पंडित और पंडितानी- गिरिजादत्त बाजपेयी
“परंतु, तुम्हें तोते को न ताकना पड़ेगा। तुम जानते हो कि बिल्लियाँ तोते को नहीं खातीं। और जब तुम काम में न होगे, तब उसकी बोली सुनकर प्रसन्न होगे, मैं उसको बड़ी अच्छी-अच्छी बोलियाँ सिखाऊँगी।”
“जो कुछ तुम उसे सिखाओगी वह नहीं बोलेगा; बल्कि वह वही बोलेगा जो वह पहिले ही से जानता है”
“नहीं! नहीं! मुझे विश्वास है कि इस तोते की शिक्षा बुरी नहीं हुई है। विज्ञापन में लिखा है कि वह बच्चों से मिल गया है। इसके यह मानी हैं, कि वह गाली गुफ़्ता नहीं बकता। मेरे घर का तोता पूरा भला मानस था। उससे मेरे घर के आदमियों पर बड़ा अच्छा असर पड़ा। मेरा भाई तोते के आने से पहले तो कभी गाली, वगैरह तक भी देता था; परंतु जब से तोता आया, तब से उसने कभी वैसा नहीं किया। उसको भय था कि कहीं तोता भी न वही बोलने लगे। मुझे बहुधा ख़याल हुआ है कि बोलने वाले तोते के होने से शायद तुम्हारी भी कुछ आदतें सुधर जाएँ”
“अपना यह ख़याल तो तुम एकदम दूर कर दो। घर में तोते की मौजूदगी मुझे आपे से बाहर कर देगी। जब वह चीखने लगेगा, तब न जाने मैं क्या-क्या बक जाऊँगा। इसके सिवा मेरे इज़्ज़तदार, भलेमानस, और सीधे-सादे पड़ोसियों को एक चीखते हुए तोते से बड़ी परेशानी होगी”
“हाँ! हाँ! तुम पड़ोसियों का ख़याल कर रहे हो? तुम्हें इस बात का ख़याल नहीं कि मुझे कितना दु:ख है। तुम्हारा सब ध्यान ग़ैरों की तरफ़ है ! अच्छा कल मैं अपने मकान के सामने वाली हवेली में कहला भेजूँगी कि वे कुत्ता न पालें क्योंकि वह घण्टों दरवाज़े पर भौंका करता है। अगर मैं तोता न पाल सकूँगी तो वे कुत्ता भी न पाल सकेंगे। और, हाँ पड़ोस में अभी एक बच्चा हुआ है। वह क़रीब-क़रीब रात भर चिल्लाता रहता है। मैं उसके लिए भी वैसा ही कहला भेजूँगी। अगर मैं उनके कारण तोता न रख सकूँगी तो वे मेरे कारण बच्चा भी न रखने पावेंगे”- इतने पर पंडित जी ने कालिदास और उनके काव्य को हटाया और कुर्सी फेरकर वे अपनी अर्धांगिनी के सम्मुख हुए।
“प्रियतमे! यदि तुम बुद्धिमानी से बात करो तो मैं तुम्हारी बात सुनूँगा, वरना नहीं। भला पड़ोसी के बच्चे और तुम्हारे तोते से क्या संबंध?”
“संबंध क्यों नहीं ! ख़ूब संबंध है। अगर मेरे कोई बच्चा हो, और वह रोए तो तुम कहोगे कि तुम्हारा ध्यान बँटता है। इसलिए दाई को उसे लेकर छत पर या बाहर बाज़ार में बैठना पड़ेगा, जिसमें उसका रोना तुम्हें न सुनाई दे। तुम्हारे लिए तो केवल एक स्थान अच्छा होगा। तुम एक कमरा किसी गूँगे-बहिरों के अस्पताल में ले लो, तो तुम बिना किसी विघ्न के लिख-पढ़ सकोगे। मैं कहती हूँ कि आख़िर और लोग कैसे किताबें लिखते हैं? तुम्हें कालिदास के बारे में दो सतरें लिखना है; और उतने के लिए अपनी पत्नी को सभ्यतापूर्वक जवाब देना तुम्हें कठिन हो गया है!”
“प्रिये! जवाब तो मैं दे चुका। क्या मैंने यह नहीं कहा कि मैं तोता रखने के विरुद्ध हूँ?”
“हाँ! परंतु तुमने मुझे समझाने तो नहीं दिया। तुम्हारा जो ख़याल तोतों के विषय में है, वह सर्वथा ग़लत है। तुमने जानवरों के अजायबघर के चीखते हुए तोते देखे हैं जो एक शब्द भी नहीं उच्चारण कर सकते। परंतु एक सिखाया हुआ तोता, एक शिक्षित तोता, एक पालतू तोता, जैसा विज्ञापन में लिखा है कुछ और ही चीज है। मेरे घर में जो तोता है, वह गा सकता है। लोग कोसों दूर से उसके गीत सुनने आते हैं। उसके पिंजड़े के पास भीड़ लग जाती है”
“अच्छा, वह क्या गाता है? ऋतुसंहार के श्लोक?”
“देखो ऐसी बे-लगाव बातें मत करो ! ऋतुसंहार के श्लोक पढ़ेगा! वह काशी का कोई शास्त्री है न! ”
“अच्छा फिर, यह बताओ, वह गाता क्या है। इसमें तो कोई संदेह ही नहीं कि तुम तोता जरूर पालोगी, चाहे हम मानें या न मानें। अब हमें इतना तो मालूम हो जाय कि क्या बक-बककर सुबह, दोपहर और शाम, हर समय वह, हमारे कान फोड़ेगा?”
“उसमें कान फोड़ने की कोई बात नहीं। तुम तो ऐसा कहते हो, गोया मेरे घर के आदमी सब जंगली हैं; गान-विद्या जानते ही नहीं। याद रखिए, उनमें बुद्धि और सभ्यता तुमसे कुछ कम नहीं”
“अच्छा, यह सब हमने माना। ज़रा बताइए तो सही आपका वह सभ्य तोता कहता क्या है?”
“वह कई बड़े ही मनोहर पद कहता है। नीचे का पद तो वह बड़ी ही सफ़ाई से गाता है, वह कहता है…
सत्त, गुरदत्त, शिवदत्त दाता।”
“आहा ! क्या कहना है !” पंडित जी ने कुछ क्रोध और कुछ कटाक्ष से कहा, “मैंने अपने जीवन में इससे अधिक अच्छा गाना कभी नहीं सुना। अगर यही गाना है तो मैं इस ‘दत्तदत्त’ पर ‘धत्त’ कहता हूँ!”
“देखो मुझसे धत्त न कहना। कोई मैं कुँजड़िन-कबडि़न नहीं”
“ख़फा मत हो। मैं तुम्हें धत्त नहीं कहता; तुम्हारे सभ्य तोते को धत्त कहता हूँ। तुमने पूरा एक घण्टा समय मेरा नष्ट किया। अब कृपा करके लिखने दो”
किसी प्रकार पंडितजी ने अपना चित्त खींच कर फिर कालिदास पर उसे जमाया ! लेकिन पंडितानी जी से चुपचाप कब रहा जाता है ! थोड़ी ही देर में उस सन्नाटे ने उन्हें व्याकुल कर दिया। अपनी जगह से उठकर वे पंडित जी के पास आईं और अपना हाथ मेज पर कई बार मारकर उन्होंने उनका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया।
वे बोलीं, “अच्छा, तो पूछती हूँ कि, अगर मैं एक तोता न पालूँ तो तुम छ: कुत्ते कैसे पालोगे? छ: कुत्ते और उसमें से ऐसा काटनेवाला कि जिसके मारे धोबिन, नाइन, तेलिन-तमोलिन तक का आना मुश्किल ! अहीर जब दूध दुहने आता है तब दो नौकर उस कुत्ते को पकड़ने को चाहिए। यह सब तुम जानते हो ; तब भी उसे नहीं निकालते, अभी उस दिन तुम्हें मेहतर को दो रुपए देने पड़े। जिसमें वह उसके काटने की ख़बर पुलिस को न करे। जनकिया महरी को देख उस दिन वह ऐसा गुर्राया कि वह गिर ही पड़ी! तुम तो ऐसा कुत्ता रखो और यदि मैं छोटा-सा, मिष्टभाषी, ख़ूबसूरत, निरुपम तोता पिंजड़े में पालना चाहूँ तो तुम मुझसे ऐसे लड़ो जैसे मैं कोई बाघ घर में लाना चाहती हूँ!!”
पंडित जी से अब आगे कुछ न बन पड़ी। उन्होंने पंडितानी के दोनों हाथ अपने हाथों में प्यार से लेकर दबाया और उनका मुख एक बार चुंबन करके कहा, “अच्छा तो हम तुम्हारे लिए एक नहीं, छ: तोते ला देंगे। अब तो प्रसन्न हो?”
इस पर पंडितानी जी प्रसन्नता से फूलकर चुपचाप बैठ गयीं और पंडितजी ने जल्दी-जल्दी अपना लेख समाप्त कर डाला।
समाप्त