विनोद- मुंशी प्रेमचंद Hindi Kahani Vinod
घनी कहानी, छोटी शाखा- मुंशी प्रेमचंद की कहानी “विनोद” का पहला भाग
घनी कहानी, छोटी शाखा: मुंशी प्रेमचंद की कहानी “विनोद” का दूसरा भाग
घनी कहानी, छोटी शाखा: मुंशी प्रेमचंद की कहानी “विनोद” का तीसरा भाग
भाग-4
(अब तक आपने पढ़ा..अपने साथियों के मज़ाक़ का शिकार हुए चक्रधर, कॉलेज में नई आयी लूसी के प्रेम में पूरी तरह सराबोर हैं। उन्हें लूसी के पत्र भी मिलते रहते हैं, जो दरअसल उनके साथियों की ही कारस्तानी है, लेकिन इस बात से बेख़बर चक्रधर कभी ख़ुद को विदेशी वेशभूषा में ढालते हैं, तो कभी याद कर-करके अंग्रेज़ी बोलते हैं। उनके इस बदलाव के मज़े लेते साथी रोज़ उन्हें किसी न किसी तमाशे में उलझा देते, यहाँ तक की लूसी की तरफ़ से चक्रधर को हॉकी खेलने की फ़रमाइश भी भेजते हैं, जहाँ अनाड़ी चक्रधर, ख़ुद को बड़ा खिलाड़ी साबित करने में तुला है। वहीं लूसी उसके इस अजीब व्यवहार से हैरान है। अब जबकि कॉलेज का सेशन ख़त्म ही होने को है तो ये सभी इस मज़ाक़ को चरम पर लाना चाहते हैं और चक्रधर से एक दावत लेने का प्लान बनता है..और फिर लिखी जाती है लूसी के नाम से, एक और चिट्ठी…अब आगे)
तीसरे दिन उनके नाम लूसी का पत्र पहुँचा-
“वियोग के दुर्दिन आ रहे हैं; न-जाने आप कहाँ होंगे और मैं कहाँ हूँगी। मैं चाहती हूँ, इस अटल प्रेम की यादगार में एक दावत हो। अगर उसका व्यय आपके लिए असह्य हो, तो मैं सम्पूर्ण भार लेने को तैयार हूँ। इस दावत में, मैं और मेरी सखियाँ-सहेलियाँ निमंत्रित होंगी, कॉलेज के छात्र और अध्यापकगण सम्मिलित होंगे। भोजन के उपरांत हम अपने वियुक्त हृदय के भावों को प्रकट करेंगे। काश, आपका धर्म, आपकी जीवन-प्रणाली और मेरे माता-पिता की निर्दयता बाधक न होती, तो हमें संसार की कोई शक्ति जुदा नहीं कर सकती” Hindi Kahani Vinod
चक्रधर यह पत्र पाते ही बौखला उठे। मित्रों से कहा- “भाई, चलते-चलते एक बार सहभोज तो हो जाए। फिर न जाने कौन कहाँ होगा। मिस लूसी को भी बुलाया जाए”
यद्यपि पंडितजी के पास इस समय रुपये न थे, घरवाले उनकी फ़िज़ूलखर्ची की कई बार शिकायत कर चुके थे, मगर पंडितजी का आत्माभिमान यह कब मानता कि प्रीतिभोज का भार लूसी पर रखा जाय। वह तो अपने प्राण तक उस पर वार चुके थे। न-जाने क्या-क्या बहाने बनाकर ससुराल से रुपये मँगवाये और बड़े समारोह से दावत की तैयारियाँ होने लगीं। कार्ड छपवाये गये, भोजन परोसनेवाले के लिए नयी वर्दियाँ बनवायी गयीं। अँग्रेजी और हिंदुस्तानी, दोनों ही प्रकार के व्यंजनों की व्यवस्था की गयी। अँग्रेजी खाने के लिए रॉयल होटल से बातचीत की गयी। इसमें बहुत सुविधा थी। यद्यपि चीजें बहुत महँगी थीं, लेकिन झंझट से नजात हो गयी। अन्यथा सारा भार नईम और उसके दोस्त गिरिधर पर पड़ता। हिंदुस्तानी भोजन के व्यवस्थापक गिरिधर हुए। Hindi Kahani Vinod
पूरे दो सप्ताह तक तैयारियाँ हुई थीं। नईम और गिरिधर तो कालेज में केवल मनोरंजन के लिए थे। पढ़ना-पढ़ाना तो उनको था नहीं, आमोद-प्रमोद ही में समय व्यतीत किया करते थे; कवि-सम्मेलन की भी ठहरी। कविजनों के नाम बुलावे भेजे गये। सारांश यह कि बड़े पैमाने पर प्रीतिभोज का प्रबंध किया गया और भोज हुआ भी विराट्। विद्यालय के नौकरों ने पूरियाँ बेची। विद्यालय के इतिहास में वह भोज चिरस्मरणीय रहेगा। मित्रों ने ख़ूब बढ़-बढ़ कर हाथ मारे, दो-तीन मिसें भी खींच बुलायी गयीं। मिर्ज़ा नईम लूसी को घेर-घार कर ले ही आये। इसने भोजन को और भी रसमय बना दिया।
किंतु शोक-महाशोक, इस भोज का परिणाम अभागे चक्रधर के लिए कल्याणकारी न हुआ। चलते-चलते लज्जित और अपमानित होना पड़ा था। मित्रों की तो दिल्लगी थी और उस बेचारे की जान पर बन रही थी। सोचे, अब तो विदा होते ही हैं, फिर मुलाकात हो या न हो। अब किस दिन के लिए सब्र करें ? मन के प्रेमोद्गार को निकाल क्यों न लें। कलेजा चीरकर दिखा क्यों न दें।
और लोग तो दावत खाने में जुटे हुए थे; और वह मदन-बाण-पीड़ित युवक बैठा सोच रहा था कि यह अभिलाषा क्यों कर पूरी हो ? अब यह आत्मदमन क्यों ? लज्जा क्यों ? विरक्ति क्यों ? गुप्त रोदन क्यों ? मौन-मुखापेक्षा क्यों ? अंतर्वेदना क्यों ? बैठे-बैठे प्रेम को क्रियाशील बनाने के लिए मन में बल का संचार करते रहे, कभी देवताओं का स्मरण करते, कभी ईश्वर को अपनी भक्ति की याद दिलाते। अवसर की ताक में इस भाँति बैठे थे, जैसे बगुला मेंढक की ताक में बैठता है। भोज समाप्त हो गया। पान-इलाइची बँट चुकी, वियोगवार्ता हो चुकी। मिस लूसी अपनी श्रवणमधुर वाणी से हृदयों में हाहाकार मचा चुकी, और भोजशाला से निकलकर बाईसिकल पर बैठी। उधर कवि-सम्मेलन में इस तरह मिसरा पढ़ा गया-
“कोई दीवाना बनाये, कोई दीवाना बने”
इधर चक्रधर चुपके से लूसी के पीछे हो लिए और साइकिल को भयंकर वेग से दौड़ाते हुए उसे आधे रास्ते में जा पकड़ा। वह इन्हें इस व्यग्रता से दौड़े आते देखकर सहम उठी कि कोई दुर्घटना तो नहीं हो गयी। बोली- “वेल पंडितजी ! क्या बात है ? आप इतने बदहवास क्यों हैं ? कुशल तो है?” Hindi Kahani Vinod
चक्रधर का गला भर आया। कम्पित स्वर से बोले- “अब आपसे सदैव के लिए बिछुड़ ही जाऊँगा। यह कठिन विरह-पीड़ा कैसे सही जायगी ! मुझे तो शंका है, कहीं पागल न हो जाऊँ”
लूसी ने विस्मित होकर पूछा- “आपकी मंशा क्या है ? आप बीमार हैं क्या?”
चक्रधर- “आह डियर डार्लिंग, तुम पूछती हो, बीमार हूँ? मैं मर रहा हूँ, प्राण निकल चुके हैं केवल प्रेमाभिलाषा का अवलम्बन है!”
यह कहकर आपने उसका हाथ पकड़ना चाहा। वह उनका उन्माद देखकर भयभीत हो गयी। क्रोध में आकर बोली- “आप मुझे यहाँ रोककर मेरा अपमान कर रहे हैं। इसके लिए आपको पछताना पड़ेगा।“
चक्रधर- “लूसी, देखो चलते-चलते इतनी निष्ठुरता न करो। मैंने ये विरह के दिन किस तरह काटे हैं, सो मेरा दिल ही जानता है। मैं ही ऐसा बेहया हूँ कि अब तक जीता हूँ। दूसरा होता तो अब तक चल बसा होता। बस, केवल तुम्हारी सुधामयी पत्रिकाएँ ही मेरे जीवन का एकमात्र अधार थीं”
लूसी- “मेरी पत्रिकाएँ ! कैसी ?मैंने आपको कब पत्र लिखे ! आप कोई नशा तो नहीं खा आये हैं?”
चक्रधर- “डियर डार्लिंग, इतनी जल्द न भूल जाओ, इतनी निर्दयता न दिखाओ। तुम्हारे वे प्रेम-पत्र, जो तुमने मुझे लिखे हैं, मेरे जीवन की सबसे बड़ी सम्पत्ति रहेंगे। तुम्हारे अनुरोध से मैंने यह वेष धारण किया, अपना संध्या-हवन छोड़ा, यह अचार-व्यवहार ग्रहण किया। देखो तो ज़रा, मेरे हृदय पर हाथ रखकर, कैसी धड़कन हो रही है। मालूम होता है, बाहर निकल पड़ेगा। तुम्हारा यह कुटिल हास्य मेरे प्राण ही लेकर छोड़ेगा। मेरी अभिलाषाओं…”
लूसी- “तुम भांग तो नहीं खा गये हो या किसी ने तुम्हें चकमा तो नहीं दिया है ? मैं तुमको प्रेम-पत्र लिखती। हा हा! ज़रा अपनी सूरत तो देखो, खासे बनैले सूअर मालूम होते हो।
किंतु पंडितजी अभी तक यही समझ रहे थे कि यह मुझसे विनोद कर रही है। उसका हाथ पकड़ने की चेष्टा करके बोले- “प्रिये, बहुत दिनों के बाद यह सुअवसर मिला है। अब न भागने पाओगी”
लूसी को अब क्रोध आ गया। उसने जोर से एक चाँटा उनके लगाया, और सिंहिनी की भाँति गरजकर बोली- “यू ब्लडी, हट जा रास्ते से, नहीं तो, अभी पुलिस को बुलाती हूँ। रास्कल!”
पंडितजी चाँटा खाकर चौंधिया गये। आँखों के सामने अँधेरा छा गया। मानसिक आघात पर यह शारीरिक वज्रपात ! यह दुहरी विपत्ति ! वह तो चाँटा मारकर हवा हो गयी और यह वहीं ज़मीन पर बैठकर इस सम्पूर्ण वृत्तांत की मन-ही-मन आलोचना करने लगे। चाँटे ने बाहर की आँखें आँसुओं से भर दी थीं, पर अंदर की आँखें खोल दी थीं। कहीं कॉलेज के लौंडों ने तो यह शरारत नहीं की ? अवश्य यही बात है। आह ! पाजियों ने बड़ा चकमा दिया ! तभी सब-के-सब मुझे देख-देखकर हँसा करते थे !मैं भी कुछ कमअक़्ल हूँ, नहीं तो इनके हाथों टेसू क्यों बनता !बड़ा झाँसा दिया। उम्र-भर याद रहेगा। वहाँ से झल्लाये हुए आये और नईम से बोले- “तुम बड़े दग़ाबाज़ हो, परले सिरे के धूर्त, पाजी, उल्लू, गधे, शैतान !” Hindi Kahani Vinod
नईम- “आख़िर कोई बात भी कहिए, या गालियाँ ही देते जाइएगा?”
गिरिधर- “क्या बात हुई, कहीं लूसी से आपने कुछ कहा तो नहीं?”
चक्रधर- “उसी के पास से आ रहा हूँ चाँटा खाकर और मुँह में कालिख लगवाकर ! तुम दोनों ने मिलकर मुझे ख़ूब उल्लू बनाया। इसकी कसर न लूँ, तो मेरा नाम नहीं। मैं नहीं जानता था कि तुम लोग मित्र बनकर मेरी गरदन पर छुरा चला रहे हो ! अच्छा जो वह गुस्से में आकर पिस्तौल चला देती तो”
नईम- “अरे यार, माशूकों की घातें निराली होती हैं”
चक्रधर- “तुम्हारा सिर ! माशूक चाँटे लगाया करते हैं। वे आँखों से तीर चलाते हैं, कटार मारते हैं; या हाथों से मुष्टि-प्रहार करते हैं?”
गिरिधर- “उससे आपने क्या कहा?”
चक्रधर- “कहा क्या, अपनी विरह व्यथा की गाथा सुनाता रहा। इस पर उसने ऐसा चाँटा रसीद किया कि कान भन्ना उठे। हाथ हैं उसके कि पत्थर!”
गिरिधर- “ग़ज़ब ही हो गया। आप हैं निरे चोंच ! भले आदमी, इतनी मोटी बुद्धि है तुम्हारी ! हम क्या जानते थे कि आप ऐसे छिछोरे हैं, नहीं तो मज़ाक़ ही क्यों करते। अब आपके साथ हम लोगों पर भी आफत आयी। कहीं उसने प्रिंसिपल से शिकायत कर दी, तो न इधर के हुए न उधर के। और जो कहीं अपने किसी अँग्रेज आशना से कहा, तो जान के लाले पड़ जायेंगे। बड़े बेवकूफ हो यार, निरे चोंच हो। इतना भी नहीं समझे कि वह सब दिल्लगी थी। ऐसे बड़े ख़ूबसूरत भी तो नहीं हो”
चक्रधर- “दिल्लगी तुम्हारे लिए थी, मेरी तो मौत हो गयी। चिड़िया जान ले गयी, लड़कों का खेल हुआ। अब चुपके से मेरे पाँच सौ रुपये लौटा दीजिए, नहीं तो गरदन ही तोड़ दूँगा !”
नईम- “रुपयों के बदले ख़िदमत चाहे ले लो। कहो तुम्हारी हजामत बना दें, जूते साफ कर दें, सिर सहला दें। बस, खाना देते जाना। क़सम ले लो, जो जिंदगी-भर कहीं जाऊँ, या तरक्की के लिए कहूँ। माँ-बाप के सिर से तो बोझ टल जायगा”
चक्रधर- “मत जले पर नमक छिड़को जी ! आपके आप गये, मुझे ले डूबे। तुम्हारी तो अँग्रेजी अच्छी है, लोट-पोटकर निकल जाओगे। मैं तो पास भी न हूँगा। बदनाम हुआ, वह अलग पाँच सौ की चपत भी पड़ी। यह दिल्लगी है कि गला काटना ? ख़ैर समझूँगा और चाहे मैं न समझूँ, पर ईश्वर जरूर समझेंगे”
नईम- “ग़लती हुई भाई, मुझे अब ख़ुद इसका अफ़सोस है”
गिरिधर- “ख़ैर, रोने-धोने का अभी बहुत मौक़ा है, अब यह बतलाइए कि लूसी ने प्रिंसिपल से कह दिया तो क्या नतीजा होगा। तीनों आदमी निकाल दिये जायेंगे। नौकरी से भी हाथ धोना पड़ेगा ! फिर?”
चक्रधर- “मैं तो प्रिंसिपल से तुम लोगों की सारी कलई खोल दूँगा”
नईम- “क्यों यार, दोस्त के यही माने हैं?”
चक्रधर- “जी हाँ, आप जैसे दोस्तों की यही सजा है”
उधर तो रात-भर मुशायरे का बाजार गरम रहा और इधर यह त्रिमूर्ति बैठी प्राण-रक्षा के उपाय सोच रही थी। प्रिंसिपल के कानों तक बात पहुँची और आफत आयी। अँग्रेजवाली बात है, न-जाने क्या कर बैठे..?
क्रमशः
घनी कहानी, छोटी शाखा- मुंशी प्रेमचंद की कहानी “विनोद” का अंतिम भाग
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