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विनोद- मुंशी प्रेमचंद  Munshi Premchand Ki Kahani Vinod
घनी कहानी, छोटी शाखा- मुंशी प्रेमचंद की कहानी “विनोद” का पहला भाग
भाग-2

(अब तक आपने पढ़ा..कॉलेज का समय पढ़ाई और विभिन्न रुचियों के साथ-साथ, सहपाठियों के आपसी विनोद का भी समय भी होता है और सबसे ज़्यादा इस विनोद के शिकार होते हैं वो, जो आमतौर पर ख़ुद को बेहद ख़ास दर्शाते हैं और लोगों से कटे-कटे रहकर अपनी दुनिया में खोए रहते हैं..और ऐसे लोग जो कॉलेज हॉस्टल में भी अपने पूजा-पाठ और धर्म-कर्म में व्यस्त होते हैं। कुछ इसी तरह के विनोद का शिकार होते हैं चक्रधर, जो सिर्फ़ अपनी पूजा पाठ और पढ़ाई में व्यस्त रहा करते और बाक़ियों को मुँह भी न लगाते। लेकिन कॉलेज में नई-नई आयी लूसी की ओर उठने वाली उनकी नज़र, आसपास के ख़ुराफ़ाती सहपाठियों की नज़रों से बच नहीं पाती और शुरू होता है एक ऐसा विनोद, जिसके बारे में चक्रधर को कानोंकान ख़बर नहीं है। उन्हें अचानक लूसी की ओर से एक प्रेमपत्र मिलता है जो कॉलेज के ख़ुराफ़ाती लड़कों की करामात है, इससे बेख़बर चक्रधर भी लड़कों के बहकावे में आकर एक जवाबी ख़त लिखते हैं, जो अब उन लड़कों के हाथ है। अब आगे…) Munshi Premchand Ki Kahani Vinod

तीन दिन के बाद चक्रधर को फिर एक पत्र मिला। लिखा था-

“माई डियर चक्रधर,

तुम्हारी प्रेम-पत्री मिली। बार-बार पढ़ा। आँखों से लगाया; चुम्बन लिया। कितनी मनोहर महक थी। ईश्वर से यही प्रार्थना है कि हमारा प्रेम भी ऐसा ही सुरभि सिंचित रहे। आपको शिकायत है कि मैं आपसे बातें क्यों नहीं करती। प्रिय, प्रेम बातों से नहीं, हृदय से होता है। जब मैं तुम्हारी ओर से मुँह फेर लेती हूँ, तो मेरे दिल पर क्या गुज़रती है, यह मैं ही जानती हूँ। एक दबी हुई ज्वाला है, जो अंदर ही अंदर मुझे भस्म कर रही है। आपको मालूम नहीं, कितनी आँखें हमारी ओर एकटक ताकती रहती हैं। ज़रा भी संदेह हुआ, और चिर-वियोग की विपत्ति हमारे सिर पड़ी। इसीलिए हमें बहुत ही सावधान रहना चाहिए। तुमसे एक याचना करती हूँ, क्षमा करना। मैं तुम्हें अँग्रेजी पोशाक में देखने को बहुत उत्कंठित हो रही हूँ। यों तो तुम चाहे जो वस्त्र धारण करो, मेरी आँखों के तारे हो- विशेषकर तुम्हारा सादा कुरता मुझे बहुत ही सुन्दर मालूम होता है- फिर भी, बाल्यावस्था से जिन वस्त्रों को देखते चली आयी हूँ, उन पर विशेष अनुराग होना स्वाभाविक है। मुझे आशा है, तुम निराश न करोगे। मैंने तुम्हारे लिए एक वास्कट बनायी है ! उसे मेरे प्रेम का तुच्छ उपहार समझकर स्वीकार करो।

तुम्हारी

लूसी’

पत्र के साथ एक छोटा-सा पैकेट था। वास्कट उसी में बंद था। यारों ने आपस में चंदा करके बड़ी उदारता से उसका मूलधन एकत्र किया था। उस पर सेंट-परसेंट से भी अधिक लाभ होने की सम्भावना थी। पंडित चक्रधर उक्त उपहार और पत्र पाकर इतने प्रसन्न हुए, जिसका ठिकाना नहीं, उसे लेकर सारे छात्रावास में चक्कर लगा आये। मित्र-वृन्द देखते थे, उसकी काट-छाँट की सराहना करते थे; तारीफ़ों के पुल बाँधते थे; उसके मूल्य का अतिशयोक्तिपूर्ण अनुमान करते थे। कोई कहता था- यह सीधे पेरिस से सिलकर आया है; इस मुल्क में ऐसे कारीगर कहाँ, अगर कोई इस टक्कर का वास्कट सिलवा दे, तो 100 रु. की बाज़ी बदता हूँ ? पर वास्तव में उसके कपड़े का रंग इतना गहरा था कि कोई सुरुचि रखने वाला मनुष्य उसे पहनना पसंद न करता। चक्रधर को लोगों ने पूर्व मुख करके खड़ा किया, और फिर शुभ मुहूर्त में वह वास्कट उन्हें पहनाया। आप फूले न समाते थे। कोई इधर से जाकर कहता- “भाई, तुम तो बिलकुल पहचाने नहीं जाते। चोला ही बदल दिया। अपने वक़्त के यूसुफ़ हो। यार, क्यों न हो, तभी तो यह ठाट है। मुखड़ा कैसा दमकने लगा, मानो तपाया हुआ कुंदन है। अजी, एक वास्कट पर यह जीवन है, कहीं पूरा अँग्रेजी सूट पहन लो तो न जाने क्या गजब हो जाए ? सारी मिसें लोट-पोट हो जायँ। गला छुड़ाना मुश्किल हो जाए”

आख़िर सलाह हुई कि उनके लिए एक अँग्रेजी सूट बनवाना चाहिए। इस कला के विशेषज्ञ उनके साथ गुट बाँधकर सूट बनवाने चले। पंडितजी घर के सम्पन्न थे। एक अँग्रेजी दुकान से बहुमूल्य सूट लिया गया। रात को इसी उत्सव में गाना-बजाना भी हुआ।

दूसरे दिन, दस बजे, लोगों ने पंडितजी को सूट पहनाया। आप अपनी उदासीनता दिखाने के लिए बोले- “मुझे तो बिलकुल अच्छा नहीं लगता। आप लोगों को न-जाने क्यों ये कपड़े अच्छे लगते हैं।“

नईम- “ज़रा आईने में सूरत देखिए, तो मालूम हो। ख़ासे शहजादे मालूम पड़ते हो। तुम्हारे हुस्न पर मुझे तो रस्क है। ख़ुदा ने तो आपको ऐसी सूरत दी, और उसे आप मोटे कपड़ों में छिपाए हुए थे।“

चक्रधर को नेकटाई बाँधने का ज्ञान न था। बोले- “भाई, इसे तो ठीक कर दो”

गिरिधर सहाय ने नेकटाई इतनी कसकर बाँधी कि पंडितजी को साँस लेना भी मुश्किल हो गया। बोले- “यार बहुत तंग है”

गिरिधर- “इसका फैशन ही यह है; हम क्या करें। ढीली टाई ऐब में दाख़िल है”

नईम- “इन्होंने तो फिर भी बहुत ढीली रखी है। मैं तो और भी कसकर बाँधता हूँ”

चक्रधर- “अजी, यहाँ तो दम घुट रहा है”

नईम- “और टाई की मंशा ही क्या है ? इसीलिए तो बाँधी जाती है कि आदमी बहुत ज़ोर-ज़ोर से साँस न ले सके”

चक्रधर के प्राण संकट में थे। आँखें सजल हो रही थीं, चेहरा सुर्ख हो गया था। मगर टाई को ढीला करने की हिम्मत न पड़ती थी। इस सजधज से आप कॉलेज चले तो मित्रों का एक गोल सम्मान का भाव दिखाता आपके पीछे-पीछे चला, मानों बरातियों का समूह है। एक-दूसरे की तरफ ताकता; और रूमाल मुँह में देकर हँसता था।

मगर पंडितजी को क्या खबर ? वह तो अपनी धुन में मस्त थे। अकड़-अकड़कर चलते हुए आकर क्लास में बैठ गये। थोड़ी देर बाद लूसी भी आयी। पंडित का यह वेष देखा, तो चकित हो गयी। उसके अधरों पर मुस्कान की एक अपूर्व रेखा अंकित हो गयी ! पंडितजी ने समझा, यह उसके उल्लास का चिह्न है। बार-बार मुस्कराकर उसकी ओर ताकने और रहस्यपूर्ण भाव से देखने लगे, किन्तु वह लेशमात्र भी ध्यान न देती थी।

पंडितजी की जीवनचर्या, धर्मोत्साह और जातीय प्रेम में बड़े वेग से परिवर्तन होने लगे। सबसे पहले शिखा पर छुरा फिरा। अँग्रेजी फैशन के बाल कटवाये गये। लोगों ने कहा- “यह क्या महाशय ? आप तो फ़रमाते थे कि शिखा द्वारा विधुत-परवाह शरीर में प्रवेश करता है। अब वह किस मार्ग से जाएगा?

पंडितजी ने दार्शनिक भाव से मुस्कराकर कहा- “मैं तुम लोगों को उल्लू बनाता था। क्या मैं इतना भी नहीं जानता कि यह सब पाखंड है ? मुझे अंतःकरण से इस पर विश्वास ही कब था; आप लोगों को चकमा देना चाहता था”

नईम- “वल्लाह, आप एक ही झाँसेबाज निकले। हम लोग आपको बछिया के ताऊ ही समझते थे, मगर आप तो आठों गाँठ कुम्मैत निकले”

चक्रधर- “देखता कि लोग कहते क्या हैं!”

शिखा के साथ-साथ संध्या और हवन की भी इतिश्री हो गयी। हवन-कुंड कमरे में चारपाई के नीचे फेंक दिया गया। कुछ दिनों के बाद सिगरेट के जले हुए टुकड़े रखने का काम देने लगा। जिस आसन पर बैठकर हवन किया करते थे, वह पायदान बना। अब प्रतिदिन साबुन रगड़ते, बालों में कंघी करते और सिगार पीते। यार उन्हें चंग पर चढ़ाये रहते थे। यह प्रस्ताव हुआ कि इस चंडूल से वास्कट के रुपए वसूल करने चाहिए मय सूद के।

क्रमशः 
Munshi Premchand Ki Kahani Vinod
घनी कहानी, छोटी शाखा: मुंशी प्रेमचंद की कहानी “विनोद” का तीसरा भाग
घनी कहानी, छोटी शाखा: मुंशी प्रेमचंद की कहानी “विनोद” का चौथा भाग
घनी कहानी, छोटी शाखा- मुंशी प्रेमचंद की कहानी “विनोद” का अंतिम भाग

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