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Ghalib ka khat .. मिर्ज़ा ग़ालिब परवीन शाकिर Urdu Shayari Shabd Ghalib Shayari Parveen Shakir Shayari Top Urdu Shayari Ghalib Ke Khat Ghalib Ke Baare MeinGhalib

Ghalib Ke Khat : मिर्ज़ा ग़ालिब (Mirza Ghalib) की शा’इरी के तो सभी दीवाने हैं लेकिन बात नस्र की करें तो उसमें भी ग़ालिब अव्वल ही आते हैं. उनके बारे में फ़िराक़ गोरखपुरी अपनी किताब ‘उर्दू भाषा और साहित्य’ में लिखते हैं,”ग़ालिब से पहले फ़ारसी के ढंग पर उर्दू के मुंशी लोग बनावटी और भारी भरकम ढंग से पत्र लिखा करते थे. आधा पत्र तो अलक़ाबो-आदाब में ही निकल जाता था, उसमें तरह-तरह के रूपकों और उपमाओं से काम लिया जाता था.

शेष पत्र में भी जो कुछ तथ्य होता था, वह साहित्यिकता के जंगल में ऐसा फँसा होता था कि मुंशी लोग ही ख़त लिख पाते थे और मुंशी ही उन्हें पढ़कर मतलब की बात निकाल पाते थे.भाषा 10 में से 9 भाग अरबी-फ़ारसी होती थी, एक भाग उर्दू….ग़ालिब ने इस तरीक़े को बिलकुल छोड़ दिया. अनजाने में कभी-कभी तुकांत वाक्य या वाक्यांश उनकी लेखनी से भी निकल जाते हैं और फ़ारसी के शब्द भी उनके पत्रों में अधिक हैं (जो स्वाभाविक ही है, क्यूँकि वे सबसे पहले फ़ारसी में ही सोचते थे). इन दो बातों के अलावा उनके पत्र पुराने पत्रों से बिलकुल अलग हैं. अलक़ाबो-आदाब में संतरे की संतरे रंगने की बजाय वे ‘मुश्फ़िक़;, ‘मेरे शफ़ीक’, ‘मेरी जान’,’सय्यद साहब’ आदि से आरम्भ कर देते हैं….. बात जो कहनी होती थी उसे संक्षिप्त शब्दों में कहते थे लेकिन कुछ इस तरह से कहते थे कि शुष्कता बिलकुल न रहती थी और मालूम होता था कि छेड़-छाड़ के ढंग से बातें कर रहे हैं. अंत भी ऐसा ही संक्षिप्त होता था.”

मुंशी हरगोपाल ‘तफ़्ता’ के नाम मिर्ज़ा ग़ालिब का ख़त…

“बस अब तुम इस्कंदराबाद में रहे, कहीं और क्यूँ जाओगे! बंक घर का रूपया खा चुके हो, अब कहाँ से खाओगे? मियाँ! न मेरे समझाने को दख़्ल है न समझने की जगह. एक ख़र्च है कि वह चला जाता है, जो कुछ होना है वह हुआ जाता है. इख़्तयार हो तो कुछ किया जाए, कहने की जगह हो तो कहा जाए. मुझको देखो, न आज़ाद हूँ न मुक़य्यद, न रंजूर हूँ न तंदरुस्त, न ख़ुश हूँ न नाख़ुश, न मुर्दा हूँ न ज़िन्दा. जिए जाता हूँ, बातें किये जाता हूँ, रोटी रोज़ खाता हूँ, शराब गाह-ब-गाह पिए जाता हूँ. जब मौत आएगी मर भी रहूँगा. न शुक्र है, न शिकायत, जो तक़रीर है बस बीले-हिकायत है.”

Ghalib Ke Khat
मीर मेंहदी के नाम मिर्ज़ा ग़ालिब का ख़त..
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