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Premchand Ki Kahaniyan

Premchand Ki Kahaniyan ढपोरशंख- मुंशी प्रेमचंद
भाग-6

(Premchand Ki Kahaniyan अब तक आपने पढ़ा…लेखक यहाँ अपने एक मित्र ढपोरशंख की कहानी सुना रहे हैं। ढपोरशंख ने जब लेखक को अपने एक दोस्त के विषय में बताया तो उनकी पत्नी ने उस दोस्त करुणाकर को धोखेबाज़ कहा इस बात पर फ़ैसला करने के लिए लेखक को पाँच बनाकर लेखक को ढपोरशंख करुणाकर की कहानी बताने बैठे हैं।वो बताते हैं कि एक पुस्तक की समीक्षा को लिखने के अनुरोध के पत्र से शुरू हुआ ये सिलसिला करुणाकर के दुःख, दर्द और आपबीती के ख़तों के सिलसिले में बदल गया। ढपोरशंख और उनकी पत्नी करुणाकर की बातों से प्रभावित होकर उससे लगाव लगा बैठे और एक वक़्त नौकरी के सिलसिले में ज़रूरत पड़ने पर उसे सौ रुपए तार से देकर मदद तक की। फिर अपनी ज़िंदगी की आपाधापी से तंग आकर करुणाकर आख़िर ढपोरशंख के घर आ जाता है और उसे किसी होटल में व्यवस्था करने की ज़िम्मेदारी संभालनते हुए ढपोरशंख अपनी जेब से रुपए ख़र्च करता है इस आस में कि करुणाकर की तनख़्वाह आते ही वो लौटा देगा। इधर कुछ महीने होटल में रहने के बाद करुणाकर ढपोरशंख के दूसरे मित्र माथुर जिससे अब करुणाकर की भी अच्छी दोस्ती हो गयी थी उसके घर बसने का विचार करता है। वहाँ बसते ही वो रोज़ माथुर की व्यथा और दुःख भरी ज़िंदगी की कहानियाँ लेकर ढपोरशंख को सुनाने आने लगता है और एक रोज़ उसके लिए भी मदद के कुछ रुपए माँग ले जाता है। किसी तरह ढपोरशंख करुणाकर को अपने एक आगरा के मित्र के यहाँ लेखन के काम में जोड़ देता है, जाते हुए भी करुणाकर कुछ रुपए उधार ले जाता है। ढपोरशंख अब भी उस बात से व्यथित नहीं होता बल्कि सोचता है कि अपने आगरा वाले दोस्त से कहकर सीधे तनख़्वाह से एक किस्त अपनी उधार की रक़म वापसी के लिए रखने कह देगा। इसी बीच उसे कुछ ही रोज़ में करुणाकर नज़र आता है, उसे देखकर ढपोरशंख के मन में ख़याल आता है कि कहीं उसने बाक़ियों की तरह ये नौकरी भी तो नहीं छोड़ दी। वो उससे मिलकर हाल पूछता है। करुणाकर उन्हें बताता है कि वो बस उनसे मिलने चला आया है, बाद में वो ढपोरशंख से एक बार फिर रुपए माँगता है लेकिन ढपोरशंख मना कर देता है। कुछ दिनों बाद फिर करुणाकर आ जाता है और उन्हें बताता है कि किस तरह पहचान के एक वृद्ध ने मिलने पर अपने परिवार की बात छेड़ी और इसी बीच उस वृद्ध के सतह आयी उसकी कन्या का मंगेतर आकर उस वृद्ध से उलझ जाता है क्योंकि वो पुराने विचारों का है और उसे लड़कियों का इस तरह बाहर घूमना पसंद नहीं है। इसी बात पर तू-तू, मैं-मैं के बाद हाथापाई की नौबत आ जाती है। लोग बीचबचाव करके उन्हें छुड़ाते हैं। अब आगे….)

युवक बूढ़े बाबा से जाते-जाते कह गया – “तुम अपनी लड़की को वेश्या बनाकर बाज़ार में घुमाना चाहते हो, तो अच्छी तरह घुमाओ, मुझे अब उससे विवाह नहीं करना है”

वृद्ध चुपचाप खड़े थे और युवती रो रही थी। भाई साहब, तब मुझसे न रहा गया। मैंने कहा, “महाशय, आप मेरे पिता के तुल्य हैं और मुझे जानते हैं। यदि आप मुझे इस योग्य समझें तो मैं इन देवीजी को अपनी ह्रदयेश्वरी बनाकर अपने को धन्य समझूँगा। मैं जिस दशा में हूँ, आप देख रहे हैं। संभव है, मेरा जीवन इसी तरह कट जाय, लेकिन श्रद्धा, सेवा और प्रेम यदि जीवन को सुखी बना सकता है, तो मुझे विश्वास है कि देवी के प्रति मुझमें इन भावों की कमी न रहेगी”

बूढ़े बाबा ने गदगद होकर मुझे कंठ से लगा लिया। उसी क्षण मुझे अपने घर ले गये, भोजन कराया और विवाह का सगुन कर दिया। मैं एक बार युवती से मिलकर उसकी सम्मति लेना चाहता था। बूढ़े बाबा ने मुझे इसकी सहर्ष अनुमति दे दी। युवती से मिलकर मुझे ज्ञात हुआ, कि वह रमणियों में रत्न है। मैं उसकी बुद्धिमत्ता देखकर चकित हो गया। मैंने अपने मन में जिस सुन्दरी की कल्पना की थी, वह उससे हूबहू मिलती है, मुझे उतनी ही देर में विश्वास हो गया कि मेरा जीवन उसके साथ सुखी होगा। मुझे अब आशीर्वाद दीजिए। युवती आपकी पत्रिका बराबर पढ़ती है और आपसे उसे बड़ी श्रद्धा है। जून में विवाह होना निश्चित हुआ है। मैंने स्पष्ट कह दिया मैं जेवर-कपड़े नाममात्र को लाऊँगा, न कोई धूमधाम ही करूँगा। Premchand Ki Kahaniyan

वृद्ध ने कहा, मैं तो स्वयं यही कहनेवाला था। मैं कोई तैयारी नहीं चाहता, न धूमधाम की मुझे इच्छा है। जब मैंने आपका नाम लिया, कि वह मेरे बड़े के तुल्य हैं तो वह बहुत प्रसन्न हुए। आपके लेखों को वह बड़े आदर से देखते हैं।’

मैंने कुछ खिन्न होकर कहा, “यह तो सबकुछ है; लेकिन इस समय तुम्हें विवाह करने की सामर्थ्य भी नहीं है। और कुछ न हो, तो पचास रुपये की बँधी हुई आमदनी तो होनी ही चाहिए”

जोशी ने कहा, “भाई साहब, मेरा उद्धार विवाह ही से होगा। मेरे घर से निकलने का कारण भी विवाह ही था और घर वापस जाने का कारण भी विवाह ही होगा। जिस समय प्रमीला हाथ बाँधो हुए जाकर पिताजी के चरणों पर गिर पड़ेगी, उनका पाषाण ह्रदय भी पिघल जायगा। समझेंगे विवाह तो हो ही चुका, अब वधू पर क्यों जुल्म किया जाय। जब उसे आश्रय मिल जायगा, तो मुझे झक मारकर बुलायेंगे। मैं इसी ज़िद पर घर से निकला था, कि अपना विवाह अपने इच्छानुसार बिना कुछ लिये-दिये करूँगा और वह मेरी प्रतिज्ञा पूरी हुई जा रही है। प्रमीला इतनी चतुर है, कि वह मेरे घरवालों को चुटकियों में मना लेगी। मैंने तखमीना लगा लिया है। कुल तीन सौ रुपये खर्च होंगे और यही तीन-चार सौ रुपये मुझे ससुराल से मिलेंगे। मैंने सोचा है, प्रमीला को पहले यहीं लाऊँगा। यहीं से वह मेरे घर पत्र लिखेगी और आप देखिएगा तीसरे ही दिन चचा साहब गहनों की पिटारी लिये आ पहुँचेंगे। विवाह हो जाने पर वह कुछ नहीं कर सकते। इसलिए मैंने विवाह की ख़बर नहीं दी”

मैंने कहा, “लेकिन मेरे पास तो अभी कुछ भी नहीं है भाई। मैं तीन सौ रुपए कहाँ से लाऊँगा?”

जोशी ने कहा, “तीन सौ रुपये नकद थोड़े ही लगेंगे। कोई सौ रुपये के कपड़े लगेंगे। सौ रुपये की दो-एक सोहाग की चीजें बनवा लूँगा और सौ रुपये राह ख़र्च समझ लीजिए। उनका मकान काशीपुर में है। वहीं से विवाह करेंगे। यह बंगाली सोनार जो सामने है, आपके कहने से एक सप्ताह के वादे पर जो-जो चीजें माँगूँगा, दे देगा। बजाज भी आपके कहने से दे देगा। नकद मुझे कुल सौ रुपये की जरूरत पड़ेगी और ज्यों ही उधर से लौटा त्यों ही दे दूँगा। बारात में आप और माथुर के सिवा कोई तीसरा आदमी न होगा। आपको मैं कष्ट नहीं देना चाहता, लेकिन जिस तरह अब तक आपने मुझे भाई समझकर सहायता दी है, उसी तरह एक बार और दीजिए। मुझे विश्वास था, कि आप इस शुभ कार्य में आपत्ति न करेंगे। इसलिए मैंने वचन दे दिया। अब तो आपको यह डोंगी पार लगानी ही पड़ेगी”

देवीजी बोलीं- “मैं कहती थी उसे एक पैसा मत दो। कह दो हम तुम्हारी शादी-विवाह के झंझट में नहीं पड़ते”

ढपोरशंख ने कहा- “हाँ, तुमने अबकी बार ज़रूर समझाया, लेकिन मैं क्या करता। शादी का मुआमला; उस पर उसने मुझे भी घसीट लिया था। अपनी इज़्ज़त का कुछ ख़याल तो करना ही पड़ता है”

देवीजी ने मेरा लिहाज़ किया और चुप हो गईं।

अब मैं उस वृत्तान्त को न बढ़ाऊँगा। सारांश यह है, कि जोशी ने ढपोरशंख के मत्थे सौ रुपये के कपड़े और सौ रुपये से कुछ ऊपर के गहनों का बोझ लादा। बेचारे ने एक मित्र से सौ रुपये उधार लेकर उसके सफ़र ख़र्च को दिया। ख़ुद ब्याह में शरीक हुए। ब्याह में ख़ासी धूमधाम रही। कन्या के पिता ने मेहमानों का आदर-सत्कार ख़ूब किया। उन्हें जल्दी थी; इसलिए वह ख़ुद तो दूसरे ही दिन चले आये; पर माथुर जोशी के साथ विवाह के अन्त तक रहा। ढपोरशंख को आशा थी, कि जोशी ससुराल के रुपये पाते ही माथुर के हाथों भेज देगा, या ख़ुद लेता आयेगा। मगर माथुर भी दूसरे दिन आ गये, ख़ाली हाथ और यह ख़बर लाये कि जोशी को ससुराल में कुछ भी हाथ नहीं लगा। माथुर से उन्हें अब मालूम हुआ कि लड़की से जमुना-तट पर मिलने की बात सर्वथा निर्मूल थी। इस लड़की से जोशी बहुत दिनों तक पत्र-व्यवहार करता रहा था। फिर तो ढपोरशंख के कान खड़े हो गये।

क्रमशः Premchand Ki Kahaniyan

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