मई दिवस पर साहित्य दुनिया की ओर से पाठकों के लिए पेश कर रहे हैं सलाम मछली शहरी की मशहूर नज़्म “सड़क बन रही है”. Salam Machhlishahri Ki Nazm
मई के महीने का मानूस मंज़र
ग़रीबों के साथी ये कंकर ये पत्थर
वहाँ शहर से एक ही मील हट कर
सड़क बन रही है
ज़मीं पर कुदालों को बरसा रहे हैं
पसीने पसीने हुए जा रहे हैं
मगर इस मशक़्क़त में भी गा रहे हैं
सड़क बन रही है
मुसीबत है कोई मसर्रत नहीं है
उन्हें सोचने की भी फ़ुर्सत नहीं है
जमादार को कुछ शिकायत नहीं है
सड़क बन रही है
जवाँ नौजवाँ और ख़मीदा कमर भी
फ़सुर्दा जबीं भी बहिश्त-ए-नज़र भी
वहीं शाम-ए-ग़म भी जमाल-ए-सहर भी
सड़क बन रही है
जमादार साए में बैठा हुआ है
किसी पर उसे कुछ इताब आ गया है
किसी की तरफ़ देख कर हँस रहा है
सड़क बन रही है
ये बेबाक उल्फ़त पर अल्हड़ इशारा
बसंती से रामू तो रामू से राधा
जमादार भी है बसंती का शैदा
सड़क बन रही है
जो सर पे है पगड़ी तो हाथों में हंटर
चला है जमादार किस शान से घर
बसंती भी जाती है नज़रें बचा कर
सड़क बन रही है
समझते हैं लेकिन हैं मसरूर अब भी
उसी तरह गाते हैं मज़दूर अब भी
बहरहाल वाँ हस्ब-ए-दस्तूर अब भी
सड़क बन रही है
सड़क बन रही है…
Salam Machhlishahri Ki Nazm