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1

Tehzeeb Hafi Ki Shayari

तेरा चुप रहना मिरे ज़ेहन में क्या बैठ गया Tehzeeb Hafi Ki Shayari
इतनी आवाज़ें तुझे दीं कि गला बैठ गया

यूँ नहीं है कि फ़क़त मैं ही उसे चाहता हूँ
जो भी उस पेड़ की छाँव में गया बैठ गया

इतना मीठा था वो ग़ुस्से भरा लहजा मत पूछ
उस ने जिस जिसको भी जाने का कहा बैठ गया

अपना लड़ना भी मुहब्बत है तुम्हें इल्म नहीं
चीख़ती तुम रही और मेरा गला बैठ गया

उसकी मर्ज़ी वो जिसे पास बिठा ले अपने
इस पे क्या लड़ना फुलाँ मेरी जगह बैठ गया

बात दरियाओं की सूरज की न तेरी है यहाँ
दो क़दम जो भी मिरे साथ चला बैठ गया

बज़्म-ए-जानाँ में नशिस्तें नहीं होतीं मख़्सूस
जो भी इक बार जहाँ बैठ गया बैठ गया

Tehzeeb Hafi Ki Shayari: 2

किसे ख़बर है कि उम्र बस उसपे ग़ौर करने में कट रही है
कि ये उदासी हमारे जिस्मों से किस ख़ुशी में लिपट रही है

अजीब दुख है हम उसके हो कर भी उसको छूने से डर रहे हैं
अजीब दुख है हमारे हिस्से की आग औरों में बंट रही है

मैं उसको हर रोज़ बस यही एक झूठ सुनने को फ़ोन करता
सुनो यहाँ कोई मसअला है तुम्हारी आवाज़ कट रही है

मुझ ऐसे पेड़ों के सूखने और सब्ज़ होने से क्या किसी को
ये बेल शायद किसी मुसीबत में है जो मुझसे लिपट रही है

ये वक़्त आने पे अपनी औलाद अपने अज्दाद बेच देगी
जो फ़ौज दुश्मन को अपना सालार गिरवी रख कर पलट रही है

सो इस तअ’ल्लुक़ में जो ग़लत-फ़हमियाँ थीं अब दूर हो रही हैं
रुकी हुई गाड़ियों के चलने का वक़्त है धुंध छट रही है

3

पराई आग पे रोटी नहीं बनाऊँगा
मैं भीग जाऊँगा छतरी नहीं बनाऊँगा

अगर ख़ुदा ने बनाने का इख़्तियार दिया
अलम बनाऊँगा बर्छी नहीं बनाऊँगा

फ़रेब दे के तिरा जिस्म जीत लूँ लेकिन
मैं पेड़ काट के कश्ती नहीं बनाऊँगा

गली से कोई भी गुज़रे तो चौंक उठता हूँ
नए मकान में खिड़की नहीं बनाऊँगा

मैं दुश्मनों से अगर जंग जीत भी जाऊँ
तो उनकी औरतें क़ैदी नहीं बनाऊँगा

तुम्हें पता तो चले बे-ज़बान चीज़ का दुख
मैं अब चराग़ की लौ ही नहीं बनाऊँगा

मैं एक फ़िल्म बनाऊँगा अपने ‘सरवत’ पर
और इस में रेल की पटरी नहीं बनाऊँगा

(आख़िरी शेर में मशहूर शाइर ‘सर्वत हुसैन’ के साथ हुए ट्रेन हादसे का ज़िक्र है)

Tehzeeb Hafi Ki Shayari: 4

ये एक बात समझने में रात हो गई है
मैं उससे जीत गया हूँ कि मात हो गई है

मैं अब के साल परिंदों का दिन मनाऊँगा
मिरी क़रीब के जंगल से बात हो गई है

बिछड़ के तुझसे न ख़ुश रह सकूँगा सोचा था
तिरी जुदाई ही वज्ह-ए-नशात हो गई है

बदन में एक तरफ़ दिन तुलूअ’ मैंने किया
बदन के दूसरे हिस्से में रात हो गई है

मैं जंगलों की तरफ़ चल पड़ा हूँ छोड़ के घर
ये क्या कि घर की उदासी भी साथ हो गई है

रहेगा याद मदीने से वापसी का सफ़र
मैं नज़्म लिखने लगा था कि ना’त हो गई है

5

जब उसकी तस्वीर बनाया करता था
कमरा रंगों से भर जाया करता था

पेड़ मुझे हसरत से देखा करते थे
मैं जंगल में पानी लाया करता था

थक जाता था बादल साया करते करते
और फिर मैं बादल पे साया करता था

बैठा रहता था साहिल पे सारा दिन
दरिया मुझ से जान छुड़ाया करता था

बिंत-ए-सहरा रूठा करती थी मुझसे
मैं सहरा से रेत चुराया करता था

Tehzeeb Hafi Ki Shayari: 6

इक तिरा हिज्र दाइमी है मुझे
वर्ना हर चीज़ आरज़ी है मुझे

एक साया मिरे तआक़ुब में
एक आवाज़ ढूँडती है मुझे

मेरी आँखों पे दो मुक़द्दस हाथ
ये अंधेरा भी रौशनी है मुझे

मैं सुख़न में हूँ उस जगह कि जहाँ
साँस लेना भी शाइरी है मुझे

इन परिंदों से बोलना सीखा
पेड़ से ख़ामुशी मिली है मुझे

मैं उसे कब का भूल-भाल चुका
ज़िंदगी है कि रो रही है मुझे

मैं कि काग़ज़ की एक कश्ती हूँ
पहली बारिश ही आख़िरी है मुझे

7

ज़ख़्मों ने मुझमें दरवाज़े खोले हैं
मैंने वक़्त से पहले टाँके खोले हैं

बाहर आने की भी सकत नहीं हम में
तू ने किस मौसम में पिंजरे खोले हैं

बरसों से आवाज़ें जमती जाती थीं
ख़ामोशी ने कान के पर्दे खोले हैं

कौन हमारी प्यास पे डाका डाल गया
किस ने मश्कीज़ों के तस्मे खोले हैं

वर्ना धूप का पर्बत किससे कटता था
उस ने छतरी खोल के रस्ते खोले हैं

ये मेरा पहला रमज़ान था उस के बग़ैर
मत पूछो किस मुँह से रोज़े खोले हैं

यूँ तो मुझको कितने ख़त मौसूल हुए
इक दो ऐसे थे जो दिल से खोले हैं

मन्नत मानने वालों को मालूम नहीं
किस ने आ कर पेड़ से धागे खोले हैं

दरिया बंद किया है कूज़े में ‘तहज़ीब’
इक चाबी से सारे ताले खोले हैं

Tehzeeb Hafi Ki Shayari: 8

सो रहेंगे कि जागते रहेंगे
हम तिरे ख़्वाब देखते रहेंगे

तू कहीं और ढूँढता रहेगा
हम कहीं और ही खिले रहेंगे

राहगीरों ने रह बदलनी है
पेड़ अपनी जगह खड़े रहे हैं

बर्फ़ पिघलेगी और पहाड़ों में
सालहा-साल रास्ते रहेंगे

सभी मौसम हैं दस्तरस में तिरी
तूने चाहा तो हम हरे रहेंगे

लौटना कब है तू ने पर तुझ को
आदतन ही पुकारते रहेंगे

तुझको पाने में मसअला ये है
तुझको खोने के वसवसे रहेंगे

तू इधर देख मुझ से बातें कर
यार चश्मे तो फूटते रहेंगे

9

अजीब ख़्वाब था उस के बदन में काई थी
वो इक परी जो मुझे सब्ज़ करने आई थी

वो इक चराग़-कदा जिस में कुछ नहीं था मिरा
जो जल रही थी वो क़िंदील भी पराई थी

न जाने कितने परिंदों ने इसमें शिरकत की
कल एक पेड़ की तक़रीब-ए-रू-नुमाई थी

हवाव आओ मिरे गाँव की तरफ़ देखो
जहाँ ये रेत है पहले यहाँ तराई थी

किसी सिपाह ने ख़ेमे लगा दिए हैं वहाँ
जहाँ पे मैंने निशानी तिरी दबाई थी

गले मिला था कभी दुख भरे दिसम्बर से
मिरे वजूद के अंदर भी धुँद छाई थी

Tehzeeb Hafi Ki Shayari: 10

बिछड़ कर उसका दिल लग भी गया तो क्या लगेगा
वो थक जाएगा और मेरे गले से आ लगेगा

मैं मुश्किल में तुम्हारे काम आऊँ या न आऊँ
मुझे आवाज़ दे लेना तुम्हें अच्छा लगेगा

मैं जिस कोशिश से उसको भूल जाने में लगा हूँ
ज़ियादा भी अगर लग जाए तो हफ़्ता लगेगा

मिरे हाथों से लग कर फूल मिट्टी हो रहे हैं
मिरी आँखों से दरिया देखना सहरा लगेगा

मिरा दुश्मन सुना है कल से भूका लड़ रहा है
ये पहला तीर उसको नाश्ते में जा लगेगा

कई दिन उस के भी सहराओं में गुज़रे हैं ‘हाफ़ी’
सो इस निस्बत से आईना हमारा क्या लगेगा

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