Meer Taqi Meer Shayari
1.
फ़क़ीराना आए सदा कर चले,
मियाँ ख़ुश रहो हम दुआ कर चले
2.
जो तुझ बिन न जीने को कहते थे हम
सो इस अहद को अब वफ़ा कर चले
3.
वो क्या चीज़ है आह जिसके लिए
हर इक चीज़ से दिल उठा कर चले
4.
कोई ना-उमीदाना करते निगाह
सो तुम हमसे मुँह भी छुपा कर चले
5.
बहुत आरज़ू थी गली की तिरी
सो याँ से लहू में नहा कर चले (याँ- यहाँ)
6.
जबीं सज्दा करते ही करते गई
हक़-ए-बंदगी हम अदा कर चले
7.
दिखाई दिए यूँ कि बे-ख़ुद किया
हमें आपसे भी जुदा कर चले
8.
परस्तिश की याँ तक कि ऐ बुत तुझे
नज़र में सभों की ख़ुदा कर चले (याँ- यहाँ)
9.
झड़े फूल जिस रंग गुलबुन से यूँ
चमन में जहाँ के हम आ कर चले
10.
कहें क्या जो पूछे कोई हमसे ‘मीर’
जहाँ में तुम आए थे क्या कर चले
11.
आग थे इब्तिदा-ए-इश्क़ में हम
अब जो हैं ख़ाक इंतिहा है ये
12.
हमारे आगे तिरा जब किसू ने नाम लिया
दिल-ए-सितम-ज़दा को हम ने थाम थाम लिया
13.
होगा किसी दीवार के साए में पड़ा ‘मीर’
क्या काम मुहब्बत से उस आराम-तलब को
14.
मिरे सलीक़े से मेरी निभी मुहब्बत में
तमाम उम्र मैं नाकामियों से काम लिया
15.
देख तो दिल कि जाँ से उठता है
ये धुआँ सा कहाँ से उठता है
16.
नाला सर खींचता है जब मेरा,
शोर इक आसमाँ से उठता है (नाला: चीख़-चीख़ कर रोना)
17.
बैठने कौन दे है फिर उसको
जो तिरे आस्ताँ से उठता है
18.
यूँ उठे आह उस गली से हम
जैसे कोई जहाँ से उठता है
19.
इश्क़ इक ‘मीर’ भारी पत्थर है
कब ये तुझ नातवाँ से उठता है (नातवाँ- कमज़ोर)
20.
जिनके लिए अपने तो यूँ जान निकलते हैं
इस राह में वे जैसे अंजान निकलते हैं
21.
मत सहल हमें जानो फिरता है फ़लक बरसों
तब ख़ाक के पर्दे से इंसान निकलते हैं
22.
करिए तो गिला किस से जैसी थी हमें ख़्वाहिश
अब वैसे ही ये अपने अरमान निकलते हैं
23.
बारे दुनिया में रहो ग़म-ज़दा या शाद रहो
ऐसा कुछ कर के चलो याँ कि बहुत याद रहो (याँ- यहाँ)
24.
हम को दीवानगी शहरों ही में ख़ुश आती है
दश्त में क़ैस रहो कोह में फ़रहाद रहो
25.
‘मीर’ हम मिल के बहुत ख़ुश हुए तुमसे प्यारे
इस ख़राबे में मिरी जान तुम आबाद रहो
26.
नाज़ुकी उसके लब की क्या कहिए
पंखुड़ी इक गुलाब की सी है
27.
‘मीर’ उन नीम-बाज़ आँखों में
सारी मस्ती शराब की सी है
28.
राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या
आगे आगे देखिए होता है क्या (राह-ए-दूर-ए-इश्क़: इश्क़ का लंबा सफ़र)
29.
ये निशान-ए-इश्क़ हैं जाते नहीं
दाग़ छाती के अबस धोता है क्या (अबस- बेकार)
30.
ग़ैरत-ए-यूसुफ़ है ये वक़्त-ए-अज़ीज़
‘मीर’ इसको राएगाँ खोता है क्या
31.
पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है
32.
आशिक़ सा तो सादा कोई और न होगा दुनिया में
जी के ज़ियाँ को इश्क़ में उसके अपना वारा जाने है
33.
सिरहाने ‘मीर’ के आहिस्ता बोलो
अभी टुक रोते रोते सो गया है
34.
अब कर के फ़रामोश तो नाशाद करोगे
पर हम जो न होंगे तो बहुत याद करोगे
35.
आवरगान-ए-इश्क़ का पूछा जो मैं निशां
मुश्त-ए-ग़ुबार ले के सबा ने उड़ा दिया
36.
फोड़ा सा सारी रात जो पकता रहेगा दिल
तो सुब्ह तक तो हाथ लगाया न जाएगा
37.
अपने शहीद-ए-नाज़ से बस हाथ उठा कि फिर
दीवान-ए-हश्र में उसे लाया न जाएगा
38.
अब देख ले कि सीना भी ताज़ा हुआ है चाक
फिर हम से अपना हाल दिखाया न जाएगा
39.
याद उसकी इतनी ख़ूब नहीं ‘मीर’ बाज़ आ
नादान फिर वो जी से भुलाया न जाएगा
40.
अब जो इक हसरत-ए-जवानी है
उम्र-ए-रफ़्ता की ये निशानी है
41.
उसकी शमशीर तेज़ है हमदम
मर रहेंगे जो ज़िंदगानी है
42.
ख़ाक थी मौजज़न जहाँ में और
हमको धोका ये था कि पानी है
43.
याँ हुए ‘मीर’ तुम बराबर ख़ाक
वाँ वही नाज़ ओ सरगिरानी है (याँ- यहाँ)
44.
होती है गरचे कहने से यारो पराई बात
पर हमसे तो थंबे न कभू मुँह पर आई बात (गरचे- यद्यपि, थंबे- रुके, कभू- कभी)
45.
कहते थे उससे मिलिए तो क्या क्या न कहिए लेक
वो आ गया तो सामने उसके न आई बात (लेक- लेकिन)
46.
अब तो हुए हैं हम भी तिरे ढब से आश्ना
वाँ तू ने कुछ कहा कि इधर हम ने पाई बात (वाँ- वहाँ)
47.
बुलबुल के बोलने में सब अंदाज़ हैं मिरे
पोशीदा कब रहे है किसू की उड़ाई बात (किसू- किसी)
48.
ख़त लिखते लिखते ‘मीर’ ने दफ़्तर किए रवाँ
इफ़रात-ए-इश्तियाक़ ने आख़िर बढ़ाई बात (रवाँ: जो बहाव में हो, इफ़रात-ए-इश्तियाक़: इच्छा की अधिकता)
49.
ऐसा तिरा रहगुज़र न होगा,
हर गाम पे जिस में सर न होगा
50.
धोका है तमाम बहर दुनिया
देखेगा कि होंठ तर न होगा
51.
अमीरों तक रसाई हो चुकी बस,
मिरी बख़्त-आज़माई हो चुकी बस (रसाई- पहुँच, बख़्त-आज़माई: भाग्य-परीक्षा)
52.
बहार अब के भी जो गुज़री क़फ़स में,
तो फिर अपनी रिहाई हो चुकी बस
53.
लगा है हौसला भी करने तंगी,
ग़मों की अब समाई हो चुकी बस
54.
बातें हमारी याद रहें फिर बातें ऐसी न सुनिएगा,
पढ़ते किसू को सुनिएगा तो देर तलक सर धुनिएगा
55.
कोई हो महरम शोख़ी तिरा तो में पूछूँ,
कि बज़्म-ए-ऐश जहाँ क्या समझ के बरहम की
56.
क़फ़स में ‘मीर’ नहीं जोश दाग़ सीने पर
हवस निकाली है हमने भी गुल के मौसम की
57.
बज़्म में जो तिरा ज़ुहूर नहीं
शम-ए-रौशन के मुँह पे नूर नहीं
58.
कितनी बातें बना के लाऊँ एक
याद रहती तिरे हुज़ूर नहीं
59.
ख़ूब पहचानता हूँ तेरे तईं
इतना भी तो मैं बे-शुऊर नहीं
60.
फ़िक्र मत कर हमारे जीने का
तेरे नज़दीक कुछ ये दूर नहीं
61.
आम है यार की तजल्ली ‘मीर’
ख़ास मूसा व कोह-ए-तूर नहीं
62.
मुझे देख मुँह पर परेशाँ की ज़ुल्फ़
ग़रज़ ये कि जा तू हुई अब तो शाम
63.
न देखे जहाँ कोई आँखों की और
न लेवे कोई जिस जगह दिल का नाम
64.
जहाँ ‘मीर’ ज़ेर-ओ-ज़बर हो गया
ख़िरामाँ हुआ था वो महशर-ख़िराम
65.
अश्क आँखों में कब नहीं आता
लोहू आता है जब नहीं आता (लोहू- लहू)
66.
होश जाता नहीं रहा लेकिन
जब वो आता है तब नहीं आता
67.
दिल से रुख़्सत हुई कोई ख़्वाहिश
गिर्या कुछ बे-सबब नहीं आता (गिर्या- बुरी तरह रोना)
68.
इश्क़ को हौसला है शर्त अर्ना
बात का किसको ढब नहीं आता
69.
जी में क्या क्या है अपने ऐ हमदम
पर सुख़न ता-ब-लब नहीं आता
70.
तनिक तो लुत्फ़ से कुछ कह कि जाँ-ब-लब हूँ मैं
रही है बात मिरी जान अब कोई दम की
71.
बनी थी कुछ इक उससे मुद्दत के बाद
सो फिर बिगड़ी पहली ही सुहबत के बाद
72.
जुदाई के हालात मैं क्या कहूँ
क़यामत थी एक एक साअत के बाद
73.
लगा आग पानी को दौड़े है तू
ये गर्मी तिरी इस शरारत के बाद
74.
कहे को हमारे कब उनने सुना
कोई बात मानी सो मिन्नत के बाद
75.
सुख़न की न तकलीफ़ हमसे करो
लहू टपके है अब शिकायत के बाद
76.
नज़र ‘मीर’ ने कैसी हसरत से की
बहुत रोए हम उस की रुख़्सत के बाद
77.
सरापा आरज़ू होने ने बंदा कर दिया हमको
वगर्ना हम ख़ुदा थे गर दिल-ए-बे-मुद्दआ होते (सरापा- सर से पाँव तक)
78.
फ़लक ऐ काश हमको ख़ाक ही रखता कि इसमें हम
ग़ुबार-ए-राह होते या कसू की ख़ाक-ए-पा होते
79.
इलाही कैसे होते हैं जिन्हें है बंदगी ख़्वाहिश
हमें तो शर्म दामन-गीर होती है ख़ुदा होते
80.
कहीं जो कुछ मलामत गर बजा है ‘मीर’ क्या जानें
उन्हें मा’लूम तब होता कि वैसे से जुदा होते
81.
मैं ये कहता था कि दिल जन ने लिया कौन है वो
यक-ब-यक बोल उठा उस तरफ़ आ मैं ही हूँ
82.
जब कहा मैंने कि तू ही है तो फिर कहने लगा
क्या करेगा तू मिरा देखूँ तो जा मैं ही हूँ
83.
मुझसा ही हो मजनूँ भी ये कब माने है आक़िल
हर सर नहीं ऐ ‘मीर’ सज़ा-वार-ए-मुहब्बत
84.
दिल जो था इक आबला फूटा गया
रात को सीना बहुत कूटा गया
85.
मैं न कहता था कि मुँह कर दिल की और
अब कहाँ वो आईना टूटा गया
86.
दिल की वीरानी का क्या मज़कूर है
ये नगर सौ मर्तबा लूटा गया
87.
‘मीर’ किस को अब दिमाग़-ए-गुफ़्तुगू
उम्र गुज़री रेख़्ता छूटा गया
88.
आह किस ढब से रोइए कम-कम
शौक़ हद से ज़ियाद है हमको
89.
दोस्ती एक से भी तुझ को नहीं
और सब से इनाद है हमको
90.
नामुरादाना ज़ीस्त करता था
‘मीर’ का तौर याद है हमको
91.
कब तलक ये सितम उठाइएगा
एक दिन यूँही जी से जाइएगा
92.
सब से मिल चल कि हादसे से फिर
कहीं ढूँढा भी तो न पाइएगा
93.
कहियेगा उस से क़िस्सा-ए-मजनूँ
या’नी पर्दे में ग़म सुनाइएगा
94.
उसके पाँव को जा लगी है हिना
ख़ूब से हाथ उसे लगाइएगा
95.
अपनी डेढ़ ईंट की जद्दी मस्जिद
किसी वीराने में बनाइयेगा
96.
कब तलक जी रुके ख़फ़ा होवे
आह करिए कि टक हवा होवे
97.
जी ठहर जाए या हवा होवे
देखिए होते होते क्या होवे
98.
बेकली मारे डालती है नसीम
देखिए अब के साल क्या होवे
99.
मर गए हम तो मर गए तो जी
दिल-गिरफ़्ता तिरी बला होवे
100.
न सुना रात हमने इक नाला
ग़ालिबन ‘मीर’ मर रहा होवे