर बाहर आया और अगले ही पल अन्दर आया.. “बहन जी..आप जाइए.. तुरंत यहाँ से निकालिए”
“क्या हुआ?”
“कुछ बवाल हुआ है, आप निकालिए..तुरंत, हम भी भाग रहे हैं”
वो पैसे निकालने लगी.. “जाने दीजिये, भागिए..भागो यहाँ से..”दुकानदार ने डांटने के अंदाज़ से कहा और उसे हल्के से कंधे पर धक्का दिया.. वो दुकान के बाहर आ गयी.. उसने उस पत्थर पर पैर रखा ही था कि उस चाय की दुकान का शटर बंद हो गया. उसने मुड़ कर एक बार देखा.
अभी जिस गली में भीड़ थी वहाँ सिर्फ़ सन्नाटा था..वो तेज़ चलना चाहती थी लेकिन वो कुछ समझ नहीं पा रही थी कि क्या हो रहा है.इतने में पीछे से कुछ लोगों के चीख़ने की आवाज़ आयी…

“मार डालो..मार डालो..”
उसने बस इतना ही सुना, जो कुछ वो कह रहे थे वो ना उसकी समझ आ रहा था ना वो सुन ही पा रही थी.. वो बेहिस उलटी दिशा में दौड़ने लगी पर वो भीड़ किसी बग़ल कटी गली में घुस गयी..
वो फिर भी आगे दौड़ती रही और गली के मोड़ पर आ गयी. सामने स्टेशन को जाने वाली सड़क थी लेकिन दाएँ एक पतली सी गली और थी..वो आगे बढ़ी ही थी कि एक अधेड़ उम्र के आदमी ने उसे रोक लिया..
“तुम कौन हो..?”
वो इस सवाल का जवाब देने की सोच ही रही थी कि पतली गली से एक और भीड़ चीख़ती हुई आ रही थी, इसके कपड़ों का रंग पहली भीड़ से अलग था, इसके नारे भी बिलकुल जुदा थे हाँ..बीच बीच में ये भी “मार डालो” कह रहे थे. अधेड़ उम्र के आदमी ने आती हुई भीड़ की ओर देखा और मुस्कुराया.. और फिर सवाल किया….
“ए.. लड़की..बता, हिन्दू है या मुसलमान?”

वो सोचने लगी कि क्या कहे, इतने में उस आदमी ने फिर भीड़ की ओर देखा.. मौक़ा पाते ही लड़की ने आदमी को ज़ोर से धक्का दिया, वो फिसल गया, वो ख़ुद भी गिरते-गिरते बची..लेकिन जल्दी से उसने ख़ुद को संभाला और अपने पिट्ठू बैग को ठीक कर वो पूरी ताक़त से स्टेशन की ओर दौड़ पड़ी…

उसने एक बार भी पीछे मुड़ कर नहीं देखा. भागते-भागते वो स्टेशन पहुंची तो कोई ट्रेन प्लेटफ़ॉर्म छोड़ रही थी, धीरे-धीरे रफ़्तार पकड़ रही ट्रेन को पकड़ने के लिए उसने पूरी जान लगा दी, वो तेज़ी से ट्रेन की ओर दौड़ रही थी… हिन्दू-मुस्लिम के शोर से सनी आवाज़ें उसके कानों में गूँज रही थीं, उसके पीछे एक भीड़ भी आ रही थी लेकिन वो पूरी ताक़त से ट्रेन की ओर दौड़ रही थी और किसी तरह उसने ट्रेन के हैंडल के सहारे ख़ुद को ट्रेन के अंदर किया और जल्दी से ट्रेन का दरवाज़ा बन्द कर दिया…

उसका दिल ज़ोर से धड़क रहा था, वो दरवाज़े के पास बैठ गई…दरवाज़े की खिड़की से उसने एक बार झाँका तो रात होने लगी थी और शहर के घने जंगल की आग तेज़ी से फैल रही थी….

(समाप्त)
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अरग़वान

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