फ़ानी बदायूँनी की ग़ज़ल: हम मौत भी आए तो मसरूर नहीं होते
Hum Maut Bhi Aaye to Masroor Nahin Hote
हम मौत भी आए तो मसरूर नहीं होते,
मजबूर-ए-ग़म इतने भी मजबूर नहीं होते
दिल ही में नहीं रहते आँखों में भी रहते हो,
तुम दूर भी रहते हो तो दूर नहीं होते
पड़ती हैं अभी दिल पर शरमाई हुई नज़रें,
जो वार वो करते हैं भरपूर नहीं होते
उम्मीद के वा’दों से जी कुछ तो बहलता था,
अब ये भी तिरे ग़म को मंज़ूर नहीं होते
अरबाब-ए-मोहब्बत पर तुम ज़ुल्म के बानी हो,
ये वर्ना मोहब्बत के दस्तूर नहीं होते
है इश्क़ तिरा ‘फ़ानी’ तश्हीर भी शोहरत भी,
रुस्वा-ए-मोहब्बत यूँ मशहूर नहीं होते
[रदीफ़- नहीं होते]
[क़ाफ़िए- मसरूर, मजबूर, दूर, भरपूर, मंज़ूर, दस्तूर, मश’हूर]
** मसरूर- ख़ुश, अरबाब ए मुहब्बत- मुहब्बत से जुड़े हुए, बानी- कोई काम शुरू’अ करने वाला
Hum Maut Bhi Aaye to Masroor Nahin Hote
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राहत इन्दौरी की ग़ज़ल: दोस्ती जब किसी से की जाए
दोस्ती जब किसी से की जाए,
दुश्मनों की भी राय ली जाए
मौत का ज़हर है फ़ज़ाओं में,
अब कहाँ जा के साँस ली जाए
बस इसी सोच में हूँ डूबा हुआ,
ये नदी कैसे पार की जाए
लफ़्ज़ धरती पे सर पटकते हैं,
गुम्बदों में सदा ना दी जाए
अगले वक़्तों के ज़ख़्म भरने लगे,
आज फिर कोई भूल की जाए
कह दो इस अहद के बुज़ुर्गों से,
ज़िंदगी की दुआ ना दी जाए
बोतलें खोल के तो पी बरसों,
आज दिल खोल कर ही पी जाए
[रदीफ़- जाए]
[क़ाफ़िए- की, ली, ली, की, दी, की, दी, पी]
*दोनों ग़ज़लों का पहला शे’र मतला है. मत’ला उस शे’र को कहते हैं जिसके दोनों मिसरों में रदीफ़-क़ाफ़िए की पाबंदी हो.
*फ़ोटो क्रेडिट (फ़ीचर्ड इमेज)- नेहा शर्मा