The Hundred Bucks Review इन दिनों जब सभी को घर में रहना है तो ऐसे में सबसे बड़ा सहारा है किताबें। जिन्हें पढ़ने का शौक़ हो उनके लिए घर में अपनी पसंदीदा किताब के साथ रहना किसी भी तरह से दूभर नहीं लगेगा। ऐसे ही समय का सदुपयोग करते हुए हमने पढ़ी विष्णुप्रिया सिंह की लिखी किताब “द हंड्रेड बक्स”। पहके तो ये बता दें कि इस किताब की कहानी पर इसी नाम से एक फ़िल्म भी बन चुकी है। कहानी की बात करें तो ये कहानी एक लड़की मोहिनी की है जिसकी ज़िंदगी मुश्किलों से भरी है, समाज की ऐसी कोई बुराई नहीं है जिससे मोहिनी का पाला न पड़ा हो पर इन सघर्षों के बीच भी मोहिनी अपना आत्म सम्मान और आत्म विश्वास बचाए रखती है।
मोहिनी की इस कहानी में हमें समाज के कई छुपे चेहरे देखने मिलते हैं लेकिन साथ ही कुछ राहत देने वाली परिस्थितियाँ भी हैं। वैसे तो ये किताब सिर्फ़ 95 पेज की है इसलिए एक-दो घंटे में पूरी पढ़ी जा सकती है और इसकी कहानी भी इस तरह से बाँधकर रखती है कि पढ़ते ही चले जाते हैं। लेखनशैली की बात की जाए तो बहुत ही सरल शैली में इसे लिखा गया है तो जिन्हें अंग्रेज़ी किताबें पढ़ना ज़्यादा अच्छा नहीं लगता उनके लिए भी ये आसान होगी। वहीं इस किताब में कहानी बड़े पैराग्राफ़ में न बताकर सीधे संवाद के ज़रिए बतायी गयी है।
एक बात जो इस किताब में खटकी वो है एडिटर की कमी। इस किताब में जगह- जगह बहुत सारी टाइपिंग और ग्रामर की ग़लतियाँ हैं जो अच्छी ख़ासी कहानी के रस को कड़वा करती हैं। यहाँ तक कि द हंड्रेड बक्स नाम जिस वजह से रखा गया है और उसका ज़िक्र भी आता है वो बात भी अच्छी तरह से सामने नहीं आ पायी है। कई जगह ऐसा लगता है कि ये किताब फ़र्स्ट ड्राफ़्ट में ही छाप दी गयी है। हमेशा ऐसा माना जाता है कि छपी हुई चीज़ें और किताबें किसी भी भाषा सीखने के लिए एक अच्छा साधन होता है ऐसे में अगर एक अच्छी कहानी में इस तरह की त्रुटियाँ बहुतायत मिलें तो अखर जाता है। The Hundred Bucks Review