राम खिलावन Manto Ki Kahani Ram Khilawan
(पहला भाग)
खटमल मारने के बाद में ट्रंक में पुराने काग़ज़ात देख रहा था कि सईद भाई जान की तस्वीर मिल गई। मेज़ पर एक ख़ाली फ़्रेम पड़ा था, मैंने इस तस्वीर से उस को पूरा कर दिया और कुर्सी पर बैठ कर धोबी का इंतिज़ार करने लगा।
हर इतवार को मुझे इसी तरह इंतिज़ार करना पड़ता था क्योंकि हफ़्ते की शाम को मेरे धुले हुए कपड़ों का स्टाक ख़त्म हो जाता था,.. मुझे स्टाक तो नहीं कहना चाहिए इसलिए कि मुफ़्लिसी के उस ज़माने में मेरे सिर्फ़ इतने कपड़े थे जो बमुश्किल छः सात दिन तक मेरी वज़ादारी क़ायम रख सकते थे।
मेरी शादी की बातचीत हो रही थी और इस सिलसिले में पिछले दो तीन इतवारों से मैं माहिम जा रहा है। धोबी शरीफ़ आदमी था। यानी धुलाई न मिलने के बावजूद हर इतवार को बाक़ायदगी के साथ पूरे दस बजे मेरे कपड़े ले आता था, लेकिन फिर भी मुझे खटका था कि ऐसा न हो मेरी ना-दहिंदगी से तंग आकर किसी रोज़ मेरे कपड़े चोर बाज़ार में फ़रोख़्त कर दे और मुझे अपनी शादी की बातचीत में बग़ैर कपड़ों के हिस्सा लेना पड़े जो कि ज़ाहिर है बहुत ही मायूब बात होती।
खोली में मरे हुए खटमलों की निहायत ही मकरूह बू फैली हुई थी। मैं सोच रहा था कि उसे किस तरह दबाऊँ कि धोबी आ गया। “साब सलाम।” कर के उसने अपनी गठड़ी खोली और मेरे गिनती के कपड़े मेज़ पर रख दिए। ऐसा करते हुए उसकी नज़र सईद भाई जान की तस्वीर पर पड़ी। एक दम चौंक कर उसने उसको ग़ौर से देखना शुरू कर दिया। और एक अजीब और ग़रीब आवाज़ हलक़ से निकाली। “है है है हैं?”
मैंने इस से पूछा। “क्या बात है धोबी?”
धोबी की नज़रें उस तस्वीर पर जमी रहीं। “ये तो साईद शालीम बालिशटर है?”
“कौन?”
धोबी ने मेरी तरफ़ देखा और बड़े वसूक़ से कहा। “साईद शालीम बालिशटर।”
“तुम जानते हो इन्हें?”
धोबी ने ज़ोर से सर हिलाया। “हाँ, दो भाई होता, उधर कोलाबा में इन का कोठी होता, साईद शालीम बालिशटर, मैं इन का कपड़ा धोता होता।”
मैंने सोचा ये दो बरस पहले की बात होगी क्योंकि सईद हसन और मोहम्मद हसन भाई जान ने फिजी आईलैंड जाने से पहले तक़रीबन एक बम्बे में प्रैक्टिस की थी। चुनाँचे मैंने उससे कहा। “दो बरस पहले की बात करते हो तुम।”
धोबी ने ज़ोर से सर हिलाया। “हाँ, साईद शालीम बालिशटर जब गया तो हम को एक पगड़ी दिया….. एक धोती दिया…. एक कुर्ता दिया….नया…. बहुत अच्छा लोग होता…. एक का दाढ़ी होता…. ये बड़ा।” उसने हाथ से दाढ़ी की लंबाई बताई और सईद भाई जान की तस्वीर की तरफ़ इशारा करके कहा: “ये छोटा होता.. इसका तीन बावा लोग होता…. दो लड़का, एक लड़की…. हमारे संग बहुत खेलता होता.. कोलाबे में कोठी होता..बहुत बड़ा…..”
मैंने कहा। “धोबी ये मेरे भाई हैं।”
धोबी ने हलक़ से अजीब-ओ-ग़रीब आवाज़ निकाली। “है है है हैं?…. साईद शालीम बालिशटर??”
मैंने उसकी हैरत दूर करने की कोशिश की और कहा। “ये तस्वीर सईद हसन भाई जान की है…. दाढ़ी वाले मोहम्मद हसन हैं…. हम सब से बड़े।”
धोबी ने मेरी तरफ़ घूर के देखा, फिर मेरी खोली की ग़लाज़त का जायज़ा लिया…. एक छोटी सी कोठड़ी थी,बिजली लाईट से महरूम। एक मेज़ थी, एक कुर्सी और एक टाट की कोट जिस में हज़ारहा खटमल थे। धोबी को यक़ीन नहीं आता था कि मैं साईद शालीम बालिशटर का भाई हूँ लेकिन जब मैंने उसको उन की बहुत सी बातें बतायीं तो उसने सर को अजीब तरीक़े से जुंबिश दी और कहा। “साईद शालीम बालिशटर कोलाबे में रहता और तुम इस खोली में!”
मैंने बड़े फ़ल्सफ़ियाना अंदाज़ में कहा। “दुनिया के यही रंग हैं धोबी……. कहीं धूप कहीं छाओं…. पाँच उंगलियां एक जैसी नहीं होतीं।”
“हाँ साब…. तुम बरोबर कहता है।” ये कह कर धोबी ने गठड़ी उठाई और बाहर जाने लगा। मुझे उसके हिसाब का ख़्याल आया। जेब में सिर्फ़ आठ आने थे जो शादी की बातचीत के सिलसिले में माहिम तक आने-जाने के लिए बमुश्किल काफ़ी थे। सिर्फ़ ये बताने के लिए मेरी नीयत साफ़ है मैंने उसे ठहराया और कहा। “धोबी… कपड़ों का हिसाब याद रखना… ख़ुदा मालूम कितनी धलाईआं हो चुकी हैं।”
धोबी ने अपनी धोती का लॉंग दुरुस्त किया और कहा। “साब हम हिसाब नहीं रखते……. साईद शालीम बालिशटर का एक बरस काम किया……. जो दे दिया, ले लिया……. हम हिसाब जानते ही न हैं।”
ये कह वो चला गया और मैं शादी की बातचीत के सिलसिले में माहिम जाने के लिए तैय्यार होने लगा।
बातचीत कामयाब रही……. मेरी शादी हो गई। हालात भी बेहतर होगए और मैं स्कैंड पीर ख़ान स्ट्रीट की खोली से जिसका किराया नौ रूपये माहवार था क्लीयर रोड के एक फ़्लैट में जिसका किराया पैंतीस रुपय माहवार था, उठ आया और धोबी को माह-ब-माह बाक़ायदगी से उसकी धुलाइयों के दाम मिलने लगे। Manto Ki Kahani Ram Khilawan
धोबी ख़ुश था कि मेरे हालात पहले की बनिसबत बेहतर हैं चुनांचे उस ने मेरी बीवी से कहा। “बेगम साब…..साब का भाई साईद शालीम बालिशटर बहुत बड़ा आदमी होता…..उधर कोलाबा में रहता होता….. जब गया तो हम को एक पगड़ी, एक धोती, एक कुर्ता दिया होता….. तुम्हारा साब भी एक दिन बड़ा आदमी बनता हुआ” मैं अपनी बीवी को तस्वीर वाला क़िस्सा सुना चुका था और उसको ये भी बता चुका था कि मुफ़लिसी के ज़माने में कितनी दरिया दिल्ली से धोबी ने मेरा साथ दिया था……. जब दे दिया, जो दे दिया। उसने कभी शिकायत की ही न थी……. लेकिन मेरी बीवी को थोड़े अर्से के बाद ही इस से ये शिकायत पैदा होगई कि वो हिसाब नहीं करता। मैंने इस से कहा। “चार बरस मेरा काम करता रहा……. उसने कभी हिसाब नहीं किया।”
जवाब ये मिला। “हिसाब क्यों करता……. वैसे दोगुने चौगुने वसूल कर लेता होगा।”
“वो कैसे?”
“आप नहीं जानते…. जिनके घरों में बीवियाँ नहीं होतीं उनको ऐसे लोग बेवक़ूफ़ बनाना जानते हैं।”
क़रीब क़रीब हर महीने धोबी से मेरी बीवी की चख़-चख़ होती थी कि वो कपड़ों का हिसाब अलग अपने पास क्यों नहीं रखता। वो बड़ी सादगी से सिर्फ़ इतना कह देता। “बेगम साब..हम हिसाब जानत नाहीं। तुम झूठ नाहीं बोलेगा …..साईद शालीम बालिशटर जो तुम्हारे साब का भाई होता……. हम एक बरस उस का काम क्या होता……. बेगम साब बोलता धोबी तुम्हारा इतना पैसा हुआ……. हम बोलता, ठीक है!”
एक महीने ढाई सौ कपड़े धुलाई में गए। मेरी बीवी ने आज़माने के लिए इससे कहा। “धोबी इस महीने साठ कपड़े हुए।”
इस ने कहा। “ठीक है……. बेगम साब, तुम झूठ नाहीं बोलेगा।”
मेरी बीवी ने साठ कपड़ों के हिसाब से जब उसको दाम दिए तो उसने माथे के साथ रुपए छुआ कर सलाम किया और चला गया।
क्रमशः
घनी कहानी, छोटी शाखा: सआदत हसन मंटो की कहानी “राम खिलावन” का दूसरा भाग
घनी कहानी, छोटी शाखा: सआदत हसन मंटो की कहानी “राम खिलावन” का अंतिम भाग
Manto Ki Kahani Ram Khilawan