Munshi Premchand Story Dhaporshankh ढपोरशंख- मुंशी प्रेमचंद
भाग-2
(अब तक आपने पढ़ा…लेखक अपने मित्र के बारे में बताते हैं जिन्हें वो रत्न मानते हैं लेकिन ढपोरशंख कहकर बुलाते हैं क्योंकि उनके मित्र भले ही अभावों में रह लें लेकिन न किसी के सामने हाथ फैलाते हैं और न ही अपनी ग़रीबी का रोना रोते। अगर कोई उन्हें बच्चों के बहाने कोई उपहार या रुपए दे भी दे तो वो उसका दुगुना ही लौटा देते हैं। लेखक बताते हैं कि वो भी उनके घर जाकर इस तरह के फ़ायदे उठाते रहते हैं। इसी तरह वो उनके घर पहुँचते हैं और वहाँ अपने मित्र के सामने ढेर सारे ख़तों का अंबार देखकर उन्हें आश्चर्य होता है। पूछने पर उन्हें पता चलता है कि ये ख़त उनके एक नए मित्र ने लिखे हैं जिन्हें मित्र की पत्नी धोखेबाज़ बताती हैं और मित्र ग़रीबी का मारा हुआ। आख़िर वो इनमें से क्या है इस बात का फ़ैसला करने का निर्णय लेखक के पास रखा जाता है और उन्हें पाँच बनाया जाता है। इस पंचायत से पहले खाने का प्रबंध किया जाता है इसी बीवह लेखक के ढपोरशंख मित्र उनसे दोस्ती का वास्ता देकर ये बात मनवा लेते हैं कि वो उनके पक्ष में ही फ़ैसला दें। किसी तरह लेखक इस बात पर राज़ी हो जाते हैं। जब बात शुरू होती है तो बताया जाता है कि वो एक इंसान है जिसने पहले ढपोरशंख को ख़त लिखकर एक ड्रामे की भूमिका लिखने की बात की गयी होती है। बाद में वो इंसान यानी करुणाकर उन्हें अपनी व्यथा और आप बीती ख़त में लिखकर बताने लगता है जिससे ढपोरशंख का उसके प्रति लगाव होते जाता है। अब आगे…) Munshi Premchand Story Dhaporshankh
प्रयाग में वह ज्यादा न ठहर सका। उसने मुझे लिखा, मैं सब कुछ झेलने को तैयार हूँ, भूखों मरने को तैयार हूँ पर आत्मसम्मान में दाग़ नहीं लगा सकता, कुवचन नहीं सह सकता। ऐसा चरित्र यदि आप पर प्रभाव न डाल सके, तो मैं कहूँगा, आप चालाक चाहे जितने हों पर ह्रदय-शून्य हैं। एक सप्ताह के बाद प्रयाग से फिर पत्र आया यह व्यवहार मेरे लिए असह्य हो गया। आज मैंने इस्तीफ़ा दे दिया। यह न समझिए कि मैंने हलके दिल से लगी-लगाई रोज़ी छोड़ दी। मैंने वह सब किया, जो मुझे करना चाहिए था। यहाँ तक कि कुछ-कुछ वह भी किया, जो मुझे न करना चाहिए था; पर आत्मसम्मान का ख़ून नहीं कर सकता। अगर यह कर सकता, तो मुझे घर छोड़कर निकलने की क्या आवश्यकता थी। मैंने बम्बई जाकर अपनी क़िस्मत आज़माने का निश्चय किया है। मेरा दृढ़ संकल्प है कि अपने घरवालों के सामने हाथ न फैलाऊँगा, उनसे दया की भिक्षा न माँगूँगा। मुझे कुलीगिरी करनी मंज़ूर है, टोकरी ढोना मंज़ूर है; पर अपनी आत्मा को कलंकित नहीं कर सकता।
मेरी श्रद्धा और बढ़ गई। यह व्यक्ति अब मेरे लिए केवल ड्रामा का चरित्र न था, जिसके सुख से सुखी और दुख से दुखी होने पर भी हम दर्शक ही रहते हैं। वह अब मेरे इतने निकट पहुँच गया था, कि उस पर आघात होते देखकर मैं उसकी रक्षा करने को तैयार था, उसे डूबते देखकर पानी में कूदने से भी न हिचकता। मैं बड़ी उत्कंठा से उसके बंबई से आने वाले पत्र का इंतजार करने लगा। छठवें दिन पत्र आया। वह बंबई में काम खोज रहा था, लिखा था घबड़ाने की कोई बात नहीं है, मैं सबकुछ झेलने को तैयार हूँ। फिर दो-दो, चार-चार दिन के अन्तर से कई पत्र आये। वह वीरों की भाँति कठिनाइयों के सामने कमर कसे खड़ा था, हालाँकि तीन दिन से उसे भोजन न मिला था।
ओह ! कितना ऊँचा आदर्श है। कितना उज्ज्वल चरित्र ! मैं समझता हूँ, मैंने उस समय बड़ी कृपणता की। मेरी आत्मा ने मुझे धिक्कारा यह बेचारा इतने कष्ट उठा रहा है और तुम बैठे देख रहे हो। क्यों उसके पास कुछ रुपये नहीं भेजते ? मैंने आत्मा के कहने पर अमल न किया, पर अपनी बेदर्दी पर खिन्न अवश्य था। जब कई दिन की बेचैनी भरे हुए इन्तजार के बाद यह समाचार आया, कि वह एक साप्ताहिक पत्र के सम्पादकीय विभाग में जगह पा गया है, तो मैंने आराम की साँस ली और ईश्वर को सच्चे दिल से धन्यवाद दिया। साप्ताहिक में जोशी के लेख निकलने लगे। उन्हें पढ़कर मुझे गर्व होता था। कितने सजीव, कितने विचार से भरे लेख थे। उसने मुझसे भी लेख माँगे; पर मुझे अवकाश न था। क्षमा माँगी, हालाँकि इस अवसर पर उसको प्रोत्साहन न देने पर मुझे बड़ा खेद होता था। लेकिन शायद बाधाएँ हाथ धोकर उसके पीछे पड़ी थीं। Munshi Premchand Story Dhaporshankh
पत्र के ग्राहक कम थे। चन्दे और डोनेशन से काम चलता था। रुपये हाथ आ जाते, तो कर्मचारियों को थोड़ा-थोड़ा मिल जाता, नहीं आसरा लगाये काम करते रहते। इस दशा में ग़रीब ने तीन महीने काटे होंगे। आशा थी, तीन महीने का हिसाब होगा, तो अच्छी रक़म हाथ लगेगी; मगर वहाँ सूखा जवाब मिला। स्वामी ने टाट उलट दिया, पत्र बन्द हो गया और कर्मचारियों को अपना-सा मुँह लिये विदा होना पड़ा। स्वामी की सज्जनता में सन्देह नहीं; लेकिन रुपये कहाँ से लाता ! सज्जनता के नाते लोग आधे वेतन पर काम कर सकते थे लेकिन पेट बाँधकर काम करना कब मुमकिन था। और फिर बम्बई का ख़र्च। बेचारे जोशी को फिर ठोकरें खानी पड़ीं ! मैंने ख़त पढ़ा, तो बहुत दु:ख हुआ। ईश्वर ने मुझे इस योग्य न बनाया, नहीं बेचारा क्यों पेट के लिए यों मारा-मारा फिरता।
अबकी बार बहुत हैरान न होना पड़ा। किसी मिल में गाँठों पर नम्बर लिखने का काम मिल गया। एक रुपया रोज़ मजूरी थी। बम्बई में एक रुपया, इधर के चार आने बराबर समझो ! कैसे उसका काम चलता था, ईश्वर ही जाने।
कई दिन के बाद एक लम्बा पत्र आया। एक जर्मन एजेंसी उसे रखने पर तैयार थी; अगर तुरन्त सौ रुपये की जमानत दे सके। एजेंसी यहाँ की फ़ौजों में जूते, सिगार, साबुन आदि सप्लाई करने का काम करती थी। अगर यह जगह मिल जाती, तो उसके दिन आराम से कटने लगते। लिखा था, अब ज़िंदगी से तंग आ गया हूँ। हिम्मत ने जवाब दे दिया। आत्महत्या करने के सिवा और कोई उपाय नहीं सूझता। केवल माताजी की चिन्ता है। रो-रोकर प्राण दे देंगी ! पिताजी के साथ उन्हें शारीरिक सुखों की कमी नहीं; पर मेरे लिए उनकी आत्मा तड़पती रहती है। मेरी यही अभिलाषा है, कि कहीं बैठने का ठिकाना मिल जाता, तो एक बार उन्हें अपने साथ रखकर उनकी जितनी सेवा हो सकती, करता। इसके सिवा मुझे कोई इच्छा नहीं है; लेकिन जमानत कहाँ से लाऊँ ? बस, कल का दिन और है। परसों कोई दूसरा उम्मीदवार जमानत देकर यह ले लेगा और मैं ताकता रह जाऊँगा।
एजेंट मुझे रखना चाहता है; लेकिन अपने कार्यालय के नियमों को क्या करे। इस पत्र ने मेरी कृपण प्रकृति को भी वशीभूत कर लिया। इच्छा हो जाने पर कोई-न-कोई राह निकल आती है। मैंने रुपये भेजने का निश्चय कर लिया। अगर इतनी मदद से एक युवक का जीवन सुधार रहा हो, तो कौन ऐसा है, जो मुँह छिपा ले। इससे बड़ा रुपयों का और क्या सदुपयोग हो सकता है। हिन्दी में क़लम घिसनेवालों के पास इतनी बड़ी रक़म ज़रा मुश्किल ही से निकलती; पर संयोग से उस वक़्त मेरे कोष में रुपये मौजूद थे। मैं इसके लिए अपनी कृपणता का ऋणी हूँ। देवीजी की सलाह ली। वह बड़ी ख़ुशी से राज़ी हो गईं; हालाँकि अब सारा दोष मेरे ही सिर मढ़ा जाता है।
क्रमशःMunshi Premchand Story Dhaporshankh