दो शा’इर, दो ग़ज़लें सीरीज़ में हम आज आपके सामने जिगर मुरादाबादी और इरफ़ान सिद्दीक़ी की ग़ज़लें पेश कर रहे हैं. Humko Mita Sake Ye Zamane Mein Dum Nahin (Jigar), Mujhe bacha bhi liya chhoR kar chala bhi gaya (Irfan Siddiqui)
जिगर मुरादाबादी (Jigar Moradabadi) की ग़ज़ल (Ghazal) : हमको मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं
हमको मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं,
हमसे ज़माना ख़ुद है ज़माने से हम नहीं
बे-फ़ायदा अलम नहीं बेकार ग़म नहीं,
तौफ़ीक़ दे ख़ुदा तो ये नेमत भी कम नहीं
मेरी ज़बाँ पे शिकवा-ए-अहल-ए-सितम नहीं,
मुझको जगा दिया यही एहसान कम नहीं
शिकवा तो एक छेड़ है लेकिन हक़ीक़तन,
तेरा सितम भी तेरी इनायत से कम नहीं
मिलता है क्यूँ मज़ा सितम-ए-रोज़गार में,
तेरा करम भी ख़ुद जो शरीक-ए-सितम नहीं
मर्ग-ए-‘जिगर‘ पे क्यूँ तिरी आँखें हैं अश्क-रेज़,
इक सानेहा सही मगर इतना अहम नहीं
……………………………………… Humko Mita Sake Ye Zamane Mein Dum Nahin
[रदीफ़- नहीं]
[क़ाफ़िया- दम, हम, ग़म, कम, सितम, कम, कम, सितम, अहम्]
[इस ग़ज़ल में पहले तीन शे’र मत’ला हैं क्यूंकि इनके दोनों मिसरों में रदीफ़ और क़ाफ़िये की पाबंदी रखी गयी है. अक्सर ये देखा जाता है कि शा’इर अपनी ग़ज़ल में एक ही मत’ला रखता है और मत’ले को वो पहला शे’र मान कर पढ़ता है लेकिन एक ग़ज़ल में कई मत’ले हो सकते हैं.]
इरफ़ान सिद्दीक़ी (Irfan Siddiqui) की ग़ज़ल (Ghazal) : मुझे बचा भी लिया छोड़ कर चला भी गया Mujhe bacha bhi liya chhoR kar chala bhi gaya (Irfan Siddiqui)
मुझे बचा भी लिया छोड़ कर चला भी गया,
वो मेहरबाँ पस-ए-गर्द-ए-सफ़र चला भी गया
वगर्ना तंग न थी इश्क़ पर ख़ुदा की ज़मीं,
कहा था उस ने तो मैं अपने घर चला भी गया
कोई यक़ीं न करे मैं अगर किसी को बताऊँ,
वो उँगलियाँ थीं कि ज़ख़्म-ए-जिगर चला भी गया
मिरे बदन से फिर आई गए दिनों की महक,
अगरचे मौसम-ए-बर्ग-ओ-समर चला भी गया
हवा की तरह न देखी मिरी ख़िज़ाँ की बहार,
खिला के फूल मिरा ख़ुश-नज़र चला भी गया
अजीब रौशनियाँ थीं विसाल के उस पार,
मैं उस के साथ रहा और उधर चला भी गया
[रदीफ़- चला भी गया]
[क़ाफ़िये- कर, सफर, घर, जिगर, समर, नज़र, उधर]
[इस ग़ज़ल में पहला शे’र मत’ला है क्यूंकि पहले शे’र के मिसरा-ए-ऊला और मिसरा-ए-सानी दोनों में रदीफ़ और क़ाफ़िये की पाबंदी रखी गयी है]