लहू-लुहान नज़ारों का ज़िक्र आया तो
शरीफ़ लोग उठे दूर जा के बैठ गए
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तू किसी रेल सी गुज़रती है
मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ
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कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए
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ज़िंदगी जब अज़ाब होती है
आशिक़ी कामयाब होती है
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तुम्हारे पावँ के नीचे कोई ज़मीन नहीं
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं
रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया
इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो
कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीअ’त से उछालो यारो
लोग कहते थे कि ये बात नहीं कहने की
तुमने कह दी है तो कहने की सज़ा लो यारो
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नज़र-नवाज़ नज़ारा बदल न जाए कहीं
ज़रा सी बात है मुँह से निकल न जाए कहीं
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मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए
हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मिरा मक़्सद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
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ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दोहरा हुआ होगा
मैं सज्दे में नहीं था आपको धोका हुआ होगा
यहाँ तक आते आते सूख जाती है कई नदियाँ
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा
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तिरा निज़ाम है सिल दे ज़बान-ए-शायर को
ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए
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मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ
वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ
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न हो क़मीज़ तो पाँव से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए
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देखे हैं हमने दौर कई अब ख़बर नहीं
पावँ तले ज़मीन है या आसमान है
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वो आदमी मिला था मुझे उसकी बात से
ऐसा लगा कि वो भी बहुत बे-ज़बान है
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ये सोच कर कि दरख़्तों में छाँव होती है
यहाँ बबूल के साए में आ के बैठ गए
Dushyant Kumar Best Lines