Mother’s Day Special: ज़हरा निगाह की नज़्म “डाकू”…

Zehra Nigah Ki Nazm Daku

“मातृ दिवस” (Mothers Day) के मौक़े पर हम अपने पाठकों के लिए ज़हरा निगाह की नज़्म “डाकू” (Zehra Nigah Ki Nazm Daku) पेश कर रहे हैं. ये नज़्म माँ-बेटे के रिश्ते को माँ की नज़र से दिखाने की कोशिश करती है. ज़हरा निगाह की नज़्म: डाकू कल रात मिरा बेटा मिरे घर, चेहरे पे मंढे … Read more

इस उम्मीद पे रोज़ चराग़ जलाते हैं…ज़हरा निगाह

Zehra Nigah न वाले शब्द

Zehra Nigah इस उम्मीद पे रोज़ चराग़ जलाते हैं आने वाले बरसों ब’अद भी आते हैं हमने जिस रस्ते पर उसको छोड़ा है फूल अभी तक उस पर खिलते जाते हैं दिन में किरनें आँख-मिचोली खेलती हैं रात गए कुछ जुगनू मिलने जाते हैं देखते-देखते इक घर के रहने वाले अपने अपने ख़ानों में बट … Read more

14 साल की उम्र से शुरू’अ हुआ ज़हरा निगाह की शा’इरी का सफ़र…

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Zehra Nigah Shayari

“हिकायत ए ग़म ए दुनिया तवील थी कह दी,
हिकायत ए ग़म ए दिल मुख़्तसर है क्या कहिये”

ज़हरा निगाह का ये शे’र अपने आप में बहुत कुछ कह देता है. कहते हैं कि शा’इरा/शा’इर जो बातें शा’इरी के ज़रिये कहती/कहता है वो असल में कहीं ना कहीं ज़िन्दगी की उधेड़बुन का हिस्सा होता है. कुछ ऐसी बातें जो हम कह नहीं पाते वो हम लिखते हैं और कुछ इस तरह से कि बात अपनी होके भी अपनी ना लगे. ज़हरा निगाह की शा’इरी कुछ इसी तरह से है, इंसान के मासूम जज़्बात को जितनी मासूमियत से ज़हरा अपनी शा’इरी में शामिल करती हैं वो इस दौर के कम ही शा’इर कर पाते हैं.

ज़हरा निगाह का जन्म 14 मई 1937 को हैदराबाद में हुआ था. ज़हरा के पिता सिविल सर्वेंट थे और उन्हें शा’इरी का ख़ूब शौक़ था. 1922 के दौर में उनके घर में इक़बाल, मख़्दूम, फै़ज़ और मजाज़ जैसे शा’इरों की बैठकें लगती थीं, अदब पर ख़ूब चर्चा हुआ करती थी. वो कहती हैं कि academics, शा’इरी और संगीत ने मेरे घर को पूरा किया था. ज़हरा ने एक इंटरव्यू में बताया कि उनकी माँ संगीत सीखा करती थीं और उनके उस्ताद उन्हें पर्दे के पीछे से संगीत सिखाते थे. फ्रंटलाइन मैगज़ीन के मुताबिक़ वो कहती हैं कि उनके नाना बच्चों से कहते थे कि हाली और इक़बाल के अश’आर का सही अर्थ, उच्चारण और बोलने का तरीक़ा याद करो. उन्होंने बताया कि उनके नाना कहते थे,”अगर तुम इक़बाल की ‘जवाब ए शिकवा’ या ‘मुसद्दस ए हाली’ याद कर लोगे तो तुम्हें 5 रूपये मिलेंगे’ और हम सारी ताक़त से उन्हें याद करने लगते थे. ज़हरा ने बताया कि जब वो चार साल की थीं तभी उनका तलफ़्फु़ज़ ठीक हो गया था और 14 की उम्र तक तो उन्होंने कई शा’इरों की उत्कृष्ट रचनाओं को याद कर लिया था.

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